tag:blogger.com,1999:blog-74571037072584211152024-03-18T16:14:11.451+05:30Shabdankan शब्दांकनसाहित्यिक, सामाजिक ई-पत्रिका ShabdankanBharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.comBlogger2071125tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-9880568521467286972024-03-18T16:12:00.004+05:302024-03-18T16:13:20.845+05:30कोरिया का जटिल इतिहास — मेटर 2-10 से के-पॉप तक ~ रोहिणी कुमारी | The Complex History of Korea<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div><blockquote><div>सियोल में नौकरी से निकाल दिया गया एक रेल कर्मचारी है। उस कर्मचारी ने शहर की एक सोलह मंज़िला फ़ैक्ट्री की चिमनी पर अपना डेरा जमा लिया है और महीनों तक वहीं रहकर अपने साथ हुए इस अन्याय के ख़िलाफ़ धरने पर बैठा रहा है।</div></blockquote><div><br /></div><div>कूपमंडूकता या सबसे-बेहतर-मैं बीमारी से बचने का एक कारगर उपाय उस रोचक लेखन को पढ़ना हो सकता है जो आपसे सीधा न जुड़ा होने के बावजूद आपकी सोच का विस्तार कर सकता हो। अब पढ़िए दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में कोरियाई भाषा एवं साहित्य की जिम्मेवार रोहिणी कुमारी का वह रोचक आलेख जिसकी बानगी आपने ऊपर पढ़ी ~ सं० </div></div><span><a name='more'></a></span><div><br /></div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWcGi5F2LAsa-hoDAlFmqsp7TgAjfEjFrfqtV6Gc3BZLJCwK-KRwlx2uDMlPa1Ygf9bEjzeDHmZATUsQCny-jrA0It1mJYIloUkdvZwOrzB-30dMQtNc9ys1tSRnAQYJ_pZFP8RIGO5XP0ChuRJvTsItlGD7mWv_tLRPnZMTFcBKmDspp-2C4B-nyynGj1/s903/The%20Complex%20History%20of%20Korea%20%E2%80%94%20From%20Miter%202-10%20to%20K-Pop%20~%20Rohini%20Kumari.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWcGi5F2LAsa-hoDAlFmqsp7TgAjfEjFrfqtV6Gc3BZLJCwK-KRwlx2uDMlPa1Ygf9bEjzeDHmZATUsQCny-jrA0It1mJYIloUkdvZwOrzB-30dMQtNc9ys1tSRnAQYJ_pZFP8RIGO5XP0ChuRJvTsItlGD7mWv_tLRPnZMTFcBKmDspp-2C4B-nyynGj1/s16000/The%20Complex%20History%20of%20Korea%20%E2%80%94%20From%20Miter%202-10%20to%20K-Pop%20~%20Rohini%20Kumari.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">The Complex History of Korea — From Miter 2-10 to K-Pop ~ Rohini Kumari</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h1 itemprop="headline">
कोरिया का जटिल इतिहास — मेटर 2-0 से के-पॉप तक</h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">
~ रोहिणी कुमारी</h2><div><h2 itemprop="alternativeHeadline"><div 11px="" font-size:=""></div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><span style="font-size: 11px; font-weight: 400;">जेएनयू से कोरियाई भाषा एवं साहित्य में पीएचडी। रोहिणी अपने विषय में पीएचडी करने वाली भारत की पहली शोधार्थी हैं। वर्तमान में वह दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में कोरियाई भाषा एवं साहित्य का अध्यापन करती हैं। इसके अलावा वह विकास सेक्टर की खबरों और काम से जुड़े लेखों को प्रकाशित करने वाले एक मात्र ऑनलाइन मंच इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू की हिन्दी टीम में संपादकीय सलाहकार भी हैं। रोहिणी ने मिशेल ओबामा की जीवनी ‘बिकमिंग’, अनुपम खेर की जीवनी ‘लेशंस लाइफ टॉट मी अननोइंग्ली’ गौरांग दास की पुस्तक ‘द आर्ट ऑफ़ हैबिट्स’ जैसी किताबों का हिन्दी अनुवाद भी किया है। </span></div></div></h2></div>
<div 11px="" font-size:=""><br /></div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">हाल ही में द हिंदू के सप्लीमेंट में एक बड़ी ही मज़ेदार खबर पढ़ी। मुर्शिदाबाद की दो लड़कियाँ बिना किसी साधन-संसाधन के घर से भाग गईं। इनके भागने के पीछे का कारण हैरान करने वाला था, और मुझे तो बिलकुल से हिला देने वाला। इन दोनों लड़कियों की उम्र तेरह और पंद्रह साल बताई गई और दोनों ही आर्थिक रूप से एक सामान्य परिवार से आती हैं। हालाँकि इनके साथ इनका एक भाई भी था और उसकी उम्र भी लगभग इतनी ही थी। इन तीनों को भागकर सपनों के शहर मुंबई जाना था। और अपने-अपने सपने पूरे करने थे। यूँ तो ये कहना भी सही नहीं होगा कि ये बच्चे फ़िल्म और गाने की दुनिया से प्रभावित होकर नहीं भागे थे। लेकिन रुकिए, किसी निष्कर्ष पर मत पहुँच जाइए कि इन्हें फ़िल्मों में हीरो, हीरोइन या फिर निर्देशक या संगीतकार बनना था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दरअसल, इन बच्चों या कहें कि किशोरों के घर से भागने का कारण आपको चौंका देगा। ये बच्चे भारत या फिर कहें के दुनिया के अधिकांश देशों के इस उम्र के किशोरों की तरह ही के-पॉप (कोरियाई संगीत और गाने) के फैन हैं और ख़ुद को बीटीएस आर्मी का सदस्य मानते हैं। दुनिया के हर कोने में बीटीएस के फैन एक दूसरे को इसी आर्मी का सदस्य मानते हैं और इन्हें आपस में जुड़ने और एक दूसरे के लिए प्रेम महसूस करने के लिए किसी और फ़ैक्टर की ज़रूरत नहीं होती है। चलते-चलते बता दूँ कि बीटीएस जिसे बांगटान सोनयोनडान भी कहा जाता है, 7 दक्षिण कोरियाई लड़कों का एक म्यूजिक बैंड है और केवल दक्षिण कोरिया ही नहीं बल्कि दुनिया भर में लोगों को अपना दीवाना बनाया हुआ है। साल 2013 में बीटीएस अपना पहला गाना ‘नो मोर ड्रीम्स’ लेकर दुनिया के सामने आया और वह दिन था और आज का दिन है कि इस ग्रुप और इसके लड़कों के प्रति ना केवल किशोरों बल्कि हर उम्र के लोगों की दीवानगी दिन-बाद दिन बढ़ती ही जा रही है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इसी ग्रुप के दीवाने मुर्शिदाबाद के वे तीनों बच्चे भी थे जिन्होंने मुर्शिदाबाद वाया मुंबई तो सियोल पहुँचने का सपना संजो रखा था और एक दिन इसी सपने को पूरा करने के लिए बिना कुछ सोचे-समझे जेब में चंद रुपये लेकर निकल पड़े। हालाँकि घर-परिवार के लोगों को जब उनके घर से भाग जाने की बात पता चली तो उन लोगों ने इन्हें ढूँढने के लिए दिन-रात एक कर दिया और अपने बच्चों को मुंबई पहुँचने से पहले ही वापस ले आए।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कोरियाई भाषा को पढ़ने-पढ़ाने के क्षेत्र से जुड़े होने के कारण जहां एक ओर मुझे इस खबर ने बहुत अधिक उत्तेजित या परेशान उस तरह से नहीं किया जैसे कि किसी आम आदमी को किया होगा या कर सकता है। एक ओर जहां हम इस भाषा के प्रति बढ़ते प्रेम और दीवानगी को देखकर खुश होते हैं, वहीं दूसरी ओर हमें यह सवाल परेशान करता है कि क्या के-पॉप, के-ड्रामा या दूसरे शब्दों में कहें तो हाल्यू के बैनर तले दक्षिण कोरियाई समाज का इतिहास, महज़ लगभग दो दशकों में विकासशील से विकसित देश की सूची में शामिल होने के पीछे के उसके संघर्ष, उसके आधुनिक समाज की स्थिति कहीं छुप तो नहीं जा रही है?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हाल्यू की बदौलत दुनिया भर में अपनी सभ्यता-संस्कृति, खान-पान, गीत-संगीत को पहुँचाने वाले और दुनिया भर के किशोरों (क्या शहरी, क्या ग्रामीण) के दिलों में अपनी जगह बनाने वाले दक्षिण कोरियाई लोग क्या ख़ुद की यही पहचान चाहते हैं? क्या वे उस संघर्ष को भूल जाना चाहते हैं जो उनके पूर्वजों ने जापान से अपने देश को आज़ाद करवाने के लिए किया था? क्या दक्षिणी कोरियाई आधुनिक समाज ‘कोरियाई युद्ध’ और विभाजन के दर्द को याद नहीं करना चाहता और उसके बारे में अपनी युवा पीढ़ी को बताना नहीं चाहता? हाल्यू को इस कदर दुनिया भर में पहुँचाने का कारण अपने संघर्षों से भरे इतिहास को ढँकने-छुपाने या फिर भुला देने का प्रयास है?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अगर एक शब्द में इन सभी सवालों का जवाब देने को कहा जाए तो मुश्किल होगी। क्योंकि इन सवाल का जवाब केवल हाँ या ना में दिया नहीं जा सकता है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दरअसल, हाल्यू या के-पॉप, के-ड्रामा, बीटीएस, ब्लैक पिंक जैसे संगीत के ग्रुप दुनिया के सामने दक्षिण कोरिया की छवि को सशक्त करने और दुनिया के शक्तिशाली देशों के बीच अपनी एक अलग छवि बनाने का ज़रिया भर हैं या हो सकते हैं। लेकिन दक्षिण कोरिया का अर्थ केवल के-पॉप या के-ड्रामा नहीं है। उनमें भी वास्तविकता और फ़िक्शन का अनुपात वही होता है जो हिन्दी या किसी भी भारतीय भाषा में बनाए जाने वाले धारावाहिकों और गानों में होता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं अपनी इस बात को मज़बूत करने के लिए आपको कोरिया से ही जुड़ी एक दूसरी खबर के बारे में बताती हूँ। पिछले दिनों 11 मार्च 2024 को इंटरनेशनल बुकर प्राइज 2024 का लौंगलिस्ट जारी किया गया। दुनिया भर की 13 किताबों की इस सूची में दक्षिण कोरियाई लेखक ह्वांग सोक-योंग की किताब ‘मेटर 2 -10’ भी शामिल है। 81 वर्षीय ह्वांग सोक-योंग की यह दूसरी किताब है जो इंटरनेशनल बुकर प्राइज के लिए नामित हुई है। इससे पहले ‘एट डस्क’ नाम का उनका उपन्यास साल 2018 की सूची में अपनी स्थान बना चुका है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कोरियाई यूनिफ़िकेशन के पैरोकार रहे ह्वांग सोक-योंग के इस उपन्यास के केंद्र में सियोल में नौकरी से निकाल दिया गया एक रेल कर्मचारी है। उस कर्मचारी ने शहर की एक सोलह मंज़िला फ़ैक्ट्री की चिमनी पर अपना डेरा जमा लिया है और महीनों तक वहीं रहकर अपने साथ हुए इस अन्याय के ख़िलाफ़ धरने पर बैठा रहा है। अपनी इस लंबी और मुश्किल भरी लड़ाई के दौरान अकेली और सर्द रातों में वह अपने से पिछली पीढ़ी के लोगों, अपने पूर्वजों से बातचीत करता है। उसकी इस बातचीत के केंद्र में जीवन का वास्तविक अर्थ, पीढ़ियों से चले आ रहे ज्ञान जैसे विषय हैं। ह्वांग इस उपन्यास के माध्यम से अपने देश को आज़ाद करवाने और कामकाज की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए जापानी और अमेरिकी प्रशासन द्वारा की गई यातनाओं, अन्यायों, हत्याओं और लोगों को जबरन जेल में डाल देनी की घटनाओं को इतनी बारीकी से बुनते हैं, कि उस रेल कर्मचारी में पाठक अपना जीवन देखने लग जाता है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उस रेल कर्मचारी की तीन पीढ़ियों के जीवन के माध्यम से ह्वांग का यह उपन्यास मेटर 2-10, कोरिया के आम लोगों के जीवन के संघर्षों को बहुत ही स्पष्टता और बारीकी से दिखाने में सफल होता है जो 1910 में जापान का उपनिवेश बनने के बाद से इक्कीसवी सदी के उत्तरार्ध तक जारी रहता है।</div><div itemprop="articleBody">यह उपन्यास दरअसल एक समय में उत्पीड़न से मुक्त होने की इच्छा रखने वाले एक देश और उसके लिए लड़ने वाले उसके लोगों की एक कहानी है जिसे लिखने में ह्वांग को लगभग तीस साल का समय लगा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दक्षिण कोरिया ही नहीं बल्कि वैश्विक साहित्यिक दुनिया में कोरियाई प्रायद्वीप के इस जटिल इतिहास की लोकप्रियता देखते हुए मैं एक बार फिर से आपका ध्यान उन सवालों की तरफ़ लेकर जाना चाहती हूं जिनका ज़िक्र इस लेख की शुरुआत में मैंने किया था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक तरफ़ ह्वांग सोक-योंग के उपन्यास की लोकप्रियता और स्वीकृति और दूसरी तरफ़ के-पॉप और के-ड्रामा के फीवर को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कोरिया के लोग अपनी नई पहचान बनाने के साथ ही अपने पुराने संघर्षों और मुश्किल वक्त को भी उतनी ही शिद्दत से न केवल याद कर रहे हैं बल्कि उसे अपना रहे हैं और उसका सम्मान भी कर रहे हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इसलिए मुर्शिदाबाद की उन लड़कियों की तरह दुनिया भर में आर्मी के फैन को न केवल जंगकुक के बारे में जानना चाहिए बल्कि अगर दक्षिण कोरिया और उसके गीत-संगीत के प्रति उनकी दीवानगी की यह यात्रा के-पॉप से शुरू होकर ह्वांग सोक-योंग, हान कांग, शीन क्यंग सुक जैसे साहित्यकारों की कृतियों तक भी पहुंचे तो वे कोरियाई संस्कृति और सभ्यता के वास्तविक अर्थ को समग्रता से और सही मायने में अगली पीढ़ी तक ले जाने वाले आर्मी के सदस्य हो सकेंगे, जिनमें ना केवल ब्लैक पिंक और बीटीएस होगा बल्कि कोरिया के गांव में रहने वाली वह माँ भी होगी जो सियोल की चकाचौंध में खो जाती है, वह स्त्री भी होगी जो मुख्य रूप से मांस खाने वाले एक देश में पूरी तरह से शाकाहारी बनना चाहती है।</div><div><br /></div></div>
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(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br />
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-57795691189863120462024-03-09T14:46:00.000+05:302024-03-09T14:46:11.995+05:30क़िस्साग्राम: अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा - अनुरंजनी | Prabhat Ranjan Upanyas Kissagram<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>प्रभात रंजन के हाल ही में प्रकाशित, चर्चित उपन्यास 'क़िस्साग्राम' का एक अंश आप पढ़ चुके हैं (<a href="https://www.shabdankan.com/2023/11/prabhat-ranjan-upanyas-ansh.html" rel="nofollow" target="_blank">लिंक</a>) अब पढ़ें उपन्यास पर युवा समीक्षक अनुरंजनी की बेहतर कलम! ~ सं०<span><a name='more'></a></span></div><div><br /></div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiULH9zheQaeE-GCjhFJRUOgnLCjK5rB1pAWomiJ-Sp_LnA8150AnF32B5hUePF-GLwpgtt4greBRu-_lz1g3lb4v0k7xtNmd9XKana5qIYRZMQGqdJShraTJ1ZaDFPfO9Rbc39PyTDGJLB3LE2ZrUPraUpmidLZCcLfVfDkHmBi6h8KxKHN70BRI8f-GiB/s903/kissagram%20novel%20by%20prabhat%20ranjan.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiULH9zheQaeE-GCjhFJRUOgnLCjK5rB1pAWomiJ-Sp_LnA8150AnF32B5hUePF-GLwpgtt4greBRu-_lz1g3lb4v0k7xtNmd9XKana5qIYRZMQGqdJShraTJ1ZaDFPfO9Rbc39PyTDGJLB3LE2ZrUPraUpmidLZCcLfVfDkHmBi6h8KxKHN70BRI8f-GiB/s16000/kissagram%20novel%20by%20prabhat%20ranjan.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Prabhat Ranjan Upanyas Kissagram</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: center;"><br /></div>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">
क़िस्साग्राम: अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा</h2><div style="text-align: right;"><h2 itemprop="alternativeHeadline" style="text-align: justify;">~ अनुरंजनी </h2><h2 itemprop="alternativeHeadline" style="text-align: justify;"><div 11px="" font-size:=""></div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><span style="font-size: 11px; font-weight: normal;">एम.ए में स्वर्ण-पदक विजेता, फिलहाल यूजीसी द्वारा ‘जेआरएफ’ पा कर दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया के‘भारतीय भाषा विभाग’ में शोधार्थी। <a href="mailto:anuranjanee06@gmail.com">anuranjanee06@gmail.com</a></span></div></div></h2><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">शौक़ बहराइची का मशहूर शेर है – </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> बर्बाद गुलिस्ताँ करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी था</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> हर शाख़ पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए- गुलिस्ताँ क्या होगा</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">जिसकी याद ‘क़िस्साग्राम’ अनायास ही दिला देती है। ‘क़िस्साग्राम’ प्रभात रंजन का हाल ही में प्रकाशित उपन्यास है जिसकी बुनियाद इतनी है कि 90 दशक के किसी रोज़ स्कूल की ‘फील्ड’ के एक कोने में एक छोटी सी मूर्ति आ गई, किसी के ध्यान जाने से पहले ही स्कूल के चौकीदार ने ईंट का एक चौतरा बनाकर उसके ऊपर दीवार से सटाकर मूर्ति को बिठाया और मूर्ति के माथे में लाल सिंदूर लगा दिया और रोज़ सुबह वहाँ आकर अगरबत्ती जलाने लगा। धीरे-धीरे और लोग उसकी पूजा करने लगे और उसी में एक छकौरी नामक पहलवान का प्रवेश होता है जिसने अपने को स्थापित करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण दंगल में जाने से पहले उसी चौतरे वाले हनुमान जी के पैर के पास की मिट्टी उठाकर उसने अपने माथे पर लपेटी थी और चार नामी पहलवानों को धूल चटाकर सबके लिए छकौरी पहलवान के नाम से प्रसिद्ध हो गया। प्रत्येक दंगल में जाने से पूर्व वह उस मंदिर में आता रहा, हनुमान जी के चरण-धूल अपने माथे लगाता रहा और लगातार 56 दंगल जीतता रहा। फिर किसी रोज़ ऐसा हुआ कि नेपाल में सीता-जयंती पर आयोजित दंगल में वह हार गया और फिर तभी से वह गायब हो गया और उसी रात किसी ने वह मूर्ति तोड़ डाली। इसके बाद केवल किस्से ही किस्से हैं। किस्से उन तमाम राजनीतिक परिदृश्य के जहाँ सब कुछ गौण हो जाता है और मुख्य रहती है राजनीति।</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">हम बचपन से पढ़ते-सुनते आ रहे हैं कि लोकतंत्र जनता की, जनता के द्वारा और जनता के लिए है लेकिन जैसे-जैसे हम सचेत होते जाते हैं वैसे-वैसे यह वास्तविकता दिखने लगती है कि लोकतंत्र की परिभाषा जो हमने पढ़ी, जिसपर विश्वास किया वह तो खोखली लगती है। असल में लोकतंत्र हो या कोई भी तंत्र सब अपनी सत्ता कायम रखना चाहते हैं और उसके लिए ‘लोक’ का इस्तेमाल हर तरह से करना जानते हैं। यह उपन्यास एक तरह से इसी के इर्द-गिर्द है जहाँ लेखक स्पष्ट लिखते भी हैं कि – </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">जो सत्ता में होता है वह बात तो अपनों की करता है लेकिन विकास अपना करता है। उसके लिए अपने उसके अपने परिजन होते हैं। बाकी किसी की वह परवाह नहीं करता।</div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिए राजनीति जिन-जिन बातों का, जिन-जिन तरीकों का इस्तेमाल कर सकती है, बल्कि कहें कि करती है उन सबके किस्से बहुत ही दिलचस्प तरीके से यह किताब बयान करती है। </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">राजनीति में धर्म अब तक एक बेहद ही प्रभावशाली ज़रिया साबित होते रहा है जिससे जनता आसानी से सत्ताधारियों के बहकावे में आ जाती है। उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं, ताज़ा उदाहरण का बृहत् रूप बीते महीने भर पहले ही बीता है। ऐसे में लियो टॅालस्टॅाय का यह कथन प्रासंगिक लगता है कि “किसी देश को बर्बाद करना हो तो वहाँ के लोगों को धर्म के नाम पर आपस में लड़ा दो, देश अपने आप बर्बाद हो जाएगा।” हालाँकि इस उपन्यास में धर्म के नाम पर लड़ाने का उल्लेख तो नहीं है लेकिन धर्म के नाम पर भोली-भाली जनता का इस्तेमाल करना प्रमुखता से है। जिस रोज़ मूर्ति टूटी, उसी रोज़ से छकौरी पहलवान गायब हो गया था लेकिन उसके बाद हर जगह उसकी उपस्थिति है। उपस्थिति इसलिए क्योंकि सबलोग उसके नाम पर अपना फायदा चाहते हैं। कब धीरे से राजनीति इसमें प्रवेश कर जाती है और अन्त-अन्त तक वही हावी रहती है यह पता भी नहीं चलता। सबसे पहले माँग होती है छकौरी पहलवान के गायब होने की जाँच की जिसके प्रतिउत्तर में एक दूसरी पार्टी के नेता द्वारा यह घोषणा कर दी जाती है कि </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">अन्हारी गाँव में जनता के सहयोग से हनुमान जी के भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया जाएगा। लोग आएँ और स्वेच्छा से इसके लिए दान दें। भगवान की मूर्ति का टूटना बहुत बड़ा अपशकुन है और इसके प्रायश्चित के लिए ज़रूरी है कि मन्दिर बनाकर भगवान को धूमधाम से उसमें स्थापित कर दिया जाए।</div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">इसके अलावा समाज के किसी वर्ग-विशेष द्वारा यह कहा जाना कि </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">अदृश्य सत्ता इसी तरह संकेत देती है। कोई बड़ी विपदा न आ जाए कहीं। ईश्वर स्कूल के पास प्रकट हुए थे। नई उमर की नई फ़सलों के लिए कोई संदेश रहा होगा इसमें। क्या पता आने वाली संततियों को क्या भुगतना पड़ जाये। प्रकोप के आने का कोई निश्चित समय तो होता है नहीं। लेकिन उसकी शांति के उपाय तो किये ही जा सकते हैं। देवताओं के कोप को दूर करने के काम तो किये ही जा सकते हैं !</div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">यह जनमानस को डराने के लिए काफ़ी है। जिस देश की आर्थिक स्थिति ऐसी हो जहाँ कितनों के हिस्से सम्मानित ज़िंदगी नहीं है, जहाँ की सामाजिक स्थिति ऐसी कि हर कदम पर ऊँच-नीच का एहसास होता हो वहाँ अपशकुन के नाम से डरना-डराना कितना सरल हो जाता है ! ऐसे में स्वाभाविक ही है कि जनता भगवान से उम्मीद लगाएगी, प्रार्थना करेगी अपने जीवन की बेहतरी के लिए। इसके लिए निश्चित रूप से वह मानेगी कि हम ईश्वर को रुष्ट न करें वरना वे हमसे नाराज़ हुए तो हमारी आगे की ज़िंदगी और बेकार हो जाएगी। इसलिए तो जनमानस जीवन की जो मूलभूत ज़रूरतें हैं, अपने भविष्य को, अपनी बाद की पीढ़ी के भविष्य की बेहतरी के लिए जो अनिवार्य है उसपर ध्यान न देकर मन्दिर पर सारा ध्यान दे रहा है। हम अपने आसपास भी यह स्थिति देखते हैं कि कभी भी ऐसा न हुआ कि किसी स्कूल, कॉलेज में पढ़ाई ढंग से न हो रही हो तो उसमें पढ़ने वालों के माता-पिता या अन्य जनता भी किसी प्रकार का कोई आंदोलन करे, सुव्यवस्था की माँग करे लेकिन जहाँ कहीं धर्म की बात आ जाए तो हजारों-लाखों लोग जुट जाएंगे। इस विडंबनापूर्ण स्थिति पर लेखक बेहद ही कुशलता से संकेत में हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं – </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">मन्दिर की दीवार पक्की हो गई थी। सड़क के पोल से खींचकर किसी भक्त ने वहाँ बिजली का भी इंतज़ाम कर दिया था, किसी ने ठंडे पानी के लिए कूलर भी लगवा दिया। स्कूल में पीने के पानी का कोई इंतज़ाम नहीं था इसलिए स्कूल के बच्चे भी पानी पीने उधर जाने लगे।</div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">आगे भी इसका उल्लेख आता है जहाँ यह प्रमाणित करता है कि हमारे समाज में शिक्षा से ऊपर धर्म का ही महत्व है। उदाहरण स्वरूप यह देखा जा सकता है – “ रामसेवक सिंह उच्च विद्यालय की बात कोई नहीं कर रहा था। बस हनुमान मन्दिर। साह जी ने घोषणा कर दी थी कि मन्दिर वहीं बनेगा। वह भी टूटने वाले मन्दिर की तरह छोटा मन्दिर नहीं उससे बहुत बड़ा मन्दिर बनेगा। स्कूल का क्या होगा कोई नहीं कह रहा था। उस पूरे इलाके में अकेला हाई स्कूल था। उस स्कूल की चर्चा कोई नहीं कर रहा था। सब मन्दिर-मन्दिर कर रहे थे।” आगे भी यह आता है कि – “महावीरी झंडे से, चमन के घर भभूति दर्शन से इतना धन जमा हो गया था कि उससे गाँव में स्कूल का भवन नया बनाया जा सकता था, स्वास्थ्य केंद्र चलाया जा सकता था लेकिन लोगों को खटिया पर लदकर अस्पताल जाना मंजूर था, पढ़ने के लिए नदी पारकर शहर जाना मंजूर था लेकिन वे नहीं चाहते थे कि धर्म काज में किसी तरह की कमी आए।” </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">यह उपन्यास इस ओर भी संकेत करता है कि धर्म के मामले में तर्क प्रायः पीछे छूट जाता है, और जिन्हें स्थिति समझ आती है वे सब समझते हुए भी चुप रहना चुनते हैं – </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">लेकिन उस समय गाँव का माहौल ऐसा था कि कोई कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं था। सच सब समझते थे लेकिन जाने क्या हो गया था कि सब झूठ के साथ हो गए थे। आस्था सहज बुद्धि के ऊपर ऐसी हावी हो गई थी कि उससे अलग कुछ भी बोलने मे खतरा महसूस होता था। यहाँ तक कि सोचने में भी।” </div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">यह पढ़ते हुए <b>राजेश जोशी</b> की कविता ‘<b>मारे जाएँगे</b>’ पर सहज ही ध्यान जाता है। उसकी कुछ पंक्तियाँ यहाँ बिल्कुल सटीक बैठती हैं –</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> मारे जाएँगे </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> कटघरे में खड़े कर दिए जाएँगे, जो विरोध में बोलेंगे </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> जो सच-सच बोलेंगे मारे जाएँगे</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> ...</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> धर्म की ध्वजा उठाए जो नहीं जाएँगे जुलूस में </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> गोलियाँ भून डालेंगी उन्हें, काफ़िर करार दिए जाएँगे”</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">इन सब के बाद भी यह उपन्यास कहीं न कहीं विश्वास भी दिलाता है कि कभी तो ‘वो सुबह आएगी’ – </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">एक दिन समय आएगा जब सबको समझ में आ जाएगा। सच क्या है और झूठ क्या है, इसका अंतर साफ़ दिखाई देने लगेगा। लेकिन वह दिन आज नहीं है। कभी-कभी जनवरी की बात दिसंबर में जाकर समझ आती है। समझ लो अभी जनवरी चल रहा है। इंतज़ार करना है हमें अपने दिसंबर का। हो सकता है ग्यारह महीने के बाद आ जाये, हो सकता है ग्यारह साल के बाद भी आये। अभी जनमत एक तरफ़ है इसलिए मनमत को रोके रखने में ही समझदारी है।</div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">धर्म के अलावा जाति भी एक महत्त्वपूर्ण पहलू है जिसका इस्तेमाल राजनेता बखूबी करते हैं। इस ओर भी यह उपन्यास पर्याप्त संकेत करता है। बतौर उदाहरण यह पंक्ति – “नेता लोग काम के बल पर नहीं जीतते थे अपनी जाति के बल पर जीतते थे।” भले जनता भी अपनी जाति के नेता को वोट देती हो लेकिन उपन्यास में इस बात का उल्लेख होना कि युवा पीढ़ी जाति से उठकर एक ऐसे नेता को पसंद कर रही है जो किसी एक जाति के लिए काम नहीं कर के सबके हित में काम कर रहा था, यह भी एक सकारात्मक बदलाव की ओर उम्मीद है। </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">इस उपन्यास में जितने भी नेतागण आये हैं, चाहे तथाकथित उच्च वर्ग के हों या निम्न, हिन्दू हों या मुस्लिम, वे सब अपने-अपने तरीके से चुनाव जीतने की होड़ में लगे रहते हैं, सबकी बस एक ही ख्वाहिश, कि इस बार हम चुनाव जीत जाएँ। इसमें कितने ऐसे लोग रहे जो कई वर्षों से इस क्षेत्र में प्रयासरत रहे लेकिन उनके हाथ असफलता ही लगी रही। लेकिन अन्त में एक ऐसा व्यक्ति आता है, गाँव का एक सामान्य युवक चमन, जो धर्म के नाम पर ही झूठी कहानी सुना कर ग्रामवासियों का भरोसा जीत लेता है, बड़े नेताओं की नज़र में आता है और चुनाव लड़ता है। उसकी यह रणनीति बिल्कुल अन्त में जाकर खुलती है जब चक्र छाप के नेता द्वारा उसे बुलाया जाता है और उनकी आपसी बातचीत में चमन जिस प्रकार, जिस चालाकी से जवाब देता है वही उसकी पूरी रणनीति की ओर संकेत कर देता है। </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">इन सबके अलावा भी यह उपन्यास बहुत कुछ कहता है जिसकी शैली भी किस्सागोई ही रही है। बातों-बातों में बहुत ही गहरी स्थिति की ओर हमारा ध्यान चल जाता है, मसलन वर्तमान में इतिहास को लेकर जो भी चलाया जा रहा है, उस पर यह एकदम सटीक लिखा है लेखक ने – </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">अब तो ऐसा समय आ गया है कि इतिहास के नाम पर कोई भी किस्सा-कहानी सुना देता है। जिस मन्दिर को पच्चीस-पचास साल से पहले कोई जानता तक नहीं था उसको भी प्राचीन बताया जाने लगा है। कुछ साल पुराने तालाब को भी प्राचीन नदी की सुप्त धारा के स्रोत से बना बताया जाने लगा है। पावन दिनों में लोग वहाँ स्नान करते भी दिखाई दे जाते।</div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">आगे वे यह भी लिखते हैं – </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">इतिहास-पुस्तकों को पढ़ने वाले कम होते जा रहे थे लेकिन इतिहासकारों के लिखे इतिहास ग्रंथों को झूठा बताने वाले बढ़ते जा रहे थे। जिन्होंने इतिहास बनाया था उनको इतिहास से मिटाने की कोशिशें हो रही थीं।</div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">यह उपन्यास सवाल करने के लिए विनम्र निवेदन भी करता है – </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">सब खत्म हो जाएगा। वर्तमान को बचाने के लिए भविष्य को नष्ट मत होने दीजिए। उठिये और सवाल पूछना शुरू कीजिए। आप जैसे ही सवाल पूछना शुरू करेंगे तो जवाब आपको अपने आप मिलने लगेंगे। नहीं तो धूल-पानी की तरह हम मिट जाएँगे और हमारी मिटने की कोई निशानी भी नहीं बचेगी।</div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">समय के साथ हमारे समाज में अविश्वसनीयता बढ़ी है, हमारा एक-दूसरे के प्रति सन्देह बढ़ गया है इस दुखद पहलू को भी यह उपन्यास दर्ज़ करता है। चमन छकौरी पहलवान का अंतिम दंगल देख कर आया था और वह जो भी कह रहा था लोग उसे ही सही मान रहे थे। लेकिन आज की स्थिति ऐसी नहीं रह गई है इसलिए यह पंक्ति आती है कि “ज़माना और था। कोई भी किसी की बात पर बिना पूर्वा साखी के भरोसा कर लेता था। लोग एक-दूसरे पर विश्वास करते थे और उसी विश्वास के सहारे समाज चल रहा था।” यहाँ समकालीन कवि <b>अमित तिवारी</b> की कविता ‘<b>बहुत अच्छा समय है</b>’ याद आती है जिसके शुरुआती हिस्से में वे कहते हैं – </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> “बहुत अच्छा समय है</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> देखने, सुनने और चीन्हने का </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> निहितार्थों को समझने का </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> शालीनता के शक्ति परीक्षण का </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> यह जान लेने का कि आप बेवजह आशावादी थे </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> और संदिग्ध होना अब एक काव्यात्मक टिप्पणी भर नहीं है” </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">उपन्यास में जिस गाँव का उल्लेख है वह नाम भी हमारा ध्यान आकर्षित करता है। ‘अन्हारी’ गाँव। नाम कुछ भी हो सकता था लेकिन अन्हारी देख कर बिहार में बोली जाने वाली भाषा के एक शब्द पर ध्यान जाता है। बिहार में अंधेरा को अन्हार भी कहते हैं। चूँकि इस उपन्यास की पृष्ठभूमि बिहार ही है और भाषा में भी वह बिहारी ‘टोन’ भरपूर शामिल है इसलिए अन्हारी से एक ध्यान इस ओर भी जाता है कि जहाँ सबलोग धर्म के नाम पर अंधेरे में जी रहे हैं, (अंधेरा इस मायने में कि यहाँ सवाल की रोशनी नहीं है) ऐसी जगह के लिए ‘अन्हारी’ नाम एक प्रतीक की तरह उभरता है। इसलिए भी यह सन्देह की स्थिति जायज़ लगती है – अंजाम-ए- गुलिस्ताँ क्या होगा</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div>(ये लेखक के अपने विचार हैं।)</div><div style="text-align: right;"><div style="text-align: center;"><div><b>क़िस्साग्राम</b></div><div>प्रकाशक: राजपाल एंड संस </div><div>भाषा: हिन्दी</div><div>पेपरबैक: 112 पेज</div><div>आईएसबीएन-10: 9389373948</div><div>आईएसबीएन-13: 978-9389373943</div><div><a href="https://amzn.to/3Its9uX" rel="nofollow" target="_blank">अमेज़न पर खरीदें</a> </div></div>
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-3110848688712433232024-03-08T14:07:00.006+05:302024-03-09T14:48:34.266+05:30Sahitya Akademi To Host Spectacular Festival of Letters: A Literary Extravaganza Celebrating 70 Years of Cultural Heritage<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<h1><b style="border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; word-spacing: 1px;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYzJiL9O5hUPVvoD4f7eR-BuJ5smezXEdpsKkelzr5o7HYzdOGHlb07OPOV-Owf-wUupmmQtEQzvJHJEU-HgjpBkXhQpEZ5dvJ0yNsSsEQm5v2ggWzzzJOerJTnDZkw70Qal2IIzPRyhBtbxC56zupi44cUXMWB8AvmEeO0mCBjNmRG_T23iGH4XhaQNxc/s903/IMG_2852.jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYzJiL9O5hUPVvoD4f7eR-BuJ5smezXEdpsKkelzr5o7HYzdOGHlb07OPOV-Owf-wUupmmQtEQzvJHJEU-HgjpBkXhQpEZ5dvJ0yNsSsEQm5v2ggWzzzJOerJTnDZkw70Qal2IIzPRyhBtbxC56zupi44cUXMWB8AvmEeO0mCBjNmRG_T23iGH4XhaQNxc/s16000/IMG_2852.jpeg" /></a></div><br /></b></h1><h1><b style="border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">New Delhi, March 8, 2024</span></b><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" style="border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Garamond, serif; font-size: 1rem; line-height: 19.55px; word-spacing: 1px;"> - Sahitya Akademi is set to host its annual Festival of Letters from March 11th to March 16th, 2024. This year marks a significant milestone as Sahitya Akademi completes 70 glorious years of fostering literary excellence and preserving the rich tapestry of Indian languages and literature.<span><a name='more'></a></span></span></h1><div 11px="" font-size:=""><span itemprop="description"><p style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(0, 0, 0); font-family: Garamond, serif; font-size: 12pt; margin: 0in 0in 0.0001pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-size: 1rem; line-height: 19.55px;"><br /></span></p><p class="MsoNormal" style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0in 0in 10pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">According to Dr. K. Sreenivasrao, Secretary of Sahitya Akademi, the Festival of Letters promises to be an unparalleled celebration of literary diversity, with more than 1100 esteemed writers and scholars participating. The festival will showcase the vibrant mosaic of Indian languages, with over 175 languages being represented, reflecting the cultural richness of our nation.</span></p><p class="MsoNormal" style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0in 0in 10pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">The festival's grand inauguration will feature an exhibition highlighting Sahitya Akademi's major initiatives and achievements over the past year. A pinnacle moment of the event will be the prestigious Sahitya Akademi Awards 2023 presentation ceremony, scheduled for March 12th at 5:30 pm in the esteemed Kamani Auditorium. Notably, the Awards Presentation Ceremony will be graced by the presence of the distinguished Odia writer, Pratibha Rai, as the Chief Guest.</span></p><p class="MsoNormal" style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0in 0in 10pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">Renowned Urdu writer and lyricist, Gulzar, will deliver the esteemed Samvatsar lecture on March 13th at 6:30 pm at the Meghdoot open theatre, adding a touch of literary brilliance to the festival. Additionally, the festival will host a plethora of engaging sessions, panel discussions, and symposia on various topics ranging from Bhakti Literature of India to Science Fiction in Indian Languages, catering to diverse literary interests.</span></p><p class="MsoNormal" style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0in 0in 10pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">Dr. K. Sreenivasrao expressed his enthusiasm for the festival, stating, "This year's Festival of Letters is not just a celebration of literature but also a tribute to the enduring spirit of Sahitya Akademi as it completes seven decades of nurturing India's literary landscape. We are honored to welcome esteemed writers, scholars, and dignitaries from across the country to partake in this literary extravaganza."</span></p><p class="MsoNormal" style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0in 0in 10pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">The festival will also feature special programs such as the All India Differently Abled Writers’ Meet, LGBTQ Writers’ Meet, and seminars commemorating the birth centenary of literary luminaries like Mir Taqi Mir and Gopichand Narang.</span></p><p class="MsoNormal" style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0in 0in 10pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">Noteworthy cultural performances including Bharatanatyam, Santvani singing, and theatrical presentations will further enrich the festival experience. Eminent personalities such as S.L. Bhayrappa, Chandrashekhar Kambar, Paul Zacharia, and many more will grace the occasion with their presence, adding to the festival's grandeur.</span></p><p class="MsoNormal" style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0in 0in 10pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">In a testament to its national significance, the Festival of Letters will see the participation of Governors from three states - Arif Mohammed Khan (Kerala), Shri Bishwabhusan Harichandan (Chhattisgarh), and Shri C.V. Anand Bose (West Bengal), underscoring the event's importance in the cultural landscape of India.</span></p><p style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(0, 0, 0); font-family: Garamond, serif; font-size: 12pt; margin: 0in 0in 0.0001pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"></p><p class="MsoNormal" style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0in 0in 10pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">Sahitya Akademi, India’s National Academy of Letters, is an autonomous organization established by the Government of India to promote and preserve literature in various Indian languages. Since its inception in 1954, Sahitya Akademi has been at the forefront of recognizing literary excellence through its prestigious awards and fostering literary dialogue through various initiatives and programs.</span></p></span></div>
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<div itemprop="articleBody"><span style="text-align: center;">००००००००००००००००</span></div>
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-58928673992915625672024-03-04T20:29:00.000+05:302024-03-04T20:29:10.707+05:30कहानी: इंसानी जंगलराज - रीता दास राम | Kahani: Insani JungleRaj - Reeta Das Ram<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>जब कहानी मासूमियत को बरक़रार रखते हुए संदेश देने की कोशिश करती है तब उसे सफल कहानी माना जाना चाहिए। रीता दास राम की कहानी 'इंसानी जंगलराज' पढ़िएगा, अपनी राय रखिएगा। ~ सं० </div><span><a name='more'></a></span><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtfB38jMUdht_pLyGeqpH_6o1VSgGVKF2hh6TEPiAbJKcj1MFXnfn2jx6ezgq5y2z2ecuf_eCUMCcU-Pm7GxMHzeDR3bc_ylmAL7YrTvlOQJx42FuwOswdyfCugWqY24BCUOLR0YIDNarPJgME87ts3Ft_zooI7bvIQ05wIWmg1o5L8YjgzLDvANw2uauO/s903/Reeta%20Das%20Ram%20kahani%20Insani%20JungleRaj.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtfB38jMUdht_pLyGeqpH_6o1VSgGVKF2hh6TEPiAbJKcj1MFXnfn2jx6ezgq5y2z2ecuf_eCUMCcU-Pm7GxMHzeDR3bc_ylmAL7YrTvlOQJx42FuwOswdyfCugWqY24BCUOLR0YIDNarPJgME87ts3Ft_zooI7bvIQ05wIWmg1o5L8YjgzLDvANw2uauO/s16000/Reeta%20Das%20Ram%20kahani%20Insani%20JungleRaj.jpg" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><h1 itemprop="headline">इंसानी जंगलराज</h1><h2 itemprop="alternativeHeadline">~ रीता दास राम</h2><h2 itemprop="alternativeHeadline"><div 11px="" font-size:=""></div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><span style="font-size: 11px;">कवि / लेखिका / एम.ए., एम फिल, पी.एच.डी. (हिन्दी) मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="font-size: 11px;"><div itemprop="articleBody"><span style="font-weight: normal;">प्रकाशित पुस्तक: “हिंदी उपन्यासों में मुंबई” 2023 (अनंग प्रकाशन, दिल्ली), / उपन्यास : “पच्चीकारियों के दरकते अक्स” 2023, (वैभव प्रकाशन, रायपुर) / कहानी संग्रह: “समय जो रुकता नहीं” 2021 (वैभव प्रकाशन, रायपुर) / कविता संग्रह: 1 “गीली मिट्टी के रूपाकार” 2016 (हिन्द युग्म प्रकाशन) 2. “तृष्णा” 2012 (अनंग प्रकाशन). विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित: ‘हंस’, कृति बहुमत, नया ज्ञानोदय, साहित्य सरस्वती, ‘दस्तावेज़’, ‘आजकल’, ‘वागर्थ’, ‘पाखी’, ‘शुक्रवार’, ‘निकट’, ‘लमही’ वेब-पत्रिका/ई-मैगज़ीन/ब्लॉग/पोर्टल- ‘पहचान’ 2021, ‘मृदंग’ अगस्त 2020 ई पत्रिका, ‘मिडियावाला’ पोर्टल ‘बिजूका’ ब्लॉग व वाट्सप, ‘शब्दांकन’ ई मैगजीन, ‘रचनाकार’ व ‘साहित्य रागिनी’ वेब पत्रिका, ‘नव प्रभात टाइम्स.कॉम’ एवं ‘स्टोरी मिरर’ पोर्टल, समूह आदि में कविताएँ प्रकाशित। / रेडिओ : वेब रेडिओ ‘रेडिओ सिटी (Radio City)’ के कार्यक्रम ‘ओपेन माइक’ में कई बार काव्यपाठ एवं अमृतलाल नागरजी की व्यंग्य रचना का पाठ। प्रपत्र प्रस्तुति : एस.आर.एम. यूनिवर्सिटी चेन्नई, बनारस यूनिवर्सिटी, मुंबई यूनिवर्सिटी एवं कॉलेज में इंटेरनेशनल एवं नेशनल सेमिनार में प्रपत्र प्रस्तुति एवं पत्र-पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित। / सम्मान:- 1. ‘शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान’ 2013, तृतीय स्थान ‘तृष्णा’ को उज्जैन, 2. ‘अभिव्यक्ति गौरव सम्मान’ – 2016 नागदा में ‘अभिव्यक्ति विचार मंच’ 2015-16, 3. ‘हेमंत स्मृति सम्मान’ 2017 ‘गीली मिट्टी के रूपाकार’ को ‘हेमंत फाउंडेशन’ की ओर से, 4. ‘शब्द मधुकर सम्मान-2018’ मधुकर शोध संस्थान दतिया, मध्यप्रदेश, द्वारा ‘गीली मिट्टी के रूपाकार’ को राष्ट्र स्तरीय सम्मान, 5. साहित्य के लिए ‘आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र राष्ट्रीय सम्मान’ 2019, मुंगेर, बिहार, 6. ‘हिंदी अकादमी, मुंबई’ द्वारा ‘महिला रचनाकार सम्मान’ 2021 / </span><span style="font-weight: normal;">पता</span><span style="font-weight: normal;">: 34/603, एच॰ पी॰ नगर पूर्व, वासीनाका, चेंबूर, मुंबई – 400074. /</span><span style="font-weight: normal;"> </span><span style="font-weight: normal;">मो</span><span style="font-weight: normal;">: 09619209272.</span><span style="font-weight: normal;"> </span><span style="font-weight: normal;">ई मेल</span><span style="font-weight: normal;">: reeta.r.ram@gmail.com </span></div><div><br /></div></span></div></div></h2></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">शहर की चिकनी सपाट साफ़ सड़क आगे बढ़ती चौराहे से मिलती चार रास्तों को जोड़ती चौड़ी हो गई है। इसी शांत सड़क पर कुछ आवारा कुत्तों की मटरगश्ती हमेशा चलती है। आवारा इसलिए कि उनका कोई मालिक नहीं है। उन्हें बाँध कर रखने वाला कोई नहीं। रोटी देने वाला कोई नहीं। वे खुली आज़ाद गलियों में पले हैं जिन्हें कोई इंजेक्शन नहीं दिया गया। कोई उनकी देखभाल नहीं कर रहा है। कचरे में पड़ा जूठा खाते हैं और इन्ही रास्तों पर पड़े रहते। वे अपनी गली के बादशाह है। किसी पर भी भौंक सकते है। गुर्रा सकते है। काट सकते है। भगा सकते है। पीछा कर सकते है। अब भी पाँच-छह कुत्ते अपनी गली के शेर बने बैठे हैं। ये गली कुत्तों की है इस पर राज भी इन्हीं का। </div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">कुत्तों ने देखा, पट्टे में बंधे एक कुत्ते को अपनी मालकिन के साथ आते हुए। बहुत सुंदर सफेद स्वच्छ धुला-धुला-सा साफ़ कुत्ता। अपनी मालकिन के कभी आगे तो कभी पीछे चलता। सूँघता हुआ सड़क को, जैसे पता करना चाहता हो, क्या कुछ घट चुका है -- इस सड़क पर उसके आने के पहले और क्या कुछ घटने वाला है उसके आने के बाद। चौकन्ना। सतर्क। इधर-उधर ताकता हुआ। वह देखता है, उन आवारा कुत्तों को देखते हुए अपनी ओर। थोड़ा डरते, थोड़ा सहमते, सकुचाते हल्का-सा गुर्राते, बीच-बीच में पूंछ हिलाते, बहुत कम पर भौंकते, चला जा रहा है वह उस ओर मालकिन के इशारे पर जहाँ चलने का उसे आदेश मिलता है। </div><div itemprop="articleBody">हंसने लगे सभी आवारा कुत्ते। समाज ने जिन्हें आवारा नाम जो दिया है। किसी पर भी हँस सकते है। किसी को भी देख सकते है। किसी की भी खिल्ली उड़ा सकते है .... क्या फरक पड़ता है। भौंकते हुए आपस में बतियाते वो सभी लगे उड़ाने खिल्ली। चिढ़ाने लगे मासूम को, जो बँधा है मालकिन के आज्ञा के घेरे में जबकि वे सभी है आज़ाद। उस बेचारे की मजबूरी या किस्मत वो सभी क्या जाने। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अरे देखो !! वो कुत्ता। कुत्तों के नाम पर धब्बा। इंसानों का गुलाम। कैसे पट्टे में बँधा चला जा रहा है। मालिक के पीछे-पीछे दुम हिलाते। बेचारा। बँधा हुआ है। मन की कर भी नहीं सकता। मन-मुताबिक घूम भी नहीं सकता। दौड़ के कहीं आ-जा भी नहीं सकता। जहाँ उसे ले जाया जाता है वो वहीं जा पाता है।” बंधे हुए कुत्ते ने चौंकते हुए कान खड़े किए। उनकी बातें सुनी। नजरंदाज़ किया। फिर असहनीय अंदाज में अपमानित-सा पलटा, उन कुत्तों को देखकर लगा भौंकने। उसकी मालकिन उसे दूसरी ओर खींचे लिए जा रही थी ताकि वह इन आवारा कुत्तों से दूर रहे। लेकिन उसने बोलना जारी रखा, </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ओ आवारा! कुत्तों ... कमीनों सबके सब। दिन भर गली में घूमते हो इधर-उधर मुँह मारते हुए। तुम्हारा कोई पता ठिकाना नहीं। कचरे में मुँह घुसाते फिरते हो। कुछ नहीं मिला तो मैला खाते हो। एक दूसरे को काट खाने को दौड़ते हो। दिन भर गली में भौंकते रहते हो। झगड़ा करना ही जैसे तुम्हारा मकसद है। दिन भर झगड़ते हो। और मुझ पर कीचड़ उछालते हो .... शर्म आनी चाहिए तुम्हें !!” सुनकर एक वरिष्ठ आवारा कुत्ते को चोट पहुँची। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ओए पालतू। नौकर कहीं का। दिन भर जी हुजूरी करने वाले। पट्टे और मालिक के बल पर इतरा रहा है? अच्छा खाना तू खा रहा है ना! तो खा। आलीशान रह। लेकिन याद रख ये सब तुझे तभी मिलता है जब तू इनकी चाकरी करता है। चापलूसी करता है। इनके घर की पहरेदारी करता है। ‘उठ’ बोले तो! उठता है, ‘बैठ’ बोले तो! बैठता है। अगर ये नहीं करेगा ना! तो ये लोग तुझे लात मार कर घर से बाहर निकाल देंगे। समझा ना। ज्यादा इतरा मत। है तो तू दरकारी नौकर ही ना। जिस दिन तेरी कोई दरकार नहीं होगी तुझे धक्के मार कर भगा देंगे। फिर तू भी किसी गली में पड़ा मिलेगा धूल में लोटता। समझा ना! कार्पेट पर सोने वाले इतरा मत।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ओ समझ लो !! मैं कोई नौकर नहीं। अपनी मर्ज़ी का मालिक हूँ। इन्होंने मुझे पसंद किया इसलिए मैं यहाँ हूँ। तुम्हारा क्या जाता है। मुझे गुलाम कहने वाले अपनी आज़ादी की फिक्र करो। मैं तो फिर भी मेहनत की खाता हूँ। गली-गली भटकता नहीं। किसी को बेवजह काटता नहीं। जितना मिलता है खाता हूँ। संतोषी हूँ।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अरे जा-जा, मेहनत की खाने वाला। इसके लिए तुझे कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं हम नहीं जानते क्या? दरवाजे पर खड़े रहना, आंगतुक को देख कर भौंकना, गेंद उठाकर लाना, जो दिया जितना दिया खाना, मालिकों को देखकर पूंछ हिलाना। ना-नुकूर किया तो डाँट खाना। कभी मालिक पर भौंक कर तो देख पता चल जाएगा तुझको उनकी नज़रों में तेरी अपनी असलियत.... समझा ना।” सुनकर पट्टे में बँधा कुत्ता हल्के से गुर्राते हुए खींचे जाने की वजह से अपने रास्ते चला गया। जैसे कि कर रहा हो सच का सामना। सोचते। मुसकुराते। मालकिन की राह पर चलते जो अगले मोड़ से अपने घर की तरफ ले जा रही है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">रास्ते के किनारे तटस्थ खड़ी बिल्ली देख रही थी, सच क्या है और क्या है झूठ। कुछ कुछ झिझकते, समझते, रास्ता बदलते उसने ‘म्याऊँ’ कहा। जैसे सलाम दुआ दिया लिया जा रहा हो। एक कौवे ने ‘काँव-काँव’ की चीख पुकार मचाई जैसे कह रहा हो ‘बस बस यहाँ यह सब चलता रहता है। अपनी दादागिरी अपने पास रखो’। कुछ चिड़िया भरभरा कर उड़ चली दूसरे मुहल्ले की ओर के ‘हमें नहीं पड़ना इनके पचड़े में’। पेड़ खामोशी से खड़े मुँह फेर हवा के साथ देखने लगे दूसरी ओर। कुत्ते मजे से पत्थरों को सूंघते पिशाब करने में लग गए। पौधों ने मुँह सिकोड़ कर नजरें भींच ली। बिल्ली ने इतने आहिस्ते से दूसरी गली का रुख किया कि किसी को पता भी न चला। चीटियाँ अपना खाना ले जाती निरंतर गतिशील रही बांबी की ओर। चूहे कचरों में घूमते अचानक बिलों की ओर दौड़ पड़े। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">तेज आती गाड़ी ने पास आकर जोर से हॉर्न बजाई और कुत्ते बौखलाकर तितर-बितर हो गए। गाड़ी पट्टे वाले कुत्ते के घर के सामने रुकी। और पट्टे वाला कुत्ता पूरी मासूमियत से दुम हिलाते बाहर निकला। मालिक को देख लगा सूंघने और पूँछ हिलाने। मालिक की नजरों में देखता रहा जैसे हालचाल पूछ या बता रहा हो। दूर से देखते रहे चिड़िया, कौवे, चीटियाँ, चूहे और कुत्ते ना समझते हुए सही-गलत। बिल्ली ने धीरे से पालतू कुत्ते के घर प्रवेश किया, इधर-उधर देखते हुए बड़ी सतर्कता से छुपते हुए कि कोई देख ना ले। मालिक और कुत्ते की तुकबंदी में व्यवधान ना पड़े जो अपनी तर्ज पर आवभगत में व्यस्त थे। मालिक ने कुत्ते को गोद में उठाया पुचकारा, प्यार किया और साथ लिए अंदर जाने लगा। बिल्ली जल-भुन कर कह उठी, </div><div itemprop="articleBody">“ ‘म्याऊँ’, हाँ हाँ ठाठ है तुम्हारी, कभी गोद में तो कभी बिस्तर पर, कभी नाश्ते तो कभी डॉगस फूड। नहाने का अपना लुत्फ, जिसका तो हमने कभी स्वाद भी नहीं चखा। हाँ बारिश के पानी में भीगे जरूर हैं” बिल्ली खिसियाहट में कह गई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मालिक की वाहवाही लेने के लिए कुत्ता बिल्ली को देख भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकते ही घर के लोगों ने बिल्ली को भगाने और दूध की पतीली को फ़िज़ में रखने की क्रिया में शीघ्रता दिखाई। बिल्ली ने मुँह फुलाकर जल्दी से दूसरे कमरे की ओर रुख किया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कौन है ये ‘इंसान’। जो एक कुत्ते पर शासन कर रहे है। क्यों बंदी बना रखा है उसे। सिर्फ अपने घर की शोभा बढ़ाने।” बिल्ली की बड़बड़ाहट कुत्ते ने सुन ली। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“नहीं सुख का भोग है बस। सुविधानुसार राजसी ठाठ” बिल्ली ने चौंक कर देखा किसने बोला है। कुत्ता अपने जगह को सूँघता, गोल गोल घूम तसल्ली करता अपने जगह पर बैठ गया।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">“कुछ भी बोल रहा है! ऐसी बात होती तो और भी होते कई... !” बिल्ली ने अचरज से पूछा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तुम्हें पता है म्याऊँ ! यहाँ एक खरगोश भी था। दो तीन सफेद चूहे भी।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्या बात कर रहा है!! मैंने तो नहीं देखा” बिल्ली की निगाह चमकी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ-हाँ बहुत प्यारे थे वे सभी” कुत्ता कह उठा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तो ... कहाँ है वो ? कुछ भी बोल रहा है।” बिल्ली ने चंचलता से तुरंत पूरे घर की तलाशी ली। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“दो दिन पहले जाने क्या हुआ कोई नज़र नहीं आते, मुझे लगा तुमने ही खाए होंगे!” कुत्ते की बात सुनकर बिल्ली सहमकर दो कदम पीछे हो गई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्या बक रहा है। मैंने तो देखा ही नहीं ... खाती कैसे? तुम्हारे मालिक ने किसी को बेच दिए होंगे। आज कल ये इंसान हम जानवरों की अच्छी नस्ल को पालने और बेचने के धंधे में बहुत पैसा कमा रहे हैं। और तो और पता है ‘डॉग शो’ भी होते हैं। प्रतियोगिताएं होती है। कुत्तों को कपड़े भी पहनाए जाते हैं। बिलकुल इंसानों जैसे।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ, पता है मुझे ..।“” कुत्ते ने उपेक्षित हामी भरी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“जाने क्यों ! ये इंसानों को नंगापन बर्दाश्त नहीं होता। ये लोग इसे इतनी अहमियत देते हैं। मान-सम्मान से जोड़ते हैं। इसके कारण हत्या और आत्महत्या तक कर बैठते हैं। पता नहीं क्या है ये नंगापन ... ये ही जाने।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ये लोग जिसे नंगा होना कहते हैं सभी तो वैसे ही पैदा होते हैं। जानवर क्या और इंसान क्या, पक्षी भी सारे ही।“” कुत्ते ने सोचनीय मुद्रा बनाई और कहा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ और जीवन भर नंगे ही रहते हैं। हमें तो कुछ नहीं लगता। ये लोग जाने क्या-क्या सोचते हैं। उसे अपनी नाक कहते हैं याने कि इज़्ज़त। इनकी ही नाक जाने क्यों इतनी ऊँची।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“सब किया धरा है इनकी बुद्धि का। जिसे दिमाग कहा जाता हैं। इसमें सोचने समझने की शक्ति होती है। इससे विचार करने की राहें खुलती है, इसलिए इंसान इतना पेचीदा है। किसी को नंगई से परेशानी है कोई नंगई को इन्जॉय करता है। बात समझ में आई!” कुत्ते ने ज्ञानी होने की भूमिका निभाई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“बस बस! चुप कर। लगता है कोई आ रहा है। किसी ने हमें बोलते सुन लिया तो!” बिल्ली शंकित हुईं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तो क्या इन लोगों को हमारी बात समझ में थोड़ी ना आती है” कुत्ते ने हल्की-सी मुस्कान में जवाब दिया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तुझे कैसे पता ? अगर आती हो तो?” बिल्ली बोली। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“नहीं भई। अभी इन्होंने इतनी भी प्रगति नहीं की हैं कि हमारी जुबान समझ लें। चाँद पर जा चुके हैं। मंगल पर जाने की कल्पना करते हैं। जबकि अपनी पृथ्वी को ही अब तक नहीं समझ पाए हैं। जहाँ रहते हैं उसी का दिन-रात दोहन करते रहते हैं।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्या मतलब? तुम्हारी बातें मेरी समझ से बाहर है” बिल्ली ने उपेक्षा में मुँह फिरा लिया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“खैर जाने दो। तुम अपने काम से मतलब रखो” कुत्ते ने कहा और मुँह घुमा कर बैठ गया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्या मतलब? तुम्हें क्या लगता मैं बुद्धू हूँ?” बिल्ली की त्यौरियाँ चढ़ गई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“नहीं मेरी अम्मा! बहुत होशियार हो तुम। दबे पाँव आती हो और दबे पाँव चली जाती हो किसी को पता भी नहीं चलता। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ-हाँ, इस बात में तो मैं माहिर हूँ।” बिल्ली ने मान से कहा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तुमसे कोई बात छुपी रह सकती है भला।” कुत्ते ने बकवास से बचने में खैरियत समझी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“एक बात बताओ? ये इंसान है क्या चीज ? कौन है ये लोग? कहाँ से आए हैं? क्यों सभी पर राज करना चाहते हैं?” बिल्ली ने उत्साहित हो पूछा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ये तो पता नहीं। हाँ इतना जानता हूँ। ये लोग भी यहीं पैदा होते हैं हमारे ही जैसे, और यहीं मर जाते हैं। पर जब तक जीवित रहते हैं एक स्पर्धा में जीते हैं। एक अंजानी होड। एक प्रतियोगिता हरदम-हरपल। सभी में बेहतर होने की भूख। सबसे अलग होने की आकांक्षा। इच्छानुसार पाने की जिद्द जिसकी कोई सीमा ही नहीं।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अच्छा?” बिल्ली ने आश्चर्य से आँखें फैलाई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हमारी भूख पेट से शुरू होकर वहीं खत्म हो जाती है। पर इनकी भूख इनके दिमाग पर राज करती है। सबसे आगे निकलने की होड़ में जीती है इंसानी दुनिया। यह एक तरह से इनका जंगल ही है जहाँ इनका ही राज है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्या! क्या मतलब? जंगलराज याने !! जंगल मैंने भी देखा है। बहुत बड़ा होता है और डरावना भी। बहुत पहले मैं वहाँ से भाग आई।” बिल्ली बोल उठी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“सच है। जंगल में हिंसा और ताकत का राज चलता है। जिसके पास यह चीज हो वही वहाँ रह सकता है। कमजोर पर ताकत से जीत हासिल करते हुए। बिलकुल ऐसा ही जैसा ये इंसानी समाज।” कुत्ते ने कहा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ देखती हूँ ये इंसान भी सब पर अपना कब्ज़ा क़ायम करना चाहता है। क्या जानवर, क्या पक्षी, क्या पेड़, पौधे, पहाड़, जमीन क्या आसमान। ये लोग इंसानों को भी नहीं छोड़ते। कमजोर इंसानों पर तो तानाशाही होती है। उनका हर तरीके से इस्तेमाल करते है। किसी-किसी इंसान की हालत तो जानवरों से भी बदतर होती है” बिल्ली ने कहा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“इंसानों के बीच भी बसते है जैसे शेर, चीते, लकड़बग्घे, सियार... चालाक और रक्त पिपासु।” कुत्ते ने भड़ास निकाली। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ओए चुप कर, मुझे डर लगता है। जंगल से यहाँ आई थी यह सोचकर कि यहाँ सभ्यता बसती है चैन से रहूँगी, लेकिन नहीं। यहाँ भी एक दूसरे ही जंगल के दर्शन होते है। इंसानों का बनाया हुआ जंगल। जो ताकतवर हो उसी की जीत, उसी का राज।” बिल्ली ने घबराकर स्थिति का जायजा लिया जाने में भलाई समझी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कहीं सोच-सोच कर बीपी ना बढ़ जाए इंसानों की तरह और वह निकल पड़ी खिड़की से बाहर इंसानों की दुनिया के बीच अपनी दुनिया की ओर। अपनी आज़ाद दुनिया में जहाँ आज़ादी का मतलब ‘सतर्क जिंदगी’ था। किसी ट्रक या गाड़ी के नीचे आकर मिलने वाली मौत नहीं जिसे वह इंसानी जंगलराज की देन कहती है। </div><div><br /></div></div>
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(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br />
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-351362930511943402024-02-24T12:31:00.003+05:302024-02-24T12:32:13.054+05:30नंद चतुर्वेदी: एक समय सचेत कवि ~ प्रो. मलय पानेरी | Nand Chaturvedi: A time-conscious poet<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div itemprop="articleBody"><blockquote><div itemprop="articleBody">पराजय कब नहीं थी<div itemprop="articleBody">कब नहीं थे झूठ के वाहवाह करने वाले</div><div itemprop="articleBody">लेकिन तभी दल-दल से</div><div itemprop="articleBody">निकल आया था समय</div><div itemprop="articleBody">करिश्में और भाग्य से नहीं</div><div itemprop="articleBody">मनुष्य के उत्साह और संसर्ग से। </div><div itemprop="articleBody"> ~ नंद चतुर्वेदी</div></div></blockquote><span><a name='more'></a></span><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">नंदबाबू पराधीन भारत के युवा कवि थे। उन्होंने आजादी से पहले के परिवेश में जीवन-मूल्यों के महत्व को समझा था, किंतु आजादी मिलने के बाद इनका महत्व कम होने लगा, इनकी ग्लानि कवि को हमेशा रही ; लेकिन अपनी रचनाओं में वे हमेशा मूल्यों और संस्कारों की अपेक्षित गरिमा को बनाये रखते थे। स्वाधीनता प्राप्ति के लगभग ढाई साल बाद नया संविधान हमारे यहाँ अस्तित्व में आया फिर भी लोकतंत्र की दृष्टि से हम अपूर्ण ही रहे, जिसे कवि ने गैर मामूली समय के तौर पर देखा था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">शायद हिन्दी से जुड़े एक वर्ग को कवि नंद चतुर्वेदी के बारे में अधिक जानकारी न हो, उनके लिए और जो नंदबाबू को जानते हों उनके लिए, हमसब के लिए प्रो. मलय पानेरी का यह आलेख पढ़ना आवश्यक है जिसमें उनके काव्य के महत्त्व का उल्लेख है और कुछ संस्मरण भी। ~ सं० </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: center;"> <table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTT-NpvJ8jBUS3dzj9r8doTopz32zTE8UW1rWpQ0E5yI6uKT9GTsbJvVMKMQYlsee6tC99UhCMuOqNumKPDlgUcJwAvxvUJ86K7PkCUfrTIxJtRFyqs6rb9nGQ2rFV8NVU3IQLCN3jz02f6O2Bq2xAyhuOiWA43a8BROfKQ28e8ARoRyNTIhmMiWSalyuq/s903/Nand%20Chaturvedi%20a%20time%20conscious%20poet.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTT-NpvJ8jBUS3dzj9r8doTopz32zTE8UW1rWpQ0E5yI6uKT9GTsbJvVMKMQYlsee6tC99UhCMuOqNumKPDlgUcJwAvxvUJ86K7PkCUfrTIxJtRFyqs6rb9nGQ2rFV8NVU3IQLCN3jz02f6O2Bq2xAyhuOiWA43a8BROfKQ28e8ARoRyNTIhmMiWSalyuq/s16000/Nand%20Chaturvedi%20a%20time%20conscious%20poet.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Nand Chaturvedi: a time-conscious poet</td></tr></tbody></table><br /></div><h1>नंद चतुर्वेदी: एक समय सचेत कवि</h1><h3>प्रो. मलय पानेरी</h3><div><span style="font-size: 12px;">आचार्य एवं विभागाध्यक्ष, जनार्दन राय नागर राज. विद्यापीठ , (डीम्ड टू बी विश्वविद्यालय), उदयपुर (राज.), मो.नं. 9413263428 </span></div><div><span style="font-size: 12px;"><br /></span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उदयपुर में साहित्य-जगत की रौनक माने जाने वाले प्रो. नंद चतुर्वेदी का जन्म राजस्थान की तत्कालीन मेवाड़ रियासत के गाँव रावजी पिपल्या में सन् 1923 में हुआ था। उसी गाँव में उनके बचपन का कुछ हिस्सा गुजरा था, उनका मकान भी वहाँ था। वहाँ की हालात-परिस्थितियों में जैसा जीवन मिलना संभव रहा होगा, वैसा ही उन्हें स्वीकारना पड़ा था। गाँव का जीवन कभी सुविधाओं वाला नहीं रहा है और फिर उस समय के घनघोर अभावों से सामना करते हुए जीना केवल बाध्यता की श्रेणी में आता है। सो नंदबाबू का जीवन शायद इन्हीं परिस्थितियों से आरंभ हुआ था। मेरे लिए यह संयोग ही माना जाना चाहिए कि मुझ से पहले की चार पीढ़ी के पारिवारिक पुरखे का गाँव भी यही रावजी पिपल्या रहा था, उसी वजह से मेरा आना-जाना भी यहाँ रहा, लेकिन तब यह नहीं पता था कि यह उन्हीं नंदबाबू का पुश्तैनी गाँव है, जो अब उदयपुर में 30, अहिंसापुरी, फतहपुरा का सुगंधी वृक्ष बन चुके हैं। अभी कुछ समय पहले पुनः रावजी पिपल्या जाना हुआ, तब स्थानीय रिश्तेदारों से उस मकान का पता पूछते-पूछते अन्ततः नंदबाबू के तत्कालीन आवास के सामने जा खड़ा हुआ। हल्के पीले रंग में पुता हुआ मकान और उसके पास ही सटा हुआ एक रामद्वारा भी है। गाँव की पुरानी बसावट और तंग गलियाँ, जीवन यापन मुख्य रूप से काश्तकारी पर आधारित, खेतों से थककर लौटते काश्तकारों को थोड़ा सुकून मिल सके इसके लिए कहीं-कहीं छोटे मंदिर, कबूतरों को दाना डालने का निश्चित स्थान, जो आसपास के लोगों के लिए सरकारी सेवा से आती डाक का स्थायी पता देता हुआ, गाँव की संरचना में सामन्ती आवास (रावला) गाँव के पास की छोटी पहाड़ी पर, जो सामान्य गाँव-वासियों से थोड़ा अलग परकोटे के अंदर है। इन सबके बीच में (स्थित कहना ठीक नहीं होगा) फंसा हुआ है नंदबाबू का मकान जिसके किवाड़ों के ऊपर बचे स्थान पर आज भी चौबे परिवार की एक इबारत लिखी हुई है, जिसमें कुछ ऐसा (पूज्य पिताजी श्री गोकुलचंद जी चौबे माताजी श्री गोविन्दी बाई के पावन स्मृति में सुपुत्र मुरलीधर चौबे ठि. पिपल्या रावजी) अंकित है, जिससे यह पता चलता है कि नंदबाबू के परिवार से संबंधित कोई वहाँ आज भी निवास कर रहा है। घर के मुख्य दरवाजे पर एक ताला लगा हुआ है एवं उस पर सूखी घास की चूड़ी बनाकर फंसा रखी है। पूछने पर पता चला कि यदि घर में कोई व्यक्ति नहीं मिलता है तो ताले या कुंडी पर घास फँसाकर यह संकेत किया जाता है कि आज गाँव में किसी के यहाँ भोजन/जीमण है एवं आपके परिवार को नूंता गया है। इस गाँव में आज भी परंपरा के रूप में पुरानी प्रथाएँ अपने पूरे देहातीपन के साथ जिंदा हैं। वरना मोबाईल और वाट्सअप के ज़माने में कौन ऐसे संकेतों के सहारे चलता है! खैर! गाँव की इस पारंपरिक व्यवस्था में ही यहाँ के बाशिंदों का विश्वास है। नंदबाबू के मकान के आगे खड़ा-खड़ा मैं यहाँ के लोगों के जीवन के बारे में सोच रहा हूँ, देख रहा हूँ, तरक्की पसंद ये लोग आज भी नहीं हैं; पर हाँ! जीवन तो चल ही रहा है। कुल मिलाकर यहाँ लोग सुखी हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यहाँ जिस रोमांच का मैं अनुभव कर रहा हूँ, उसे किससे साझा करूँ? यहाँ के लोग चौबे परिवार को जानते हैं लेकिन नंदबाबू को नहीं जानते हैं। इसका मुझे तनिक भी मलाल नहीं हुआ, क्योंकि नंदबाबू की प्रसिद्धि का आधार यह गाँव नहीं है। फिर काश्तकारों का पढ़े-लिखे से नाता ही क्या? अपनी भावनाओं को यहाँ व्यक्त करने की किसी भी कोशिश में असफलता ही हाथ लगनी थी। सो मैंने भाई पल्लव (सह-आचार्य, हिंदी विभाग, हिंदू कालेज, दिल्ली) को उसी वक्त स्वयं के यहाँ होने की बात बताई और नंदबाबू के मकान की फोटो भी शेयर की। थोड़ी देर बाद पल्लव जी का वाणी संदेश मेरे मोबाईल पर आया। उन्होंने कहा “अरे सर, यात्रा का एक बहुत बढ़िया संस्मरण लिख दीजिए; अद्भुत काम होगा।” यह बात फरवरी 2021 की है। आवश्यक व्यस्तताओं से भी अधिक आलस्य के चलते यह संस्मरण तैयार नहीं हो सका और बाद में कोविड की बिगड़ी परिस्थितियों ने दो साल और अनुपयोगी कर दिये। खैर! कुछ अपना, कुछ पराया, किसे दोष दें ? अब लगभग दसेक दिन पहले भाई पल्ल्व का सदेंश मिला कि इस वर्ष “नंदबाबू के जन्म-शताब्दी वर्ष“ पर “उद्भावना” का एक अंक नंदबाबू पर तैयार हो रहा है, आप उसमें जरूर लिखिए। यह अवसर अब मेरे लिए दूसरी बार आ गया है। अपनी छवि सुधारने और आलस्य पर विजय पाने का यह मौका अब मैं गँवाना नहीं चाहता हूँ। अतः नंदबाबू के गद्यकार एवं कवि-रूप पर अपनी बात मैं कुछ यूँ व्यक्त कर लूँ....!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक कवि, चिंतक और विचारक के रूप में नंदबाबू इस देश के प्रबुद्ध रचनाकारों में गिने जाते हैं। काव्य विधा के साथ-साथ नंदबाबू ने कथेतर गद्य विधा में खूब लिखा है। सिर्फ लिखने वाला रचनाकार नहीं होता है, लेखक होता है। रचनाकार तो विचार-मंथन के हर मंच पर अपनी सक्रिय उपस्थिति से सार्थक हस्तक्षेप की भूमिका-निर्माण करता है। सही और लोकपक्ष के लिए व्यक्ति को मानसिक रूप से तैयार करना भी रचना का एक प्रकार है। रचने के इस क्रम में नंदबाबू समता के पक्ष में विभिन्न आयोजनों में और यों भी लगातार बोलते रहे हैं। चाहे वे सामाजिक विषय हों अथवा राजनीतिक मुद्दे हों, उन्होंने मनुष्य के पक्ष को हमेशा मजबूती दी है। एक सामाजिक की व्यक्तिगत स्वाधीनता के प्रश्न को उन्होंने हमेशा जिलाये रखा। एक साधारण मनुष्य के संघर्ष में वे अपने कवि-कर्म से सम्मिलित होते हैं। मनुष्य के अस्तित्व के लिए वे अपना रचना-धर्म बखूबी निभाते रहे हैं। चाहे वे बुनियादी सरोकार हों या सांस्कृतिक सवाल नंदबाबू का लेखन पूरी क्षमता और संभावनाओं के साथ पाठकों के सामने होता है। यह सही है कि बदलते समय के साथ उनकी टिप्पणियाँ तल्ख होती गई और उनमें छिपा अर्थ अधिक वक्र हुआ है। अनेक आयोजनों में उन्हें निरंतर सुनने का मौका मुझे मिलता रहा है। मैं देख पाता हूँ कि उन्हें इस बात का मलाल अधिक है कि मनुष्य और समता की दुनिया की संबद्धता अभी भी नहीं बन पाई है। जिस समाज का सपना दुनिया के लिए नंदबाबू देखते हैं वह समाजवादी समाज है, किंतु उसकी स्थापना का अभाव उन्हें हमेशा खलता रहा है। अपनी एक कविता में वे द्वापर के कृष्ण की तुलना पूँजीवादी राष्ट्र के नायकों से कर समाजवाद और पूँजीवाद के गहरे अंतर को रेखांकित करते हैं—</div><blockquote><div itemprop="articleBody">कार के द्वार पर ठाड़ो रह्यौ जौ</div><div itemprop="articleBody">वह गाँव को दीन मलीन सुदामा</div><div itemprop="articleBody">द्वारिका में अब कृष्ण नहीं</div><div itemprop="articleBody">रहते बिल क्लिंटन और ओबामा।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">यहाँ व्यक्ति चरित्र प्रमुख नहीं है, बल्कि वैश्विक वर्तमान की विडंबना है कि साधारण मनुष्य भ्रष्ट और कुरूप समय से मुठभेड़ कर रहा; जिससे रचनाकार सवालिया लहजे में टकरा रहा है। इसका कारण स्पष्ट है कि उसे बीत चुके का अफसोस है और उससे अधिक चिंता आने वाले उस समय से है, जिससे रचनाकार ने और हमने मनुष्य की बेहतरी की अभिलाषा पाल रखी है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">नंदबाबू की रचनाएँ सामाजिक जड़ताओं और रूढियों पर पूरे दम से प्रहार करती हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि लक्ष्य का संधान साधारण और लुंज-पुंज प्रयासों से संभव नहीं है। उन्होंने बीसवीं शताब्दी का पूरा दौर देखा है एवं इक्कीसवीं शताब्दी के लगभग डेढ़ दशक के भी वे साक्षी रहे हैं— इसलिए उनकी कविताएँ आने वाले समय के लिए भी मनुष्य में आशा जगाती हैं। अपनी कविताओं में वे शिक्षित अभिजात्य को विशेष उम्मीद से देखते हैं। उनकी कविताएँ कहीं भी सपने नहीं दिखाती हैं, बल्कि जो संभव हो सकता है ; उसके लिए व्यक्ति को सचेत और सजग अवश्य करती हैं। “निष्फल वृक्ष” कविता का यह अंश देखिए—</div><blockquote><div itemprop="articleBody">समय सिर्फ भागदौड़ का है</div><div itemprop="articleBody">सारे आने वाले दिन</div><div itemprop="articleBody">श्मशान में बैठे औघड़ की तरह</div><div itemprop="articleBody">डरावने हैं।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">एक रचनाकार के रूप में भी और सामान्य व्यक्ति के रूप में भी नंदबाबू का यह मानना रहा कि कहीं भी कोई विकृति या अन्याय सामने आए तो उसका प्रतिवाद किया जाए या और कुछ न हो तो कम से कम विरोध तो दर्ज कराना ही चाहिए। ऐसा करना सिर्फ हक के लिए नहीं, बल्कि मनुष्य होने के लिए भी किया जाना चाहिए। सामाजिक वैषम्य के समय में ही समता के लिए लड़ना प्रासंगिक होता है, इसी कारण उनकी कविताएँ सार्थक प्रतिवाद करती हैं। उनका यह भी मानना है कि विरासत में मिली सामन्तशाही अचानक जनोन्मुखी नहीं हो जाती हैं। व्यवस्था को जनता के बीच लाना पड़ता है, लड़कर। नंदबाबू का रचनाकर्म मानवीय मूल्यों के लिए है, वे दुनिया के लिए ऐसी व्यवस्था देखना चाहते हैं जहाँ कभी ईमानदारों की तलाश में असफलता नहीं मिले। उनकी कविताएँ मनुष्य को इस तरह तैयार करती प्रतीत होती हैं कि कभी अवसर मिलने पर मनुष्यता के लिए उपलब्ध हुए निर्णायक मोड़ पर केवल द्रष्टा की तरह वह निरीह खड़ा न रहे। वह स्त्रष्टा होने के खतरे उठाना सीखे। वे मनुष्य को स्त्रष्टा होने के सुखों की बात नहीं करते हैं, बल्कि तमाम प्रकार की परेशानियों के बाद रूपायित होने वाली सृष्टि को स्वीकारने की बात करते हैं। नंदबाबू अपनी कविताओं के माध्यम से यह संदेश देते रहे हैं कि जब तक विषमतावादी समाज-रचना या किसी भी प्रकार की गैर बराबरी मौजूद है तब तक कविता सार्थक नहीं होगी। साहित्य की भूमिका सिर्फ विचार के माध्यम से शुरू होती है एवं चेतना-निर्माण पर पूरी होती है। इसके बाद सारी जिम्मेदारी उस मनुष्य की है जो समाज की बेहतरी चाहता है, न केवल चाहता है; बल्कि कुछ करना चाहता है। साहित्य कभी भी शस्त्र-क्रांति की बात नहीं करता है, वह तो युद्धरत आदमी से भी शस्त्र-त्याग का आह्वान करता है। उनकी “अजीब बात है” कविता का यह अंश उल्लेखनीय है – </div><blockquote><div itemprop="articleBody">नाटक का पटाक्षेप होते-होते</div><div itemprop="articleBody">दुनिया उन्हें सौंप देते हैं</div><div itemprop="articleBody">जो हमेशा अपने पक्ष में सोचते हैं</div><div itemprop="articleBody">संगठित तरीके से</div><div itemprop="articleBody">संगठित होकर बेच देते हैं</div><div itemprop="articleBody">ईश्वर की मर्जी, मुर्गी</div><div itemprop="articleBody">राजतंत्र और बंदूकें</div><div itemprop="articleBody">अजीब बात है</div><div itemprop="articleBody">फल वे ही खाते हैं</div><div itemprop="articleBody">जो ईमानदार नहीं हैं।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">पाठक के मन में बेचैनी पैदा कर देना उनकी कविताओं का मुख्य लक्ष्य है। अपने आसपास की सामान्य घटना को वे इस तरह अभिव्यक्त करते हैं कि पाठक की आँखों के सामने वर्णित चरित्र का बिंब उभर आता है। इस तरह अभिव्यक्ति पायी घटना तब स्थानीय न रहकर एक ऐसे व्यापक सत्य के तौर पर पाठक-स्वीकार्य हो जाती है जैसे वह केवल उसके लिए ही लिखी गई है। नंदबाबू की कविताओं का ऐसा साधारणीकरण अतुलनीय है। नये-नये शब्द गढ़कर वे अपने भावों को आकृतियाँ देते थे। वे इसकी कतई परवाह नहीं करते थे कि उनकी कविता सरस हो बल्कि इसके लिए अधिक सचेत रहते थे कि कविता का रचना-लक्ष्य पूरा हो, चाहे कितना ही बीभत्स बिंब बन रहा हो। नंदबाबू पराधीन भारत के युवा कवि थे। उन्होंने आजादी से पहले के परिवेश में जीवन-मूल्यों के महत्व को समझा था, किंतु आजादी मिलने के बाद इनका महत्व कम होने लगा, इनकी ग्लानि कवि को हमेशा रही ; लेकिन अपनी रचनाओं में वे हमेशा मूल्यों और संस्कारों की अपेक्षित गरिमा को बनाये रखते थे। स्वाधीनता प्राप्ति के लगभग ढाई साल बाद नया संविधान हमारे यहाँ अस्तित्व में आया फिर भी लोकतंत्र की दृष्टि से हम अपूर्ण ही रहे, जिसे कवि ने गैर मामूली समय के तौर पर देखा था। वे अपने एक लेख में लिखते हैं- </div><blockquote><div itemprop="articleBody">वस्तुतः स्वतंत्रता के बाद वाले पच्चीस वर्ष हमारी बेचैनी के वर्ष रहे हैं विशेषतया इसलिए कि हमने एक विशिष्ट आचरण वाले हिंदुस्तान की कल्पना की थी जो धीरे-धीरे मिटती रही और वहीं स्थिर, कट्टर और जाति-हितों में बैठा पुराना हिंदुस्तान बनने लगा।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">ये रचनाकार की स्वाभाविक चिंता है। देश के लिए जिस नयी संरचना की उम्मीद थीं, उसके विपरीत जब यहाँ की व्यवस्थाएँ पश्चगामी दिखाई देने लगीं तो निश्चित ही अच्छे दिन नहीं आने वाले थे। गैर बराबरी को तोड़ने के क्रम में सत्ता के पुराने स्वभाव को बदलना जरूरी था। लेकिन ये अन्तर्विरोध कायम रहे इसलिए उस समय व्यवस्था में तब्दीली नहीं हो पाई। किंतु नंदबाबू व्यवस्था के पुनर्निर्माण के प्रति आशान्वित रहते हैं। क्योंकि उनकी यह दृढ़ मान्यता है कि चाहे जितना उथल-पुथल मच जाए किंतु अंत में समता और स्वाधीनता के प्राप्त हुए बिना मनुष्य का बचना मुश्किल है। उनकी कविता में बहुधा मनुष्य की तलाश दिखाई देती है क्योंकि कैसा भी समाज हो, वह मनुष्य विहीन तो नहीं हो सकता है। नंदबाबू अपनी रचनाओं का कथ्य हमारे बीच से उठाते हैं। उनकी ये पंक्तियाँ – </div><blockquote><div itemprop="articleBody">हमारे पास लिखने को कुछ नहीं है</div><div itemprop="articleBody">बाहर से ही आता है सब कुछ</div><div itemprop="articleBody">दुनिया के दुर्दान्त क्लेशों, दुखों से</div><div itemprop="articleBody">जन्मा, गला</div><div itemprop="articleBody">इतना बेतरतीब ऊबड़ खाबड़</div><div itemprop="articleBody">नुकीली घास की तरह उगा।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">सिद्ध करती हैं कि कवि की रचना-प्रेरणा यही दिखता हुआ समाज है। वे जितने मनुष्य और मनुष्यता के कवि हैं उतने ही समाज और समाजवादी विचारधारा के चिंतक रचनाकार भी हैं। वे अपने रचनाकर्म में समता और स्वाधीनता के लिए किये जा रहे संघर्ष को निरन्तर अभिव्यक्ति देते रहे हैं। अपनी कविताओं में वे जनसंघर्ष की खरी अभिव्यक्ति करते हैं और साथ ही मौजूद सत्ता-व्यवस्था की जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध प्रतिरोध का स्वर भी बुलंद करते हैं। इसीलिए वे लिख पाते हैं—</div><blockquote><div itemprop="articleBody">यह कविता हार की नहीं है</div><div itemprop="articleBody">बल्कि फिर से उन संकल्पों को</div><div itemprop="articleBody">दुहराने की है जिसके लिए हम सब इस क्रूर शताब्दी के सारे</div><div itemprop="articleBody">मोर्चों पर युद्धरत हैं।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">सबसे बड़ी बात यह कि उनकी कविताओं में कोई नामधारी नायक नहीं होता है, बल्कि समय ही एक चेहरा बन जाता है। इसका कारण भी स्पष्ट है कि वे अपने पाठक को समाज की जड़ व्यवस्था को बदलने के लिए चेतन करते हैं। नंदबाबू की कविता आरंभ से उत्तरोत्तर अंत तक मानवीय प्रतिबद्धताओं की मूल्यवत्ता सिद्ध करती है। उनकी कविताएँ एक बेहतरीन संसार और मनुष्य की उम्मीद हममें जिंदा रखती हैं। समय और परिस्थितियाँ कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हों हताशा और निराशा का कोई स्थान उनके यहाँ नहीं होता है। हाँ! उनका उल्लेख अवश्य होता है, किंतु वह भी सकारात्मकता के अर्थ में ही होता है। जीवन की इन स्थितियों को वे अपने ही विरूद्ध लड़ने के अर्थ में व्यक्त करते हैं –</div><blockquote><div itemprop="articleBody">जिसे अपने ही विरूद्ध लड़ते हुए</div><div itemprop="articleBody">हमने प्रेम के लिए बोया है</div><div itemprop="articleBody">जब कभी उगे यह वृक्ष</div><div itemprop="articleBody">शायद न भी उगे</div><div itemprop="articleBody">तब भी वह फलहीन सार्थकता रहित नहीं होगा</div><div itemprop="articleBody">कम से कम पृथ्वी को अनुर्वरा होने का</div><div itemprop="articleBody">कलंक तो नहीं लगेगा।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">यह कवितांश नंदबाबू की लेखकीय प्रतिबद्धता को बखूबी दर्शाता है। इससे वे अपनी कविता को मानवीय सृजन के बहुत समीप ले आते हैं। सतत् प्रयत्नशील रहने का भाव उनकी कविताओं में पाठकों के लिए हमेशा उपलब्ध रहता है। मनुष्य के लिए वे भाग्य के विरूद्ध संघर्ष और प्रयत्न को अधिक महत्व देते हैं। क्योंकि उनका यह मानना है कि भाग्य इंसान को केवल प्रतीक्षा देता है एवं उस प्रतीक्षा में समय गुजर जाने के बाद के पछतावे के अलावा कुछ नहीं मिलता है। इसलिए वे भाग्य को मानवीय जीवटता का विलोम मानते हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">नंदबाबू की कविताएँ पढ़कर कभी-कभी यह भी लगता है कि एक कवि अन्य व्यक्तियों की तुलना में अधिक संवेदनशील होता है, इसलिए उनकी भावनात्मक बुनावट उनकी रचनाओं का एक पक्ष बनाती है। राग-विराग के प्रसंग भी कहीं-कहीं उनकी कविताओं के ग्राह्य आधार होते हैं। नंदबाबू की काव्य-दृष्टि उनकी संवेदना का ही अंश होती है, और ये संवेदना उन्हें अपने ही समाज में रहते हुए अनुभव होती है। उनकी कविताओं में सामाजिक दृष्टि बराबर विद्यमान रहती है, क्यों समाज से भिन्न व्यक्ति कभी परिपूर्ण नहीं हो सकता है। समाज से व्यक्ति के अभिन्न संबंध ही उसे मनुष्य की श्रेणी में रखते हैं। नंदबाबू का यह मानना है कि जो समाज व्यक्ति को पग-पग पर विचलित कर सकता है, वही उसे मनोबल देता है और संवेदनाओं का विस्तार करता है। नंदबाबू उन कई घटनाओं के साक्षी रहे हैं, जहाँ उन्हें यह महसूस हुआ कि मनुष्य और मनुष्य के बीच विभाजन हुआ है; इससे हमारा समाज बहुत से हिस्सों में बँट गया। बँटा हुआ समाज फिर अनेक प्रकार की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकता है। समाज और मनुष्य का अन्तःसंबंध तब ही सार्थक होगा जब मनुष्य और मनुष्य में एक आपसदारी होगी। एक साधारण व्यक्ति जिस तरह अपने अधिकारों और आसपास घटने वाली घटनाओं के प्रति चौकन्ना रहता है, ठीक उसी तरह का स्वभाव रचनाकार का भी होना चाहिए। नंदबाबू रचनाकार की इस सैद्धान्तिकी पर एकदम खरे उतरते हैं। उनकी कविताएँ इस बात का प्रमाण हैं कि वे सिर्फ कविता लिखते वक्त के कवि नहीं हैं, बल्कि आठों पहर के कवि हैं; सोते भी और जागते भी। नंदबाबू की कविताएँ उनके अनुभव का सार्वजनीकरण का काम करती हैं इसीलिए कोई स्थान और काल उनके लिए सीमा नहीं बनते हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">नंदबाबू की कविता उपदेश नहीं देती है, संदेश देती है। उनका दैनंदिन स्वभाव रचनाओं में साफ झलकता है। जितनी सहजता और सरलता से वे बातपोशी करते हैं उतनी बोधगम्य उनकी काव्य-भाषा भी होती है। समाज और आम आदमी को लेकर उनकी जो चिंताएँ हैं, यथासंभव उन्हीं की अभिव्यक्ति के लिए वे भाषा के सर्जनात्मक पक्ष पर अधिक ध्यान देते-से लगते हैं, उदाहरण के तौर पर “कुछ काम और करने थे” कविता का अंश देखा जा सकता है—</div><blockquote><div itemprop="articleBody">बाजार जाना था</div><div itemprop="articleBody">शाम होने के पहले</div><div itemprop="articleBody">जो बच गया था उसमें से चुनने</div><div itemprop="articleBody">जो किसी ने नहीं लिया</div><div itemprop="articleBody">उसे लाना था घर तक</div><div itemprop="articleBody">चुनने की जिंदगी जब न बची हो</div><div itemprop="articleBody">और अज़ीब-अज़ीब वस्तुएँ हों</div><div itemprop="articleBody">चुनने के लिए।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">यहाँ कितनी सरल भाषा में साधारण व्यक्ति के जीवन में बाजार की बाध्यकारी शक्तियों के प्रभाव को रेखांकित किया है कवि ने। लगभग इस शैली में अभिव्यक्ति दी है कि मनुष्य और बाजार के खींचतान वाले रिश्तों की मजबूरी पाठक आसानी से समझ जाए। इसीलिए हम देखते हैं कि उनकी कविताएँ एक जनकवि के स्वर के रूप सामने आती हैं। किसी जटिल परिवेश की अभिव्यक्ति के लिए भी उनके पास सीधी और सरल भाषा है, उसमें किसी प्रकार का आडंबर नहीं है। वे अपनी कविताओं के जरिये ये बताना चाहते हैं कि एक रचनाकार के तौर पर वे किस समाज की कल्पना कर रहे हैं, वे स्पष्ट लिखते हैं कि </div><blockquote><div itemprop="articleBody">हर प्रकार की संकीर्णता से मुक्त होने का उत्फुल्ल सपना सारी दुनिया के साहित्यकारों का एक काम्य सपना है।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">वे मनुष्य की दीनता और पराजय, असहायता आदि को कम करने में रचनाकारों की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हैं। मनुष्य के जीवन में निराशा के सन्नाटे को कम करने एवं उत्साह-संचार उनका रचनात्मक लक्ष्य रहा है—</div><blockquote><div itemprop="articleBody">इस संशय, प्रश्न और अवसाद में डूबे</div><div itemprop="articleBody">रोशनी की तलाश में निकले लोग</div><div itemprop="articleBody">समुद्र को पार करेंगे, लेकिन हारेंगे नहीं।</div></blockquote><p>उनकी कविता की ताकत शब्दों के सही इस्तेमाल पर निर्भर है, इस दृष्टि से नंदबाबू की रचनाएँ भाव-सम्पन्नता का ताप देती हैं।</p><p>नंदबाबू को तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी एक बेहतर भविष्य का अटूट विश्वास है। वे अपनी कविता को सभ्यता के अंतिम बिंदु तक जीवित रखना चाहते हैं—</p><blockquote><div itemprop="articleBody">मेरी कविता</div><div itemprop="articleBody">सूर्य जब तक शेष है</div><div itemprop="articleBody">तुम रोशनी का हिस्सा बनी रहो</div><div itemprop="articleBody">मेरी कविता! इतिहास जब</div><div itemprop="articleBody">निःशब्द होने लगे</div><div itemprop="articleBody">तब तुम एक सार्थक शब्द बनो</div><div itemprop="articleBody">चाहे हवा, चाहे आकाश, चाहे अग्नि।</div></blockquote><div itemprop="articleBody"></div></div></div><p> जब तक मनुष्य शब्द पहचानता रहे, तब तक उसके लिए कविता कल्याणकारी रहे; यही सार्थकता नंदबाबू चाहते हैं। जिस बेहतर भविष्य के लिए वे सोचते हैं वह हमारी व्यवस्था मे व्याप्त गैर बराबरी और अनादर भाव के उन्मूलन से जुड़ा हुआ है। जब तक मनुष्य को समता का महत्व नहीं पता चलेगा तब तक इस व्यवस्था की स्थापना संभव नहीं है। समाज से छोटे-बड़े का भेद मिटना चाहिए। उनके अनुसार छोटे वे हैं, जिन्हें शिक्षित होने और स्व-विवेक विकसित करने के कम अवसर मिलते हैं तथा बड़े वे हैं; जो किसी शारीरिक काम में निपुण नहीं होते हैं तथा वे कर्म-संस्कृति के आल्हाद को नहीं जानते हैं। फिर भी व्यवस्था के नियंत्रक ये बड़े ही होते हैं। नंदबाबू व्यवस्था के इस भेद को समानता के धरातल पर लाना चाहते हैं। अपने एक उद्बोधन में वे कहते हैं- </p><blockquote><div itemprop="articleBody">कविता लिखने के सिलसिले में यह बात दुहरानी चाहिए कि वह “अंधेरे में छलांग लगाना नहीं है। अंधेरे से मुक्त होने की छलांग लगाना है।</div></blockquote><div itemprop="articleBody"></div> नंदबाबू की काव्य-रचना का यही आशय है। वे सदैव मनुष्य को बचाने की चिंता करते हैं और उसी के लिए कविता लिखते हैं। मनुष्य के लिए यदि किसी भी रूप में यह दुनिया अवांछित है तो उसके विरूद्ध लड़ने के पक्ष में उनकी कविता होती है; पढ़ते हुए पाठक निश्चित तौर पर एक मानसिक आश्वस्ति का अनुभव करता है जैसे— <blockquote><div itemprop="articleBody">पराजय कब नहीं थी</div><div itemprop="articleBody">कब नहीं थे झूठ के वाहवाह करने वाले</div><div itemprop="articleBody">लेकिन तभी दल-दल से</div><div itemprop="articleBody">निकल आया था समय</div><div itemprop="articleBody">करिश्में और भाग्य से नहीं</div><div itemprop="articleBody">मनुष्य के उत्साह और संसर्ग से।</div></blockquote><div itemprop="articleBody"></div><p> वे भाग्य और ईश्वर के भरोसे बैठकर अकर्मण्य होते लोगों को शिष्ट शब्दावली में प्यार से लताड़ते हुए आह्वान करते हैं कि स्वयं को जानिए, क्योंकि स्वयं को जानना ही इस दुनिया को जानने के समान है। हर व्यक्ति को अपनी रचनात्मक क्षमता और सामर्थ्य से परिचित होना चाहिए तब ही वह कुछ रचने का विचार कर सकता है। नंदबाबू की कविता “क्या थे!” और “क्या होंगे!” की बात कभी नहीं करती है, बल्कि अपने वर्तमान को बेहतर से बेहतर सजाने की प्रेरणा देती है।</p><p>श्रेष्ठ कवि, विचारक और चिंतक होने के साथ-साथ नंद चतुर्वेदी उस व्यक्ति का नाम भी है जो अपने समय की समाज-हित की गतिविधियों को स्वयं सक्रिय होकर आगे ले जाने का काम करता है। समाज की गैर बराबरी को समाप्त करने के लिए चलाये गए समाजवादी आंदोलन को गति देने वालों में राजस्थान से नंदबाबू अग्रणी थे, वे इस आंदोलन में इसलिए साथ थे कि उन्हें विश्वास था कि भारत के स्वभाव को देखते हुए यह कुछ सकारात्मक निर्माण समाज के लिए कर पाएगा। किंतु ऐसा नहीं हो सका और धीरे-धीरे वह आन्दोलन समाप्त ही हो गया, जिसका दुःख नंदबाबू को अपने जीवन के अंत तक रहा; लेकिन इसका विषाद या निराशा उनके लेखन में फिर भी कभी नहीं दिखी। उमंग, उत्साह और ऊर्जा उनके लेखन में हमेशा बनी रहीं। इस रूप में नंदबाबू सदैव स्मृतियों में रहेंगे—</p><blockquote><div itemprop="articleBody">तुम्हारे हाथ अभी थके नहीं हैं</div><div itemprop="articleBody">यह कहने का सुख ही</div><div itemprop="articleBody">इस कविता का कथ्य है। थोड़े से दिन और हैं सहने के</div><div itemprop="articleBody">फैलाने के लिए ये हाथ नहीं है।</div></blockquote><div itemprop="articleBody"></div><p>ये केवल कवि का आशावाद नहीं है बल्कि इस सदी के मनुष्य को बेहतर मनुष्य में रूपायित होने की बलवती आशा है। हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि जब तक नंदबाबू की कविता पढ़ी जाती रहेंगी, वे हमारी स्मृतियों में मूर्त होते रहेंगे।</p>
<div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div>
<div style="text-align: right;">
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br />
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
००००००००००००००००</div>
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-46939263775633052082024-02-12T22:44:00.003+05:302024-02-12T22:44:28.079+05:30शोक -स्मृति: उषा किरण खान - रास्ता गुम गया अम्मा! ~ अणु शक्ति सिंह | Anu Shakti Singh on UshaKiran Khan<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>उषाकिरण खान का जाना हिन्दी जगत को स्तब्ध कर गया है। हिन्दी वाला चाहे जहां का भी हो उनसे प्यार पाता था। ऐसे ही प्यार को युवा लेखिका अणु शक्ति सिंह साझा कर रही हैं अपनी 'शोक -स्मृति' में! ~ सं० <span><a name='more'></a></span></div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjfcihJUfXHcRZu-Oc6N6HBAf1OkVP7XJ-WZp-3_ZiZ6uaQ9GdF-uYJtmo04lmqe_5TMcT5YeVLYZmG6iiwomn_xOCW7gLkeApsZZbUPTSSPHzntZ50wReMI_azJnEotHsLlFvl7LBi_E1I9D4ap2FerVrl1M1Nyxj8nhr417bQi4_NWNuL7kA-g3BTFoEy/s903/Anu%20Shakti%20Singh%20on%20UshaKiran%20Khan.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjfcihJUfXHcRZu-Oc6N6HBAf1OkVP7XJ-WZp-3_ZiZ6uaQ9GdF-uYJtmo04lmqe_5TMcT5YeVLYZmG6iiwomn_xOCW7gLkeApsZZbUPTSSPHzntZ50wReMI_azJnEotHsLlFvl7LBi_E1I9D4ap2FerVrl1M1Nyxj8nhr417bQi4_NWNuL7kA-g3BTFoEy/s16000/Anu%20Shakti%20Singh%20on%20UshaKiran%20Khan.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Anu Shakti Singh on UshaKiran Khan ( Photo: Geetashree)</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h2>शोक -स्मृति</h2><div><br /></div><h1 itemprop="headline">
अम्मा उर्फ उषाकिरण खान उर्फ मैथिली-हिन्दी की जगमगाती पहचान उर्फ धवल दंत पंक्ति पर लहकती चौड़ी मुस्कुराहट</h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">
~ अणु शक्ति सिंह</h2>
<div 11px="" font-size:=""><br /></div>
<br />
<div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">उन्हें गये हुए एक दिन से अधिक हो गया है। पुस्तकों के मेले में रेले थे। लोगों की भीड़ थी। हँसी-मज़ाक था। बहुत सारी जानकारियाँ थीं। कई सूचनाएं भी। उसी दौरान फोन के निस्संग कोने में एक तस्वीर चमकी। उस ओर अपार दु:ख था। उषा किरण खान नहीं रहीं, यह सूचना बस सूचना नहीं थी। एक पूरे संसार के गुम हो जाने की ख़बर थी।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">मन बोझिल हुआ। खोने के दर्द से आकुल घर लौटा। एक खट्टे-मीठे रिश्ते को फिर-फिर जीने की कोशिश की गई। हम शब्दों के दौर में जी रहे हैं। लिखित शब्दों के... मेरे और उनके दरमियान बहुत सारे लिखे हुए शब्द थे।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">कुछ साल पहले उनसे पहचान हुई थी। शब्दों के मार्फत ही। गीताश्री ने उनसे वाबस्ता करवाया था। इसी उहा-पोह में कि उन्हें किस नाम से पुकारूँ, एक साथी कवि से उनकी ख़ातिर उसका सम्बोधन उधार ले लिया था। वह उन्हें अम्मा बुलाती थी। मैंने भी उन्हें अम्मा बुलाना शुरु किया।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">अम्मा उर्फ उषा किरण खान उर्फ मैथिली-हिन्दी की जगमगाती पहचान उर्फ धवल दंत पंक्ति पर लहकती चौड़ी मुस्कुराहट। उस मुस्कुराहट जितना ही मीठा एक रिश्ता।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">मैं उनकी ही ज़ुबान की एक बिगड़ी हुई लड़की जिसे छेड़ना उन्हें खूब पसंद था। मेरी अजीबो-गरीब तस्वीर पर उनकी लाजवाब कर देने वाली टिप्पणियाँ।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">भाषा की उस मलिका ने नेह का सरापा पहन रखा था। मुझे याद है उनसे हुई पहली मुलाक़ात... वह भी किसी और साल में किताबों का ही मेला था। वे व्हील चेयर पर थीं। शायद बहुत चलते हुए थक गई थीं। मैं उनके पाँव के पास बैठी। उन्हें किसी ने बताया था कि मैं जगह और भाषा की वही थाती लेकर इस दुनिया में चली आई हूँ, जो उनकी ज़मीन रही है। उन्होंने बड़े स्नेह से सिर पर हाथ फेरा था। वही हाथ जो कल अचानक सिर से उठ गया।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">यादों के सिरे एक बार खुलते हैं तो कुछ रुकता है क्या? अपनी ही ज़ुबान से झिझकती रहने वाली मैं, पहली बार मैथिली में संवाद का एक मौक़ा मिला था। अपने आप को संक्रमण काल की पीढ़ी कहती हूँ मैं। वह पीढ़ी जिसे मैथिली सही-सही नहीं आती। ऑनलाइन चल रहे उस कार्यक्रम में उस ओर वे थीं। मिलते ही उन्होंने कहा, बोलो जैसे बोल रही हो, खूब हो।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">कोई बड़ा हो हाथ पकड़ने को, बच्चे चलना खुद सीख जाते हैं। वे मेरी बुज़ुर्ग थीं, अपनी बुज़ुर्ग। मेरे शराब के साथ अपनी कोल्ड ड्रिंक का ग्लास खनकाने वाली। जन्मदिन के मौके पर मुझे अपनी वैचारिकी की मौलिकता को संभाल कर रखने की सलाह देने वाली, बाज़ दफा मैथिली में न लिखने की वजह से मुझे झिड़कने वाली भी। उनका अक्सर यह कहना कि अपनी ज़मीन लिखो, अपना गाँव लिखो। राजधानी की रंगीनियों में गुम मैं हर बार भूल जाती।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">हर बार वे पूछतीं और मैं कहती, अगली बार पक्का... अब यह लिखते हुए सोच रही हूँ, कौन पूछेगा ‘कब लिखोगी?’</div><div itemprop="articleBody">किस्से कहूँगी मैं, अगली बार पक्का!</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">यह ठीक नहीं हुआ अम्मा... आपकी इस बलुआ प्रस्तर खंड अभी अपनी ज़मीन ही तो तलाश रही थी। कैसे मुमकिन हो पाएगा आपके बिना?</div></div><div style="text-align: right;">
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-64893022260039868112024-01-29T18:21:00.007+05:302024-02-24T12:26:47.353+05:30हे वलेक्सा एक फ़ड़कता व्यंग्य लिखो ना ~ मलय जैन | Vyangya by Maloy Jain<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>मलय जैन भाई का लेखन इतना परिपक्व है कि बार-बार पढ़ा जा सकता है. 'जय हिंदी' बोलते हुए पढ़िए उनका ताज़ा क़रारा व्यंग्य! ~ सं० </div><span><a name='more'></a></span><div><br /></div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7LBUbb21SMSQsz43VZZLKoavCKBcdKWw0-pjc_Ko8aw_SXvmOa7n7qoDiyPYMSZ2JKEScLKFdC7VSEaLpvKmSKRPlseRjzQufAef-7YNALfaYH8_1afbX_aUOUKh2yRqpTVvw5Cbr87CXL1Bg30P4ZLRgw0lWYOPvel37xEYnJwxz0hPALgvHIZKmq8cy/s903/Vyangya%20by%20Maloy%20Jain.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7LBUbb21SMSQsz43VZZLKoavCKBcdKWw0-pjc_Ko8aw_SXvmOa7n7qoDiyPYMSZ2JKEScLKFdC7VSEaLpvKmSKRPlseRjzQufAef-7YNALfaYH8_1afbX_aUOUKh2yRqpTVvw5Cbr87CXL1Bg30P4ZLRgw0lWYOPvel37xEYnJwxz0hPALgvHIZKmq8cy/s16000/Vyangya%20by%20Maloy%20Jain.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Vyangya by Maloy Jain</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><div><br /></div>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">
हे वलेक्सा एक फ़ड़कता व्यंग्य लिखो ना</h2>
<h3>मलय जैन</h3><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">
<div style="font-size: 12px; line-height: 14px;">
जन्म 27 फरवरी 1970 को मध्य प्रदेश के सागर में. (मूल भूमि राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त की जन्मस्थली चिरगाँव जिला झाँसी). प्रकाशित कृतियां: व्यंग्य उपन्यास ' ढाक के तीन पात (2015), व्यंग्य संग्रह हलक़ का दारोग़ा (2023) राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित। व्यंग्य नाटक लेखन के साथ पोलिश लेखक वलेरियन डोमिंस्की की अंग्रेज़ी कहानियों एवं व्यंग्य रचनाओं के हिन्दी अनुवाद। <b>सम्मान / पुरस्कार </b>•साहित्य अकादमी मप्र से उपन्यास ढाक के तीन पात पर बाल कृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार • रवींद्रनाथ त्यागी स्मृति सोपान पुरस्कार • सरदार दिलजीत सिंह रील व्यंग्य सम्मान • दुष्यंत पांडुलिपि अलंकरण अंतर्गत कमलेश्वर सम्मान •अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान •भगवती चरण वर्मा कथा पुरस्कार • ज्ञान चतुर्वेदी राष्ट्रीय व्यंग्य सम्मान 2023 <b>सम्पर्क: </b>सेक्टर K- H50 , अयोध्यानगर , भोपाल मप्र 462041 मोबाईल 9425465140 ई मेल <a href="mailto:maloyjain@gmail.com">maloyjain@gmail.com</a> </div>
</div><div><br /></div></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बलिहारी तकनीक की। जिसका इंतजार था, वह आ ही गई आख़िरकार। ख़ुद व्यंग्य लिखना उनसे कभी सधा नहीं और अब व्यंग्य लेखन एक्सेस वाली तकनीक वलेक्सा आ गई तो सीरी और अलेक्सा की तरह वह वलेक्सा के पीछे भी हाथ होकर पड़ गए, "हे वलेक्सा," उन्होंने वलेक्सा का आवाहन किया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"नमस्ते महोदय, मैं व्यंग्य लेखन एक्सेस एआई चैटबॉट वलेक्सा, आपकी क्या मदद कर सकती हूं?"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"हे वलेक्सा, मेरे नाम से एक तड़कता फ़ड़कता व्यंग्य लिखो ना"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"महोदय, आप किस तरह का व्यंग्य लिखवाना पसंद करेंगे?"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"एकदम वैसा जैसा शरद जोशी और परसाई लिखते थे"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"महोदय, राजनीति पर व्यंग्य पसंद करेंगे या सामाजिक विसंगति पर?"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"राजनीति पर भी चलेगा। कोई बांदा नहीं। एक बार ट्राई करो।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अगले ही पल उनके स्क्रीन पर एक व्यंग्य प्रकट होता है। फड़कता हुआ व्यंग्य पढ़ते ही उनकी बांई आँख फड़कती है, </div><div itemprop="articleBody"> "यह क्या, तुमने तो नेताजी का सीधा नाम लेकर ही व्यंग्य लिख दिया?"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"महोदय, मैं आपको बताना चाहूंगी कि शरद जोशी और परसाई ऐसा ही लिखते थे, तभी वो सीधी मार करता था।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">" अ..अ .. वलेक्सा, यू नो सीधी मार करना तो थोड़ी टेढ़ी खीर है। नेताजी नाराज हो गए तो सीधी मार मेरी खोपड़ी पर पड़ेगी। कोर्ट वोर्ट में घसीट लिया तो लेने के देने पड़ जाएंगे। तुम ऐसा करो, परसाई और शरद जोशी दोनों को ही छोड़ो। कुछ और ट्राई करो। "</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"महोदय, आप कहें तो सामाजिक विसंगति पर व्यंग्य प्रस्तुत करूं"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"हां हां करो, समाज में विसंगतियों की कौन सी कमी है" वह ख़ुश होकर चहके। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक मिनट बाद ही स्क्रीन पर अगला व्यंग्य प्रकट होता है। वह उसे जल्दी-जल्दी पढ़ते हैं। उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें आती हैं, </div><div itemprop="articleBody">"यार वलेक्सा यह तो कुछ ज्यादा ही हो गया, इससे तो मेरी ही सोसायटी वाले मुझ पर नाराज हो जाएंगे। पड़ोसी अलग बुरा मान जाएंगे।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"ठीक है महोदय, सामाजिक विषय छोड़ देते हैं। आप कहें तो धार्मिक विसंगति पर ट्राई करूं? धर्म में तो विसंगतियों की कोई कमी नहीं"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"ध .. ध ... धार्मिक विसंगति पर? तुम तो जानती हो किसी धर्म पर कुछ भी ऐसा वैसा लिखो तो फालतू बखेड़ा खड़ा हो जाता है। पिटने पिटाने की नौबत तक आ जाती है। फ़ालतू रिस्क क्यों ली जाए !"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"ठीक है महोदय, फिर हम सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक इस प्रकार के सारे रिस्की फ़ील्ड्स छोड़ देते हैं। मैं आपको बताना चाहूंगी कि लेखक द्वारा स्वयं पर लिखा गया व्यंग्य बहुत इफेक्टिव होता है। जैसा कि मैंने आपसे अब तक की बातचीत में पाया, आपके स्वयं के भीतर अनेक विसंगतियां हैं। आप कहें तो मैं आपके ऊपर सर्वश्रेष्ठ व्यंग्य लिखकर प्रस्तुत कर सकती हूं।"</div><div itemprop="articleBody">"मेरे अपने ऊपर ही व्यंग्य? हें हें हें वलेक्सा, तुम भी मज़ाक करती हो। तुम्हें तो पता है तुम जो भी लिखोगी, वो मेरे नाम से छपेगा। अब कौन इस चक्कर में पड़ता है"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"तो फिर महोदय आप ही बताएं मैं किस विषय पर व्यंग्य लिखकर पेश करूँ !" यदि सिर खुजलाने की सुविधा होती तो वलेक्सा यही करती। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"अ .. वलेक्सा, ऐसा करो, कुछ फूल पत्ती, चिड़िया विड़िया टाइप लेकर व्यंग्य लिखो।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"महोदय, मैं आपको बताना चाहूंगी कि ये व्यंग्य के फ़ील्ड्स नहीं हैं। इन विषयों पर सिर्फ रूमानी कविता ही लिखी जाना ठीक होगा जो मेरे वर्क फ़ील्ड में नहीं है।" </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ज़ाहिर है यदि बाल नोचने की सुविधा होती तो वलेक्सा अपने साथ लेखक के भी बाल नोच चुकी होती। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लेखक महोदय ने अभी भी उम्मीद नहीं छोड़ी और कहा, </div><div itemprop="articleBody">"तो फिर वलेक्सा तुम सजेस्ट करो मैं क्या करूं?"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"महोदय, व्यंग्य लिखना-लिखवाना भूल जाएं और अब यहां से दफा हो जाएं"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">स्क्रीन पर वलेक्सा की व्यंग्य से भरी इमोजी प्रकट हुई और फिर वहां वीरानी छा गई। </div><div><br /></div></div>
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(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br />
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-13317734247939888392024-01-18T21:14:00.001+05:302024-01-18T21:14:24.282+05:30घूमर - मधु कांकरिया, श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफ्को साहित्य सम्मान २०२३ से सम्मानित कथाकार की कहानी | Madhu Kankaria ki Kahaniyan<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफ्को साहित्य सम्मान २०२३ से सम्मानित कथाकार मधु कांकरिया की कहानियाँ इस पाठक को पसंद आती रही हैं लेकिन, 'घूमर', उनकी प्रस्तुत कहानी कुछ अधिक ही अच्छी, सच्ची, हमसब के आसपास गुज़री कहानी लगी. वक़्त मिले तो ज़रूर पढ़िएगा ~ सं० <span><a name='more'></a></span></div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMDJm-i48ctUT_TmaXmhWzm8usq2SyJ4iHCtuGjGphI5jr4NVGW2QjjaDKm8nTclP5BeZ1EF6HNQS3DzHztq2Rc73csWGfoFy-cDOMLBZrPuzsc46IeOUOPGx9ekYzAGF1Xw_2NShEnrOrG0FPGd72L-iN8OYaiDxs7zF0tORy8Xs5LV3K-IqcpeLAegmC/s903/Madhu%20Kankaria%20ki%20Kahaniyan.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMDJm-i48ctUT_TmaXmhWzm8usq2SyJ4iHCtuGjGphI5jr4NVGW2QjjaDKm8nTclP5BeZ1EF6HNQS3DzHztq2Rc73csWGfoFy-cDOMLBZrPuzsc46IeOUOPGx9ekYzAGF1Xw_2NShEnrOrG0FPGd72L-iN8OYaiDxs7zF0tORy8Xs5LV3K-IqcpeLAegmC/s16000/Madhu%20Kankaria%20ki%20Kahaniyan.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Madhu Kankaria ki Kahaniyan</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h1 itemprop="headline">
घूमर</h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">
मधु कांकरिया</h2>
<div 11px="" font-size:=""><br /></div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">वह देश में नोटबंदी और मुहबन्दी का ज़माना था, जिसका असर उन घरों में भी हो रहा था जिसकी कहानी कही जा रही है। ज़माने के ऐसे ही एक घर में दिन की आख़िरी धूप में, उस वर्ष की सबसे मोहक और सबसे भयानक घटना एक साथ घटी थी। मोहक इसलिए कि जत्न से संजोयी एक मुराद आज पूरी होने जा रही थी, मीरा की बेटी सुहानी के सुहाने सपनों के साकार होने का दिन था वह। भयानक इसलिए कि हॉस्पिटल गए थे वे चार पर दिन के आखिरी छोर में लौट कर आए थे तीन — लोग पूछेंगे तो क्या जवाब देगी वह? भीतर दबे अनकहे ज्वालामुखी को फटने से बचाने के लिए अस्पताल से लौटते ही वह सीधे नहानघर पहुंची, नहानघर के प्रति कृतज्ञ थी वह। पिछले दस दिनों की एक एक घटना, एक एक दृश्य जैसे चीख चीख कह रहे थे कि यह जीवन बचाया जा सकता था, बिल्कुल बचाया जा सकता था पर वही चूक गयी। ओंठों को गोल कर लगातार गर्म गर्म भांप छोड़ती रही वह कि धुंआ कुछ तो कम हो। धरती धूज रही थी उसके आगे। निढाल हो जमीन पर धंस गयी वह। ऊफ कैसी चरम विवशता! जीवन का पहला मृत्यु दुःख! आषाढ़ की पहली बारिश के पहले बादलों-सा बार बार उमड़ घुमड़ आता दुःख और जी भर रो लेने की इजाज़त नहीं। उसने चाहा था कि आँख मूँद आंसुओं और हाहाकार को मुक्त बहने दे वह पर आँखों के मूंदते ही चमक उठता ढहते मेघेन का निचुड़ा-सा चेहरा और ऊपर की ओर उठी हुई निष्प्राण मुंदी हुई वे आँखें जो कभी जीवन से भरी रहती थी। उड़ान भरते भरते जैसे एकाएक पंख टूट गए हो और अब पल पल फ़ैल रहे हों अवसाद के डैने!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उफ़! काश दो दिन और जीवित रह जाता मेघेन!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दुःख यह नहीं कि मेघेन गया। दुःख था कि काश उसकी आत्मा शांति से उसके शरीर को छोड़ पाती। स्वप्न था कि मस्त उड़ान भरते हुए एक दूसरें को अलविदा कहेंगे पर हक़ीक़त में अलविदा तक न कह सकी। अंदर ही अंदर दरक रहा था वह पहाड़ और उसे अहसास तक नहीं हुआ!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कितना कुछ है जो दृश्य के बाहर छिपा रहता है …सोच रही है मीरा! शादी के लिए इतनी दौड़ धूप कर रहा था मेघेन … शुरू शुरू में उसे अच्छा लग रहा था पर नहीं भी लग रहा था। अरे भाई शादी है कोई युद्ध नहीं! मन ही मन सोचती पर भोली आँखें देख नहीं पायी कि मौत जाल बिछा रही थी। चिंता की चिड़िया चोंच मारती रही पर उम्मीद से भरी रही वह और अंजुली के जल-सा बह गया मेघेन। रह गया पछतावा!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ज़िन्दगी की ठोकर ने ज़िन्दगी पर उसकी राय को बदल दिया है। विचार बदल रहे हैं, जन्म ले रहे हैं नए विचार — कितनी बनावटी है ज़िन्दगी! हर पल मुखौटा! उफ़! क्यों लेने दिया उसने इतना कर्जा! क्यों होने दिया वह सब जो नहीं होना था। माना, उसकी ट्रेवलिंग एजेंसी ठीक ठाक चल रही थी फिर भी क्या ज़रुरत थी हैसियत से बढ़कर हैसियत दिखाने की? होने में नहीं, दिखने में क्यों विश्वास करता है आदमी? कैसा समय! छिलका ही गूदा हो गया है। हे देव! समय रहते चेत जाती तो यह चूक तो नहीं होती! नहीं होता बीपी इतना हाई! इतनी मोटी बात भी क्यों नहीं समझ पायी वह कि बिना दिखावे के भी सब कुछ कितना तो खूबसूरत चल रहा था। हल्की हल्की लहरें बीच बीच में उठ रही थी पर जीवन शांत था। जीवन का असली आनंद तो वही था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पर समय के माया जाल में फंस गयी वह। समय तेजी का था। तेजी युग सत्य था। मौसम में तेजी। महंगाई में तेजी, औपचारिकता में तेजी, दिखावे में तेजी, भाषणों में तेजी, वादों में तेजी! बाजार में तेजी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">क़तरा-क़तरा समय की किरचें लहूलुहान कर रही थी उसे — क्यों नहीं चेती वह जब ख़तरे के स्याह मेघ खंड इकट्ठे हो रहे थे मेघेन के इर्द गिर्द। जब मौत चमक रही थी किसी स्वप्न भरी आँखों की तरह पर वह ग़ाफ़िल रही। शादी के खर्च और ज़िन्दगी में पहली बार लिया क़र्जा मेघेन की स्वाभिमानी आत्मा को चूहे की तरह कुतर रहा था। उसका ब्लड शुगर और बीपी दोनों ही ख़तरे की सीमा छू रहे थे। जब बोलते बोलते हांफने लगा था वह तभी जैसे आकाशवाणी हो गयी थी। आधा तभी मर गया था। लेकिन बेईमान मन और जीवन की घिस घिस ने इतना घिसा दिया था उसे कि कुछ भी नहीं व्यापा, नहीं सुनी मन की आवाज़? भोले मध्यवर्गीय आशावाद और नियतिवाद ने जैसे सब आशंकाओं पर पोंछा लगा उम्मीद से लबालब भर दिया था उसे। बेटी की शादी की ख़ुशी की चादर में जैसे ज़िन्दगी के सारे छिद्र ढक गए थे। स्वप्न और यथार्थ के दोराहे पर खड़ी मीरा ने बहने दिया मेघेन को भी ज़िन्दगी के तेज प्रवाह में। जिम्मेदारियों के तीव्र अहसास ने न मेघेन को मेघेन रहने दिया न मीरा को मीरा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">नतीजा?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">भूसा रह गया, तत्व निकल गया। वह स्थूलताओं में घिरी रही और वह ढह गया। किनारा क़रीब आ ही रहा था कि छूट गयी पतवार।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पीड़ा का समुद्र हिलोरे ले रहा है भीतर। काश समय में वापस जाकर उन पलों को लौटा लाती वह। काश ज़िन्दगी में भी होता कोई रिवाइंड बटन। काश अपने घर कोलकाता से ही किया होता विवाह! पर समधी समधन का आग्रह! उसने तो हल्के से आनाकानी भी की कि रिवाज़ तो यही है कि बरात उनके द्वार पर आए, पर नहीं नहीं नहीं नहीं। समधी नहीं माने। ठुकरा नहीं पाए उनका आग्रह। अब जिस घर में जन्म भर के लिए बेटी को रहना है उनके आग्रह का तो मान रखना ही था। आज अहसास हो रहा है उसे कि वह सब अधूरे सत्य थे। असली था जीवन, सबसे ऊपर था जीवन। मना कर देना था उसे, माना मेघेन थे घर के मुगले आज़म पर वह यदि दृढ रहती तो मानना पड़ता मेघेन को। मेघेन ज़रूर सुनते उसकी मन की बात! और इतनी झुलसती गर्मी में नहीं आना पड़ता दिल्ली। गर्मी तो कोलकाता में भी पड़ती है पर दिल्ली की गर्मी दिमाग़ के अंदर घुस जाती है। उफ़! ज़िन्दगी की सबसे बड़ी भूल हुई उससे। पर आत्मविश्वास उसी का धक्के खा रहा था, साथ ही विवेक बुद्धि भी, माना अगले आठ महीने तक कोई मुहूर्त ही नहीं था और दोनों ही पक्ष इसे टालने के पक्ष में नहीं थे। फिर समधी जी का आश्वासन — आप सिर्फ बारात की ख़ातिर-दारी की ज़िम्मेदारी संभाल लें, गीत संध्या और शादी की सारी ज़िम्मेदारी हमारा इवेंट मैनेजर संभाल लेगा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आश्वासन भला भी था!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">और बुरा भी!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">भला था कि परिवार की पहली शादी टनाटन हो यह सत्य किसी बेताल की तरह उसकी पीठ पर ही नहीं उसकी चेतना पर भी हावी था। बुरा था कि मेघेन का स्वास्थ्य इसके भी लायक कहाँ था? क्या मिला इतनी उतावली कर? न गेह बचा, न देह, न नेह। बहरहाल शादी के लिए बन्ना बन्नी गाते गाते और बंद खिड़की के कांच से पटरी पर पॉटी करते देशबासियों को गाहे बगाहे देखते देखते वे कोलकाता से दिल्ली आए। घर से शादी के निमित लिए गए ‘सुरुचि भवन’ में पंहुचे भर थे कि लोडशेडिंग!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"> गर्मी इतनी कि लोगबाग मिलते तो ‘जय राम जी की!’ कहने की बजाय कहते ‘उफ़ कितनी गर्मी है!’ रुक जाना था उसे नीचे ही कहीं! पर जगह जगह बिखरे काम, सफ़र की थकावट, पोर पोर में चिंता, सूरज के ताप और गुल बत्ती ने जैसे दिमाग़ को ही सुन्न कर दिया था, देख ही नहीं पायी कि इन सबके बीच जर्जर हो चुकी नाव को। बाघ की तरह झपट्टा मारती जानलेवा धूप ने जैसे संवेदनाओं को ही सुखा डाला था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दिखी तो उसे सिर्फ ज़िम्मेदारियाँ, दिखावे और औपचारिकताओं की बर्फीली सिल्लियां जो हिमालय बन खड़ी थीं सामने, जिसने बादलों से झूमते लहराते मेघेन को मेघेन नहीं बैल बना दिया था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">धरती धधक रही थी साथ ही वह। फिर भी वे पैदल ही चढ़ गए सात मंजिल। उसने भी नहीं रोका। अगली शाम गीत संध्या थी उसकी तैयारी और अगले के अगले दिन शादी! होने दिया उसने जो हो रहा था क्यों नहीं सोचा कि सबसे ऊपर जीवन है पर सोचने का वक़्त ही कहाँ बचा था। दुश्चिंताओं को कुछ दिनों के लिए तह कर रख लिया। नकली चिंता में असली चिंता को खड़े रहने की जगह ही नहीं मिली। शरीर तो लगातार दिखा रहा था लाल बत्ती। एक के बाद एक योजनाएं बना रहा था मेघेन इस बात से बेख़बर कि ज़िन्दगी उसके लिए अंतिम योजना बना चुकी थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बस अंत की शुरुआत शायद तभी से हो गयी थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उन दो दिनों ने ज़िन्दगी के सारे रंग दिखा दिए थे मीरा को। रात-सी रात हुई, धरती सपनों में सोइ हुई थी। सुबह हुई। निर्वाण-सी सुबह! मन चिड़िया-सा चहक उठा था। गुलजार घर में बन्ना बन्नी के गीत गाये जा रहे थे — एक बार आओ जी जंवाई जी पावना। …जीवन का उत्सव था। जमाने की चिरसंचित मुराद आज पूरी हुई थी मीरा की। उसकी बेटी सुहानी को हल्दी चढ़ रही थी। ज़माने बाद परवरदिगार ने दिखाया था उसे यह दिन। शादी का बजट ज़रूर अनुमान से काफी ज्यादा हो गया था पर मन सन्तुष्ट था क्योंकि वर होनहार मिला था, घर भी बहुत समृद्ध था। बड़े घर में रिश्ता होने की तरंग कब तेज गति से बहते समय में दवाब की जानलेवा लहर बन गयी जब तक हुआ अहसास देर हो चुकी थी। समधी जी शहर के बहुत बड़े उद्योगपति थे, उनकी इज़्ज़त के अनुसार ही बारातियों की ख़ातिरदारी करनी थी। आज के दिन कम से कम सब कुछ वैसा ही हो रहा था जैसा सोचा था उसने…. कि तभी जाने कहाँ से बिजली गिर गयी उनपर। ‘सुरुचि भवन’ पहुंचे भर कि बिजली चली गयी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पूरी दोपहर भाग दौड़ में बीती। शादी के घर में पचासों काम। इससे सम्पर्क उससे सम्पर्क। बिजली का कहीं अता पता नहीं। जेनेरेटर और लिफ्ट नकारा। इसी बीच फिर एक बार नीचे जाना पड गया फिर सात मंजिल की चढ़ाई। दम फूल गया था पर फूलते दम के साथ ही कैटरिंग वालों से, डेकोरेटर से, हलवाई से, बिजली फिटिंग करने वालों से बात की मेघेन ने। हर खाली जगह को तो उसी को भरना जो था। सोया सोया जगा-सा लग रहा था मेघेन। कभी का इतना सुदर्शन मेघेन इन दिनों पलस्तर उखड़ी दीवार-सा किसी अभिशप्त श्रम देवता-सा मुरझाया और निस्तेज दिखने लगा था। मीरा ने कहा भी कि शांति रखें, कुछ नाश्ता पानी ले ले पर तभी ध्यान आया कि कुछ मेहमानों को लाने की व्यवस्था करनी है। उसी में लगे थे कि अचानक चक्कर आ गया। सोफे पर बैठे बैठे ही लुढ़क गए। देखा भी सबसे पहले मीरा ने ही था। वह आधा-सा पल खंजर की तरह गड़ गया था भीतर। क्षण के क्षणांश में भी देख लिया था मीरा ने उस गुलमोहर के रंग को उड़ते हुए। उस बुलंद इमारत को ढहते हुए। मीरा अपने भाई और भाभी को लेकर जब तक एम्स पहुंची कहानी ख़त्म हो चुकी थी। भक-से बुझ गया था वह! श्रम, थकान और तनाव से भरपूर ज़िन्दगी में बेटी विदाई के सुकून भरे दो पल नसीब होते कि उसके पहले ही बादलों के पार जा चुका था मेघेन।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">****</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक घुटी हुई-सी गहरी आवाज़ में दुनियादारी देख चुके भाई ने बूत बनी मीरा को झकझोरा। अवरुद्ध कंठ से सिर्फ यही कहा — देखो ज़िन्दगी अपने हाथों में नहीं है। पंद्रह बीस मिनट देता हूँ तुम दोनों को, जितना रोना है रो लो, फिर आंसुओं को बहने की इज़ाज़त नहीं होगी। पहले कर्तव्य फिर शोक। यह राज कि मेघेन नहीं रहे सिर्फ हम तीन तक ही रहे। रीति रिवाजो और नेकचारों के इस समाज में शादी के सारे नेकचार वैसे ही हों जैसे मेघेन के रहते होते… इस शादी के क़र्ज़ ने पहले ही जान ले ली है अब यदि इसे भी अंजाम न दिया गया तो दोनों बेटियों के भविष्य क्या बच पाएंगे? इस शादी को यदि टाल दिया जाए तो कौन जाने फिर सुहानी उस घर में जा भी पाए या अपशकुनी कहकर यह शादी ही तोड़ दी जाए ... बोलते बोलते अपनी बाहर निकली आँखों को पल भर के लिए मूँद एक गहरी निश्वास छोड़ी उन्होंने।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लाश को वहीँ एम्स के मुर्दाघर में जमा कर वे तीनों कलेजे पर पत्थर धर घर लौट आए।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">****</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">नदी की धारा रुके तो जीवन रुके। बाहर जयजयकार भीतर हाहाकार! मीरा की चेतना को जैसे काठ मार गया है। शादी भी अजब चौपाल है, कहीं २१वीं सदी इठला रही है तो कहीं २०वीं सदी अंगड़ाई ले रही है। शाम के लिए ओर्केस्ट्रा की तैयारी चल रही है तो अभी गणेश पूजन की। फूफाजी बाई सुखिया पर झल्ला रहे हैं कि खाली घड़ा लेकर वह सामने क्यों आ गयी, अपशकुन होता है। पान चबाती रानी बुआ अलग फनफना रही है — कुंवरसा की घोड़ी के लिए चने की दाल भिगोनी है, नहीं मिल रहा है दाल का डब्बूसा (कटोरदान)। सुगंधित फूलों की वेणी से महकती मालती जीजी को केसर की डिब्बी नहीं मिल रही है। बिखरे बालों को हाथ के जुड़े में समेटती कमला मासी को चाँदी का आरती का थाल चाहिए…तो लीला चाची को आम के अचार की बरनी … सुरभि की अस्सी वर्षीया नानी की कमर में चनक आ गयी है तो खोज जारी है किसी ऐसे की जो पांव से जन्मा हो, जिसकी लात से चनक दूर हो जाएगी। शादी का घर जैसे भिंडी बाजार। इन सब हो हल्ले के बीच पंडित जी गणेश पूजन करवा रहे हैं उससे और वह मन ही मन बुदबुदा रही है — तुम तो सिर्फ एक बार मरे पर कल से जाने कितनी बार मरी हूँ मैं और उठ कर खड़ी हुई हूँ। इतना जानलेवा है झूठ बोलने की कला साधना। लगता है जीवन भी मैं हूँ और मृत्यु भी मैं हूँ। कार्य को सही दिशा में सम्पूर्ण करने का और कौन मार्ग था मेरे पास? भंवर में डूबती नैया को मैं इसी प्रकार बचा सकती थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">******</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">रात कितनी लम्बी हो सकती है, पहली बार हुआ यह अहसास। न ढले न बीते न रीते। जैसे ख़ुद ही रात हो गयी है वह। सुबह होते न होते पूरा घर जाग गया था। आज सगाई का दिन। यूं इन दिनों जेठ की दिल्ली में सुबह बहुत कम सुबह होती थी, दोपहर शेर के खुले जबड़े-सी खुली रहती — दहकती, गरजती, झपटती। सपनों से भरी सुहानी को बादाम का उबटन करना था पर वह कहीं मिल नहीं रहा था। माँ भी नदारद! फोन मिलाया तो स्विच ऑफ! पूरे अड़तालीस मिनट बाद दिखी माँ। मुलायम मुलायम स्वरों में पूछा उसने</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— सुबह सुबह कहां गयी थी मम्मी?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— तुम्हारे पापा से मिलने, काँपी चेहरे की खाल। किसी प्रकार अवरुद्ध कंठ से बाहर धकेला चंद शब्दों को। जीवन पूरी तरह एक नाटक बन गया था। आकाश धूल के बादलों से ढक गया था, अंतस में धुंआ जमा हो रहा था … काश निकाल पाती इस जमा हुए धुंएँ को … अनायास ही सोचने लगी वह।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— मुझे भी मिलना है। मम्मी, मैं आज संगीत शाम के पहले ही मिल आऊंगी पापा से। उसके वाक्य को अधबीच में ही झपट्टा मार कहा बुआ ने,</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— नहीं लली, तुम कैसे जा सकती हो? हल्दी चढ़ने के बाद लली घर से बाहर नहीं निकल सकती। कल फेरे के बाद हम सब चलेंगे उन्हें लाने। कल तो छुट्टी मिल जाएगी उनको….</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— आज नहीं मिल सकती?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— नहीं, अभी बीपी बहुत हाई है। बोलते बोलते वह मुस्कुरायी, बित्ता भर, पर उस मुस्कराहट का जुगाड़ करने में ही चेहरा नीला पड़ गया, नीचे का ओंठ काँपता रहा, निगाहें नीची कर नाखुनों से धरती को कुरेदती रही। आंसुओं को जबरन रोका तो गला भर गया, आँखें मूंदी तो भीतर के पर्दे पर तैरने लगी — गिरते ढहते मेघेन की तस्वीर! समुद्र में डोलती डोंगी-सा हिचकोले लेते मन का राज खुले उसके पहले ही कांपती देह के साथ किसी बहाने वहां से हटकर वह सीधे बाथरूम में पंहुची। मुट्ठियां भींच, गोल गोल ओंठों से गर्म गर्म भाप छोड़, हाथ पैर पटक उसने नल को खुला छोड़ा और ह्रदय में उठे रुलाई के आवेग को किसी प्रकार बाहर निकाला और मुंह पर पानी के छींटे डाल मुंह पोंछती बाहर निकली।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">खंड खंड खंडित मन। रंगीन माहौल में संगीन मन! सोच रही है मीरा — न उन्होंने अपना आप जीया न मैंने। ज़िन्दगी का सबसे बढ़कर शोक यही कि शोक मनाने का भी अवसर न मिले। देख रही है विधाता की इस सृष्टि को गहरी उदासी से — दृश्य वही है दृष्टि बदल गयी है। समय बलवान है वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, उनको गए साढ़े बारह घंटे हो गए पर सबकुछ वैसे ही चलरहा है। एक पवित्र इच्छा — कोई चूक न रहे कर्तव्य पालन में। रह रह कर उठती लहरें — कभी भीतर कभी बाहर! मन करता — इतना रोए इतना रोए कि धरती डूब जाए पर इजाज़त नहीं इसकी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">***</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दुःख के दोराहों पर खड़ी सोच रही है मीरा — पहर बीतने के साथ बदल जाता है दुःख का चेहरा — रात को जुदा, दिन को जुदा। दिन में ख़ुद को लोगों से छिपाना तो रात को ख़ुद से ख़ुद को छिपाना। असहनीय को सहन करना ही ज़िन्दगी है! किसी तपस्वी से गृहस्थन का धर्म भी कम नहीं होता! जीवन और मौत से बड़ा है फ़र्ज़! फ़र्ज़ की डोर से बंधे मन ने वह सब किया जो उससे करने को कहा गया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हर पल का इम्तहान था ज़िन्दगी के ये अढ़ाई दिन जो रस्मों से भरे हुए थे। ठहरकर रोने का न समय था न स्थान। आखिर शादी के घर में कितनी बार जा सकती थी वह बाथरूम, आंसुओं से भरे दिल को हल्का करने। ख़ुद को लोगों की आँखों से बचाने।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आज के दिन की शुरुआत हुई हल्दी की रस्म से।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘आना भोला जी के लाल, हमारे घर हल्दी में</div><div itemprop="articleBody">आकर डमरू बजाना हमारे घर हल्दी में ‘</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गीतवाली जमुना बाई पंचम स्वर में गा रही थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">फिर आयी मेहँदी की रस्म !</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हाजिर थी दो मेहँदी लगाने वालियां। सहमी हुई गोरैया-सी फड़फड़ायी वह। कई बार मना भी किया। सगुन के लिए चिटकी अंगुली पर मेहँदी लगाईं भी पर किसी ने न सुनी उसकी। रिश्तेदारों से भरा घर। छोटी बेटी ने भी ठुमक कर कहा — ममा नहीं लगवाएगी मेहँदी तो हम भी नहीं लगवाएंगे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"> भावहीन जड़ आँखें ऊपर उठी, बिटिया के मासूम चेहरे पर टिकी, भाव उमड़े! आत्मा तक में उतर गया था वह जादुई पल जब पहलीबार गोद में लिया था उसने सुहानी को। वही सुहानी आज ज़िन्दगी की एक नयी शुरुआत करने वाली है। परायी होने जा रही है। कितना अरमान था मेघेन का कि धूम धाम से विदा किया जाय उसे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">फैला दी उसने हथेलियां! निस्पंद, निष्प्राण हथेलियां!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जैसे समर्पण किया हो दुनिया के सामने! भीतर ही भीतर चलता रहा नवकार मंत्र — ॐ नमो अरिहंताणं…ॐ नमो सिद्धाणं। साथ ही परिताप भी — स्वप्न और सुहानी रात अभी ढली न थी पर तुम ढल गए!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मेहँदी वालियों से निपटी तो मेकअप वालियां!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उनको भी अच्छा खासा पैकेज दिया गया था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अबकी रिश्तेदारों ने पकड़ लिया! कर दिया ख़ुद को हवाले दुनिया के रस्मों रिवाज के आगे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हो गया मेकअप! जब दर्पण दिखाया ब्यूटी पार्लर वाली ने तो दर्पण भी दगा कर गया, ख़ुद की सूरत की बजाय दिखने लगी उसे मेघेन की अधमुंदी उदास आँखें। भीतर उमड़ते आवेग को थामने के प्रयास में आँखें बह निकली, मन से आह निकली — कितना अच्छा है कि मरी हुई देह सबको दिख जाती है पर मरा मन नहीं दीखता किसी को। रुलाई को रोकना चाहा तो हिचकियाँ शुरू हो गयी। किसी प्रकार पानी पीने के बहाने वहां से खिसकी। पर जाए तो जाए कहाँ? हर जगह मेहमान। समझदार भाई कान में फुसफुसाया — बस तीस घंटे की मोहलत दे दो। कल विदाई का मुहूर्त भी मैंने जल्दी का निकलवा लिया है, कल शाम नौ बजे फेरे के साथ ही कर देंगे विदाई फिर जितना चाहे रो लेना, अभी क़ाबू रखो ख़ुद पर नहीं तो सब किया कराये पर पानी फिर जाना है। याद रखना — तेल डालने से बुझी हुई बाती आग नहीं पकड़ती, जो जा चुका है उसके लिए शोक स्थगित करो, जो है उसके लिए सोचो, गीत संध्या में एकदम सामान्य रहना, सामान्य ही नहीं बल्कि चेहरे पर ख़ुशी का भाव रहना चाहिए। लोग देखें तो कहें अच्छा दिन!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ज़रा भी शक न होने पाए किसी को। ध्यान रखना, शक की हज़ार आँखें होती हैं। कइयों को बड़ी मुश्किल से ऐम्स जाने से रोका है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बोलते बोलते डब डबा गयी पीड़ा से उफनते भाई की आँखें! दो दुखी मन एक हुए!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">*****</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘किसे पता था, तुझे इस तरह सजाऊंगा, ज़माना देखेगा और मैं न देख पाऊंगा ‘</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सुरमई शाम। समधी जी के भेजे इवेंट मैनेजर का पिलपिला-सा अनुरोध, सूत्रधार था वह — इस कल्चरल प्रोग्राम की जान तो आप दोनों समधन ही हैं। आपकी समधन ने बहू का स्वागत अपने नृत्य से कर दिया है, आप की तरफ से भी तो दामाद का अभिनन्दन होना चाहिए न! कोरियोग्राफर का भी अनुरोध — आंटी, महीने भर से तो आप अभ्यास कर रही हैं, अंकल ठीक हो रहे हैं, सुबह ही मैंने एम्स के डॉक्टर से अंकल के बारे में पूछा था — कल तक तो वे घर भी वापस आ जाएंगे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— हाँ, कल सुबह वे आ जाएंगे, तेज हवा में हिलते पत्ते-सी कांपती वह बुदबुदायी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— ममा, पापा ठीक नहीं हैं क्या? तुम्हारा चेहरा देख कर लगता है। मुझे तो मामा ने बताया था कि पापा को थकावट बहुत आ गयी है इसलिए जान बूझकर एम्स में आराम के लिए रखा गया है कि शादी के घर में ज्यादा तनाव न लें वे। सच, बताइये अम्मा! सुहानी के चेहरे पर चिंता की गाढ़ी लकीरें। द्रवित हुई वह! देखा बेटी की ओर। सगाई की ड्रेस में लाल सेबों से लदे मोहक पेड़-सी दिख रही थी वह! काश देख पाता मेघेन अपनी लाडो को! बस कुछ घंटे और निकल जाए। फेरे हो जायँ फिर जी भर रो लेगी वह! फिर तो ज़िन्दगी भर शोक ही मनाना है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कुछ अबोले पल! बोलने की भीतरी ताकत इकट्ठी की उसने, फिर गिरती आवाज में बोली,</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— पापा ने कहा है मुझे, सुहानी जैसा कहे करना।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— पापा ने? पापा से बात हुई आपकी? फिर मुझसे बात क्यों नहीं करायी? टोहती नजरों से घूरा सुहानी ने।</div><div itemprop="articleBody">बस पल भर के लिए ही हुई बात। डॉक्टर ने अधिक बात करने नहीं दी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— हुर्रे! तो ममा भी नाचेगी। चेहरे पर छाया मीठा मीठा सोना सोना भाव और गहरा गया बिटिया के। बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए भींगे और उदास स्वरों में कहा उसने,</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— तथास्तु!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आज के उत्सव के देवता समधी और जतनों से तराशी प्राण प्यारी बेटी का अनुरोध! कैसे टाले वह? एक चाह बंधन मुक्ति की तो एक चाह बंधन की भी। समुद्र की लहर-सी उठी, जल से निकली मीन-सी तड़पी। सनसनाते एक संदेह ने अलग से सर पर हथोड़ा चलाया — कहीं मेघेन का राज खुल गया तो … पूरी ताकत से इस ‘तो’ को दरकिनार करते हुए अंतरात्मा के दरवाज़े बंद किये, दुःख को पंखुड़ी पंखुड़ी नोचा। ख़ुद को सिद्धार्थ से बुद्ध होते हुए देखा। ख्याल ख्याल में बसे मेघेन के ख्याल को हल्के से परे सरकाया। एक आर्त नजर देह की खोल में लिपटे सजे धजे बाराती और घराती पर डाली। झिलमिल झूमर और जादुई समां। सूख में डूबे हुए सब। देह की खोल से बाहर निकलते मैं को सूखी पत्ती की तरह रस्मों रिवाज़ों की हवाओं के हवाले किया। उस अनुपस्थित को नमन किया जो हर जगह उपस्थित था — माफ़ करना प्रिय, मेरी अंतिम उम्मीद! तुम्हें चिता को समर्पित करने के पहले रंग और नूपुर की दुनिया में शामिल होना पड़ रहा है कि कहीं अंतस के भीतर दबा ढका रहस्य उजागर न हो जाए। कहीं सुहानी को आभास न हो जाए कि पिता को कुछ हो गया है कि कहीं आग्रह ठुकरा देने पर समधी समधन बुरा न मान जाए!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">देखते देखते मीरा जाने कहाँ लुप्त हो गयी और अब जो थी सामने वह एक छाया थी, उस छाया ने लिया एक जोरदार प्रलयकारी घूमर — आली मैं हार गयी! लहर लहर लहरायी देह। शोक और श्रृंगार का मिला जुला घूमर! चप्पे चप्पे में काँपा दर्द पर लिया घूमर — साथ साथ जिए गए प्यार के लिए। भीतर के खालीपन को भरने के लिए। संसार में रहते सांसारिक रहने के लिए, अगली पीढ़ी की बेहतरी के लिए.जीवन के स्वभाविक आनंद के लिए। फिर लिया दूसरा घूमर — माया से सत्य, ज्ञात से अज्ञात की ओर बढ़ती महायात्रा के लिए। अप्रत्याशित आगत के लिए। वैराग्य को साधने के लिए, दुखों के पार जाने के लिए, कुछ हद तक दर्द बहा भी। दम थामे देख रहे थे लोग इस उन्मत्त घूमर को, लगा जैसे अनंत काल से ले रही है वह घूमर जिसे लेते लेते देह से बाहर आ गयी है वह कि तभी लिया उसने तीसरा घूमर — जंजीरों में कैद आत्मा की मुक्ति के लिए। जीवन और मृत्यु के पार के रहस्य को जानने के लिए पर तीसरा घूमर लिया कि जैसे तूफ़ान आ गया हो सागर में। लेते लेते जाने कैसा तो अँधियारा छाया पलकों पर कि दुखों के पार जाते जाते वह उसी में धंस गयी और वहीँ गिर पड़ी, स्टेज पर ही।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"> सृष्टि और समय से परे थे वे पल जो सनातन बन रहे थे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"> दम साधे लोग नृत्य देखते रहे। ऐसा प्रलयकारी घूमर तो पहले कभी न देखा था। नील बटे सन्नाटे के कुछ निस्तब्ध पल गुजरने पर लोग जैसे समाधी से जागे, आसमान से कोई तारा टूटा। लोगों को समझ आया कि मीरा अचेत पड़ी थी और घूमर दुर्घटना में तब्दील हो चुका था।</div></div><div style="text-align: right;">
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<div>बीते दिनों बाबा, गुलज़ार साहब हमारे शहर फ़ैज़ाबाद गए थे. बड़ा मन था वहाँ उस समय होने का, जा नहीं सका लेकिन, शहर की उभरती लेखिका कंचन जायसवाल ने अपने (प्रस्तुत) संस्मरण के ज़रिये कुछ-कुछ वहाँ पहुँचा दिया. आप भी हो आइये ... सं० <span><a name='more'></a></span></div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhB0nFgrTrKMDwH7QgBJg3bIMMXpK9aIakNES_2ubxz4AbBqxUQy2VJvppXqCbK1jZzNYcKnH5BaCQHaIvCmfDRqB6aTf_0gUE_K1Oec_wSqQv0THpbWnK1MEib25q1E-WudLncWojRVkYT-JeBqbgAhhZH3PTgNJzmR5KzOy6iI-w47nAv-HSOsS6Yrbub/s903/_Gulzar%20in%20Faizabad.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhB0nFgrTrKMDwH7QgBJg3bIMMXpK9aIakNES_2ubxz4AbBqxUQy2VJvppXqCbK1jZzNYcKnH5BaCQHaIvCmfDRqB6aTf_0gUE_K1Oec_wSqQv0THpbWnK1MEib25q1E-WudLncWojRVkYT-JeBqbgAhhZH3PTgNJzmR5KzOy6iI-w47nAv-HSOsS6Yrbub/s16000/_Gulzar%20in%20Faizabad.jpg" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h1 itemprop="headline">गुलज़ार फ़ैज़ाबाद </h1>
<h3>कंचन जायसवाल </h3><h2 itemprop="alternativeHeadline"><div style="font-size: medium; font-weight: 400;"></div><div 11px="" font-size:="" style="font-size: medium; font-weight: 400;"><span style="font-size: 11px;">पेशे से अध्यापक. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भूमिका 1857 से 1947 तक विषय पर पी.एच.डी. स्त्रियां और सपने कविता संग्रह प्रकाशित. कथादेश,रेवान्त, आजकल पत्रिकाओं में कविता, कहानी प्रकाशित. मो. न. 7905309214 </span></div></h2>
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<div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">रास्ते कब गर्द हो जाते हैं और मंज़िल सराब</div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">हर मुसाफ़िर पर तिलिस्म-ए-रहगुज़र खुलता नहीं</div><div itemprop="articleBody">~ सलीम कौसर</div><div><br /></div></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">शहर फ़ैज़ाबाद में गुलज़ार जब एक रोज़ जब आते हैं तो धूल-मिट्टी, तोड़-फोड़ से गुज़र रहे शहर को, एक पल के लिए ही सही, थोड़ा क़रार आ जाता है। गुलज़ार अज़ीम फनकार, शायर, उम्दा इंसान, दिलकश आवाज़ के मालिक। वे जब सफेद लिबास में, अपने पुर-ख़ुलूस अंदाज़ में महफिल में आते हैं तो इक बारीक-सी खुशी वहाँ मौजूद हर आम-ओ-खास में पसर जाती है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उनके इस्तिक़बाल में जो महफिल सजाई गयी है, उसमें वे ख़ुद के ख़ास होने को दरकिनार करते हैं और मिलने के ख्वाहिश मंद लोगों के बीच वो खुद आ बैठते हैं। ऐसे हैं गुलज़ार मानो खुशबू, मानो ख़्वाब अपने समय का बेजोड़ नगीना अपनी चमक को, अपने चाहने वालों के रौशन चेहरों में खोजता है और बेशुमार पाता भी है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गुलज़ार कहते भी हैं तमाम पुरस्कारो, इनामों से मुझे वो खुशी नहीं मिलती जो मुझे अपने चाहने वालों के बीच आकर मिलती है। उनका बचपन उनकी रचनात्कता का एक ज़रूरी हिस्सा हैं। फिर जब नर्सरी में पढ़ने वाली बच्ची बोस्की का पंचतंत्र खरीदने के लिए मचल उठती है और पापा से उनका पर्स निकलवा कर किताब खरीदवाती है तो ऐसा लगता है मानो वह गुलज़ार के लिखे को पहले से जानती है और उस किताब में उसे अपने बचपन को कोई नायाब खजाना मिल गया हो। बच्चों के प्यारे गुलज़ार ऐसे ही हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><b><br /></b></div><div itemprop="articleBody"><b>आज बच्चें अपने बीच गुलज़ार को पाकर अभिभूत हैं।</b></div><div itemprop="articleBody"><b><br /></b></div><div itemprop="articleBody">वो उनके लिखे गानों को अपनी आवाज दे रहे हैं – 'तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी हैरान हूँ मैं, हैरान हूँ / तेरे मासूम सवालों से परेशान हूँ, मैं परेशान हूँ...' बच्चे खुश हैं, यह यादगार पल है, अपने फेवरेट 'मोगली' वाले गुलज़ार को अपने बीच पाकर। गुलज़ार भी बाँहे फैलाकर उन्हें अपने पास समेट लेते हैं। ये पल शायद उनके लिए भी यादगार है। वो ढ़ेर सारा निश्छल प्यार, छलछलाती खुशी अपनी बांहो में समेट लेना चाहते हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मोहित कटारिया से अपनी बातचीत में गुलज़ार बताते चलते हैं कि ‘जंगल-जंगल बात चली है पता चला है’ गाने में चड्डी शब्द कितना मौजूं है क्योंकि जंगल में रह रहे उस बच्चे की देह पर केवल चड़ढी है और यह शब्द उस माहौल के औचित्य को निखारता है। </div><div itemprop="articleBody">इसी प्रकार ‘लकड़ी की काठी / काठी का घोड़ा’ गाने में घोड़े की जो पदचाप है टक बक-टक बक वह बंगाली रचना आबोल-ताबोल से प्रेरित है मगर गुलज़ार इस शब्द को रिक्रिएट करते हैं। घोड़े की पदचाप आते हुए टक बक-टक बक से जाते हुए बक टक, बक-टक में पुनरचित कर देते हैं। अनोखापन, भाषा का टटकापन गुलज़ार के रचना संसार की खासियत है। गुलज़ार बताते हैं कि भावों और भाषा की यह विविधता उनके सघन पढ़त का नतीजा है। अनुभवों की विशालता उनके भाव-संप्रेषण को मुखर और विविधवर्णी बनाती है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं जब <b>यशवंत व्यास</b> से मुखातिब हो कहती हूँ बहुत दिलचस्प रही आपकी और गुलज़ार साहब की बातचीत। वो झट से कहते हैं - <b>वो शायर ही ऐसा है। अगर मैं सिर्फ पत्ता कहूँ तो वे पूरे पेड़ की रचना कर देंगे।</b> व्यास जी बार-बार गुलज़ार से इसरार कहते हैं कि कैसे आपके भावों में इतने मौजूं किस्म के शब्द चले आते हैं गुलज़ार बताते हैं मान लो किसी बीच पर हजारों लोग डूबते हुए सूरज का नजारा कर रहे हों और फिर हजारों लोग इस नजारे को अपने-अपने तरीके से बयान करेंगे। </div><div itemprop="articleBody">कोई कहेगा कि </div><div itemprop="articleBody">डूबते हुए सूरज की लालिमा लाल चुनरी सी फैली हुई है, </div><div itemprop="articleBody">कोई इसे गुलाल कहकर अपनी हथेलिये में ले अपनी माशूका के गाल लाल कर देगा और कोई कहेगा कि </div><div itemprop="articleBody">कैसे पानी में लाल गोला डूब गया और लाल आग का सागर पल भर को बन गया। </div><div itemprop="articleBody">सब के अपने-अपने तजुर्बे हैं और इन तजूर्बो को वजन - जीवन के तमाम पड़ावों से.</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><b><br /></b></div><div itemprop="articleBody"><b>गुज़र कर ही मिलता है</b></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जीवन में अनुशासन और अपने काम से बेशुमार प्यार को गुलज़ार ज़रूरी मानते हैं। व्यास जी जब हंसते हुए पूछते हैं कि ‘बीड़ी जलइले जिगर से पिया’ जैसा गाना भी आपने लिखा। ये कैसे संभव हुआ। गुलज़ार बताते हैं कि गाने के बोल में बीड़ी की जगह सिगार जलइले या सिगेरेट जलइले कर देता तो यह बड़ा ही अटपटा लगता है। बीड़ी जलइले ही सटीक लगा इसलिए यह संभव हुआ।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गुलज़ार सचेत, रचनारत तमाम स्त्रियों को अपने शानदार अंदाज़ में कहते हैं कि ‘कितनी हांडियाँ डबल रही हैं, जरा देखो तो।‘ अपनी तमाम फिल्मों में गुलज़ार ने स्त्री संसार की जटिलता, उनके संघर्ष उनके सवालों और उनकी आजादी को विषय बनाया है। ‘लेकिन’, ‘मीरा’, ‘आंधी’, ‘ख़ामोशी’, ‘इजाज़त’, ‘रूदाली’ बहुत लंबी लिस्ट है, स्त्री जीवन को दर्शाती उनकी फिल्मों की।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गुलज़ार एक पूरा जीवन हैं, पूरा दर्शन है। गुलज़ार मानते हैं कि इंसान का अच्छा होना सबसे ज़रूरी है। ख़राब शायर हो तो चल जाएगा, मगर इंसान ख़राब नहीं होना चाहिए। अगर वो इंसान ख़राब होगा तो यकीनन शायर तो वो बहुत ख़राब होगा। यही सादगी गुलज़ार को गुलज़ार बनाती है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दूर से सफेद एक छाया सी हिलती, उन्हें दूर से देखना मानों हवा में फैली खुशबू को छूना। सफेद कागज सी तिरती नाव का देर तक हिलना-डुलना बस .............।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘हमने देखी है इन आँखों की महकती खूशबू’ इस खूबसूरत गाने की तरह ही गुलज़ार भी एक महक की तरह इसी आबोहवा में रह जाने वाले हैं। उनके लिखे को सुनकर, गुनगुनाकर इस पल को जिसमें गुलज़ार हैं, उनकी सादगी है उनके वजूद की लकीर है उसे जिए जाना है बस। और जीवन है भी क्या, गुलज़ार के ही शब्दों में, ‘नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा, मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे...’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आपके बाद हर घड़ी हमने</div><div itemprop="articleBody">आप के साथ ही गुज़ारी है।</div></div><div style="text-align: right;">(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br /></div>
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-17767258726565773362023-12-27T21:10:00.005+05:302023-12-27T21:23:28.783+05:30महाजनी सभ्यता का तिलस्म और प्रेमचंद ~ नन्द चतुर्वेदी | Mahajani Sabhyata... Nand Chaturvedi on Premchand<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;">
<tbody><tr><td style="text-align: center;">
<img border="0" height="226" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiXa_rzA3TSH__H39MTqG03Qrv9znihRBhdN7eBJGhnmqJJYaEthsezutYdGmZecLa2D-FxeVskR13vzrCkXSkz-q-7Lro0nlpcFF77FrqAdMnprgRl5pxeEgUzmcnhQIKbdRy-R6dHHT_nbPOLr7KJnKm_57t7m2vBseI6AftuW1m2VGIhNyjDADxoPjgf/w400-h226/Mahajani%20Sabhyata...%20Nand%20Chaturvedi%20on%20Premchand.jpg" width="400" />
</td>
</tr>
<tr>
<td class="tr-caption" style="text-align: center;">Mahajani Sabhyata... Nand Chaturvedi on Premchand</td></tr></tbody>
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<h1 itemprop="headline">नैतिक प्रतिबद्धता होने के कारण ही प्रेमचंद का विरोध स्तर उन सब अविश्वसनीय से अलग होता है, जो सिर्फ बातूनी है और ऐश्वर्यमयी जिंदगी जीते हैं। </h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">
~ नन्द चतुर्वेदी</h2>
<div 11px="" font-size:=""><span style="color: #666666;"><span itemprop="description">नन्द चतुर्वेदी </span>(1923–2014) की जन्म शताब्दी मना रहे हम हिन्दीवालों को प्रो पल्लव ने नन्द बाबू की किताब <a href="https://ia804703.us.archive.org/13/items/in.ernet.dli.2015.401069/2015.401069.Shabda--sansar_text.pdf" target="_blank">शब्द संसार की यायावरी</a> से मुंशी प्रेमचंद पर लिखा यह आलेख पढ़ा कर बड़ा नेक काम किया है. ~ सं० <span><a name='more'></a></span></span></div><div 11px="" font-size:=""><span itemprop="description"><br /></span></div><h2><span itemprop="description">महाजनी सभ्यता का तिलस्म और प्रेमचंद</span></h2>
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<div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">प्रेमचंद के साहित्य में किसानों और मजदूरों के शोषण का हादसा सब कही विद्यमान है, किन्तु ‘गोदान’ की समाप्ति और ‘मंगलसूत्र’ के प्रारम्भ के साथ वे महाजनी सभ्यता के आतंककारी विस्तार से परिचित हो गए थे। इसलिए ‘महाजनी सभ्यता’ निबंध में पूंजीवाद के जिस विकराल रूप का वर्णन है, उसे ही ‘मंगलसूत्र’ के देवकुमार एक तर्क-संगति देते हुए कहते हैं कि </div><blockquote><div itemprop="articleBody">‘‘जिस राष्ट्र में तीन-चौथाई आदमी भूखों मरते हों, वहां किसी एक को बहुत-सा धन कमाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है, चाहे इसकी उसमें सामर्थ्य हो।’’ </div></blockquote><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सामर्थ्यवाली बात कह कर प्रेमचंद उन सारे पूंजीवादी-दार्शनिकों का तर्क-व्यामोह भंग कर देते हैं, जिसका उन्हें बहुत गर्व है और जिसे वे अकाट्य समझते हैं। ‘वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा’ के जिस तर्क को वे मनुष्य-जिजीविषा का हिस्सा बनाते हैं, वह बुनियादी रूप से लालची और ईर्ष्यालु कर्म की हिस्सेदारी है। इसीलिए प्रेमचंद ने एक दूसरे आलेख ‘नया जमाना-पुराना जमाना’ में पूंजीवादी समाज पर टिप्पणी करतेहुए लिखा-</div><blockquote><div itemprop="articleBody">‘‘यह सभ्यता शहद और दूध की नदी अपने कब्जे में रखना चाहती है और किसी दूसरे को एक घूंट भी नहीं देना चाहती। वह खुद आराम से अपना पेट भरेगी, चाहे दुनिया भूखी मरे।’’</div></blockquote><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कंचन-लोलुप पूंजीवादी सभ्यता के सम्बन्ध में लिखते बोलते हुए प्रेमचंद में एक बौद्धिक प्रखरता है- ज्यादा अच्छा हो, यदि उसे नैतिक प्रतिबद्धता कहें। नैतिक प्रतिबद्धता होने के कारण ही प्रेमचंद का विरोध स्तर उन सब अविश्वसनीय से अलग होता है, जो सिर्फ बातूनी है और ऐश्वर्यमयी जिंदगी जीते हैं। यही प्रतिबद्धता उन्हें उन सारे धर्माचायों से भी अलग करती है, जिनका नैतिकता बोध मनुष्य की जिंदगी के बिलकुल पास खड़े सवालों और भयावह अत्याचारों से कतराता हुआ निकल जाता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं यह जोर देकर कहना चाहता हूं कि <b>प्रेमचंद ‘गरीबी के अध्यात्म’ से जुड़े थे</b>। हजारों जगह और सैकड़ों प्रसंगों में प्रेमचंद ‘कांचन मुक्ति’ के अध्यात्म को दुहराते है। वे लिखते हैं - </div><blockquote><div itemprop="articleBody">’’मैं कल्पना ही नहीं कर सकता कि कोई बड़ा आदमी बड़ा धनपति हो। जैसे ही मैं किसी आदमी को बहुत अमीर देखता हूं, उसकी तमाम कला और ज्ञान की बात का नशा मेरे ऊपर से उतर जाता है। मैं उसे कुछ इस तरह देखने लगता हूं कि उसने इस वर्तमान समाज-व्यवस्था के आगे घुटने टेक दिए हैं। जो अमीरों द्वारा गरीबों के शोषण पर आधारित है। लिहाजा कोई नाम, जो लक्ष्मी से असंपृक्त नहीं है, मुझे आकर्षित नहीं करता... मैं खुश हूं कि प्रकृति और भाग्य ने मेरी सहायता की है और मुझे गरीबों के साथ डाल दिया हैं इससे मुझे आध्यात्मिक शान्ति मिलती है।’’</div></blockquote><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">प्रेमचंद जब गरीबों के साथ होते हैं, तब वे किसी रूमानी अंदाज में नहीं होते, उसे शोभामय नहीं बनाते और न उसका स्तवन करते हैं; बल्कि, उसकी सारी शोभा-यात्रा के छल को खोलते हैं और एक अदृश्य, गोपन हिंसा की धूर्तता को जाहिर करते है; उसके लंपट स्वभाव को समझाते हैं, जिससे आदमी डरे नहीं और अमीरों की हैसियत का कारण समझे। उसे असली रूप में पहचाने। ‘संपदा का मेस्मेरिज्म’ विनष्ट करने का काम करते हुए उन्होंने ‘महाजनी सभ्यता’ आलेख में एक स्थान पर लिखा है-</div><blockquote><div itemprop="articleBody">’’इस महाजनी सभ्यता के सारे कामों की अरज पैसा होता है... इस दृष्टि से मानो आज महाजनों का ही राज्य है। मनुष्य समाज दो भागों में बंट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपनेवालों का है। और, बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का है, जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े संप्रदाय को अपने वश में किए हुए है। उन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं जरा भी रियायत नहीं। उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाये, खून गिराए और एक दिन चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाए....’’</div></blockquote><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यह लिखना आज नितांत गैर'जरूरी है कि पूंजीवाद का आखिरी लक्ष्य क्या है? सब जानते हैं कि मनुष्य में जो कुछ श्रेष्ठ है, जो उसका सत्य है, वह उसे निचोड़ लेता है। सारे मानवीय रिश्ते व्यर्थ होते प्रतीत होते हैं। मानवीय संवेदनाओं को इस तरह बेरहमी से काट कर पूंजीवाद समाज और व्यक्ति के बीच शिकार और शिकारी का रिश्ता कायम करता है। शिकारी के मन में शिकार के प्रति कोई भाव, कोई संवेदना नहीं होनी चाहिए। इसके चलते ‘‘पूज्य पिताजी भी पितृभक्त बेटे के टहलुए बन जाते हैं। मां अपने सपूत की टहलुईं, भाई भी भाई के घर आए तो मेहमान है... इस सभ्यता की आत्मा है व्यक्तिवाद।’’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अंत तक प्रेमचंद उस तिलस्म को तोड़ना चाहते हैं, जो ईश्वरीय विधान के नाम से पूरे देश में पैर फैला कर निश्चित पसरा पड़ा है। जो अमीर हो गया है, ‘ईर्ष्यां’ जोर-जबरदस्ती, बेईमानी, झूठ, मिथ्या, अभियोग-आरोप, वेश्यावृत्ति, व्यभिचार, चोर-डाके, बरास्ते उन सब क्रूर कर्मों के जो वर्जित है, उन्हें रहस्यमयता का साथ स्वीकार करता है ‘ईश्वरेच्छा’ की मुहर लगाता है। इस मायावी ईश्वरेच्छा के विरुद्ध प्रेमचंद अनवरत संघर्ष करते हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">प्रेमचंद मानने लगे थे कि ‘महाजनी सभ्यता’ के खिलाफ ‘नयी सभ्यता’ का जिहाद शुरू हो गया है। ‘कांचन मुक्ति’ का जिहाद शुरू हो गया है। ‘कांचन मुक्ति’ का जिहाद मामूली नहीं है। फिर भी, वे एक महान आशावादी की तरह कहते हैं-</div><div itemprop="articleBody"><blockquote><b>इस पैसा-पूजा को मिटा दीजिए, सारी बुराइयां अपने-आप मिट जाएंगी।</b></blockquote></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">व्यक्ति-संपदा के संबंध में उग्र विचार रखने वाले प्रेमचंद उग्रवादी होते नजर नहीं आते। एक वयस्क समझदार, सहनशील तर्क-प्रिय व्यक्ति की मुद्रा अख्तियार किए रहते हैं। एक आत्मीय विपक्ष की स्थिति में असंपत्तिवाद का स्तवन करते हैं। संपत्तिवानों को ‘आत्म-निरीक्षण’ करने का ख्याल आ सकता है और प्रेमचंद शायद रहे हों कि इस तरह वे लोक-कल्याण के लिए ‘धन-संचय’ से विरत हो जाएं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘कंचन मुक्त’ होने की मानवीय दलीलों से प्रेमचंद का साहित्य ओत-प्रोत है। किन्तु एक अमानवीय, हिंसक, निष्करुण, विभाजित, वर्गों में, श्रेणियों में बंटा संसार आज कहीं अधिक फैल गया है। गरीबी के अध्यात्म और उसकी आवश्यकता का प्रतिपादन करने वाले मन से लक्ष्मी के जादुई तंत्र की गिरफ्त में है। ‘कांचन मुक्ति’ का दर्शन और विज्ञान फैलाने के लिए अब बहुत कम प्रेमचंद नजर आते हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: right;">(नन्द चतुर्वेदी की पुस्तक शब्द संसार की यायावरी से साभार )</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: right;">यह नन्द चतुर्वेदी का जन्म शताब्दी वर्ष है। </div></div>
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<div>दामिनी यादव की इन तीन कविताओं में से पहली पर मेरी प्रतिक्रिया — लिव-इन के नाम क़त्ल होती लड़कियों के नाम... पढ़ी। सारे मर्मों को कोंच गई। दामिनी, बहुत बहुत गहरी और समाज द्वारा नवनिर्मित पापों को सामने रखती हुई कविता है, ये बात और है कि आदमी को पाप हमेशा से सुहाते, फुसलाते, बुलाते रहे हैं। ~ सं० <span><a name='more'></a></span></div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijfEzmk1JUIKXihT88WQQdkJzsctyBQ8pga_Pdu3qP3QTbU9U15gZQ6BOIxm8JNvRbF4Hb18ydoag-NhL7P26Bw3V3unNTlFSzukEW-VhMatryqzjr8b2sdznwVmv4wDx_-dXj213C4r03thpomVW7OANMk-A1eJb8YI5B3k2MFKw8Jr6X1j3V_LXE5H4U/s903/live-in-relationship-damini-yadav%20(1).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" 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दिमाग़ धड़कता हो</div><div itemprop="articleBody">बनना उस दौर का खिलौना और खिलवाड़, चलेगा क्या?</div><div itemprop="articleBody">नाम भी मत पूछना, काम भी मत बताना</div><div itemprop="articleBody">अपना काम निपटते ही ख़ामोशी से चले जाना, चलेगा क्या?</div><div itemprop="articleBody">जिस एहसास से कभी न जुड़ना हो कोई शब्द</div><div itemprop="articleBody">उस एहसास के सन्नाटे में ख़ामोशी से पसर जाना, चलेगा क्या?</div><div itemprop="articleBody">जब आऊं मैं तो निचोड़ लेना पोर-पोर, पर सीने से मत लगाना</div><div itemprop="articleBody">लगे बिखरने वाली हूं तो झटके से हट जाना, चलेगा क्या?</div><div itemprop="articleBody">तुम्हारे हाथ शरीर की तह तक जा सकते होंगे, मन तक नहीं</div><div itemprop="articleBody">मन तक राह मिले तो सरे-राह छोड़ जाना, चलेगा क्या?</div><div itemprop="articleBody">ज़्यादा बातें करेंगे तो कुछ जान भी जाएंगे,</div><div itemprop="articleBody">सीखना जानकर भी अंजान बनने का दुनियावी हुनर, चलेगा क्या?</div><div itemprop="articleBody">मैं ख़ामोशी से पड़ी रहूं, तुम ख़ामोशी से चले जाना</div><div itemprop="articleBody">आंखों ही नहीं, याद तक से ओझल हो जाना, चलेगा क्या?</div><div itemprop="articleBody">कुछ देर को ही तो फ़र्क ख़त्म होगा इंसान और खिलौनों का</div><div itemprop="articleBody">इंसानी जज़्बात का खिलवाड़ बन जाना, चलेगा क्या?</div><div itemprop="articleBody">मन जोड़ोगे तो बैकवर्ड कहलाओगे,</div><div itemprop="articleBody">बनना प्रैक्टिकल, स्मार्ट और ट्रेंडी, चलेगा क्या?</div><div itemprop="articleBody">बस ग़लती से भी न चूमना मेरे माथे को पूरे हो जाने के बाद</div><div itemprop="articleBody">भूख के सोने पे मैं जाग गई तो न जाऊंगी, न जाने दूंगी, </div><div itemprop="articleBody">नहीं चलेगा न...</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><h3><b>खिड़कियां और पर्दे</b></h3><div itemprop="articleBody">खिड़कियों पर गिरे पर्दे से हम एक दुनिया छिपा लेते हैं</div><div itemprop="articleBody">खिड़कियों पर गिरे पर्दे से हम एक अलग दुनिया बना लेते हैं</div><div itemprop="articleBody">खिड़कियों पर गिरे पर्दे से हम समेट लेते हैं एक नज़रिया</div><div itemprop="articleBody">खिड़कियों पर गिरे पर्दे से हम एक नया नज़ारा बना लेते हैं</div><div itemprop="articleBody">खिड़कियों पर गिरे पर्दे छटपटाते हैं आज़ाद उड़ान भरने को</div><div itemprop="articleBody">खिड़कियों पर गिरे पर्दों को हम सिमटना सिखा देते हैं</div><div itemprop="articleBody">खिड़कियों पर गिरे पर्दे कितने बेबसी से बंध जाते हैं</div><div itemprop="articleBody">खिड़कियों पर गिरे पर्दे निगाहों के पहरेदार बन जाते हैं</div><div itemprop="articleBody">खिड़कियों पर गिरे पर्दे सच छिपाना जानते हैं</div><div itemprop="articleBody">खिड़कियों पर गिरे पर्दे झूठ बनाना जानते हैं</div><div itemprop="articleBody">खिड़कियों पर गिरे पर्दे कब आंखों पर गिर जाते हैं</div><div itemprop="articleBody">ये हम एक-दूसरे से बिछुड़ने पर ही समझ पाते हैं...</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><h3><b>वफ़ाओं के कुचले सिले</b></h3><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">कुचली हुई सिगरेट का भी एहसास जुदा होता है</div><div itemprop="articleBody">लबों से कदमों तक का सफ़र बदा होता है,</div><div itemprop="articleBody">लोग महंगी कीमत चुका, अदा से उंगलियों में थाम लेते हैं </div><div itemprop="articleBody">फ़िक्र के लम्हों को धुएं में उड़ा देते हैं,</div><div itemprop="articleBody">शान से चूमते हैं सुलगते जिस्म को,</div><div itemprop="articleBody">सारी मुहब्बत आंखों से जता देते हैं,</div><div itemprop="articleBody">फिर हर कश उन्हें कायनात लगता है</div><div itemprop="articleBody">धुएं का हर छल्ला जज़्बों का बयां लगता है</div><div itemprop="articleBody">आख़िरी कश तक चिंगारी को हवा देते हैं</div><div itemprop="articleBody">यही है ज़िंदगी, यही बात बारहां कहते हैं</div><div itemprop="articleBody">आख़िरी कश इस मुहब्बत की मौत होता है</div><div itemprop="articleBody">शौक को शोक में तब्दील होना होता है</div><div itemprop="articleBody">फिर फेंक उसे कदमों तले कुचल देते हैं</div><div itemprop="articleBody">लोग मुहब्बत की वफ़ाओं का ऐसे सिला देते हैं</div><div itemprop="articleBody">होंठ से कदमों तलक का सफ़र ये बताता है,</div><div itemprop="articleBody">इंसान चंद कश का ही मेहमां बनाया जाता है</div><div itemprop="articleBody">आज तुम किसी होंठों तले हो तो गुरूर मत करना</div><div itemprop="articleBody">कौन जाने वक्त किस करवट बदल जाता है। </div></div></div></div></dic></div></div>
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-73253918028873095672023-11-29T13:54:00.004+05:302023-11-29T17:34:21.795+05:30अथ कथा पलटू उर्फ़ पलट बिहारी की ~ प्रभात रंजन | किस्सा/कहानी/उपन्यास (अंश)<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>पहली ख़बर यह है कि प्रभात भाई ने उपन्यास पूरा कर लिया है। दूसरी यह कि उसका यह दिलचस्प अंश आप पाठकों के लिए, मेरे निवेदन पर उन्होंने मुहय्या किया है। प्रभात रंजन जी को बधाई। अब आप आनंद लीजिए ~ सं०<span><a name='more'></a></span></div><div><br /></div><div style="text-align: center;"> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZrpB4VvWvjDtO_sxYJ8mRrHO5_n8sTIXSFZ6lF1Y2Vc9PqNdSQJ1veLQM55EPy6asxpVVGxN3nIxy9g94yJvaM9KRvGEy20vNe9STvESevhD7nrwXvJPv4e5O8-jtJ0KdwzgWnSxFmVDYEcZL1Cm7Zjivz1O1OpRUiaaWkBgbsSeJRryWtTAVlYxfFKFH/s903/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%A4%20%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%A8%20%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BE%20%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80%20%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B8%20(%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%B6).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZrpB4VvWvjDtO_sxYJ8mRrHO5_n8sTIXSFZ6lF1Y2Vc9PqNdSQJ1veLQM55EPy6asxpVVGxN3nIxy9g94yJvaM9KRvGEy20vNe9STvESevhD7nrwXvJPv4e5O8-jtJ0KdwzgWnSxFmVDYEcZL1Cm7Zjivz1O1OpRUiaaWkBgbsSeJRryWtTAVlYxfFKFH/s16000/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%A4%20%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%A8%20%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BE%20%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80%20%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B8%20(%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%B6).jpg" /></a></div><br /></div><div><br /></div>
<h1>
अथ कथा पलटू उर्फ़ पलट बिहारी की</h1>
<h2><span itemprop="description">~ प्रभात रंजन</span></h2>
<div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">सीतामढ़ी में गुदरी बाजार से पश्चिम की तरफ़ एक रास्ता जाता है। उस रास्ते पर दो मील चलने के बाद पहले बाएँ और फिर दाएँ मुड़ने के बाद बिसरलपुर गाँव है। छोटा-सा गाँव हैं। मिली जुली आबादी। मुश्किल से 70-80 घर होंगे। पश्चिम की तरफ़ कम से कम बीस घर मुसलमानों के हैं, एक मस्जिद भी है। उनका मतदान बूथ भी अलग है और बाकी गाँव वाले उनको अपने गाँव का नहीं गिनते हैं। उधर वे भी मस्जिद के उधर के हिस्से के गाँव में कम ही आते-जाते हैं। इसी तरह से शांति-सद्भाव से वे न जाने कितने बरसों से रहते आ रहे हैं। </div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गाँव में ऐसा कुछ नहीं है कि जिसके कारण उसको याद किया जाए। लेकिन इधर पिछले 20-25 साल से गाँव की ख्याति बढ़ती जा रही है। वहाँ बाबा पलटबिहारी का स्थान है। बाबा पलटबिहारी को लेकर गाँव में दो तरह के मत वाले लोग हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वैसे दिल्ली-पंजाब के ट्रेन का रास्ता देख लेने के बाद गाँव में रह ही कितने लोग गए हैं। लेकिन कुछ बूढ़-पुरनिया हैं जिनसे बाबा के स्थान के बारे में पता चलता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक मत के मानने वाले यह बताते हैं कि यह बहुत पुराना स्थान है। करीब सौ साल पहले अयोध्या से जानकी किरतनिए यहाँ आए। जानकी नवमी के उपलक्ष्य में कीर्तन करते-करते यहाँ की आबोहवा में वे इतने रम गए कि यहाँ से वापस जाने का उनका मन ही नहीं कर रहा था। उन लोगों ने अपना गाँव बसाया जानकी स्थान से पांच कोस पश्चिम में जंगल को साफ़ करके। आज तो हर जगह जंगल साफ़ है और आदमी का वास दिखाई देता है लेकिन जब अयोध्या के कीर्तनियों ने यह गाँव बसाया था तब एक कोस जंगल पार करके बिसरलपुर जाना पड़ता था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गाँव का मूल नाम क्या था यह तो अब किसी को याद नहीं है। लिखित में कुछ नहीं मिलता। लेकिन यही नाम चल पड़ा है। बिसरलपुर शायद इसलिए क्योंकि वह गाँव आसपास के गाँवों से इतना हटकर था कि किसी को उसके बारे में याद ही नहीं रहता था। लोगों को यह याद करना पड़ता था कि एक गाँव जंगल पार करके भी आता है। उसी गाँव में जन्म हुआ था पलटू का। बात देश में झंडे के रंग के बदलने के पहले की है। उस साल से भी कई साल पहले की जब अंग्रेज़ी पलटन ने शहर में मार्च किया था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">स्वतंत्रता सेनानी राजा चौधरी बरसों बाद तक सुनाते रहे— ‘शहर में बस एक ही आवाज़ सुनाई दे रही थी— कड़ाम! कड़ाम! कड़ाम! कड़ाम! फ़ौजी बूटों की आवाज़ से शहर जैसे काँप रहा था। अंग्रेज़ी सेना के फ़ौजी तो एक दिन मार्च करके चले गए लेकिन शहर में लोग कई दिनों तक सहमे-दुबके रहे। सैकड़ों घरों के दरवाज़े कई दिन तक नहीं खुले थे। न जाने किसने बनाया किसने पहले गाया लेकिन एक गीत चल पड़ा था उन दिनों— </div><div itemprop="articleBody"> ‘घर में र ह बाउआ घर में र ह/ बहरा कड़ाम कड़ाम बाजे! </div><div itemprop="articleBody"> घर में र ह बबुनी घर में र ह/ बहरा कड़ाम कड़ाम बाजे’/ </div><div itemprop="articleBody"> मोछ संभारे बाबू गद्दी के बाबाजी</div><div itemprop="articleBody"> कोनो काम आए न डिप्टी न लालाजी</div><div itemprop="articleBody"> छुप के दुबक के परल रह/ बहरा कड़ाम कड़ाम बाजे!’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">शहर में अंग्रेज़ी फ़ौज ने कड़ाम कड़ाम क्यों किया? क्यों लोग घरों ने छिपे रहे? इसकी भी पूरी कहानी थी। जिसको अनेक पीढ़ियों तक राजा बाबू सुनाते रहे। क़िस्सा ही ऐसा है। मैंने सुन रखी थी इसलिए मुझे लगता है कि मुझे याद है। जैसी याद है जितनी याद है सुना देता हूँ— </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बात 1942 के कुछ समय बाद की है। शहर में अंग्रेज़ कलक्टर दौरे पर आया हुआ था। मॉरिस जॉनसन नामक उस कलेक्टर को अपने कारनामों के लिए आज भी याद किया जाता है। चंपारण के जंगलों में नरभक्षी बाघों का उन दिनों बड़ा आतंक था। रात के अंधेरे में बाघ आसपास के गाँवों से मवेशी उठाकर ले जाते, दिशा-मैदान के लिए निकली औरतों को भी उठा ले जाते। किसी को शहर से गाँव लौटने में रात बेरात हो जाती तो घर क्या पूरे गाँव वाले तब तक जगे रहते जब तक कि शहर गया व्यक्ति वापस न आ जाए। शहर से गाँव आने के रास्ते में थोड़ी दूर तक घना जंगल था। गाँव के कई लोगों का कभी पता ही नहीं चला। लोग डरे सहमे रहते। कहते हैं मॉरिस जानसन ने चार नरभक्षी शेरों का शिकार किया था। इस कारण उसको लोग बाघ सरकार कहने लगे थे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कहते हैं कि वही कलेक्टर साहब जब सीतामढ़ी बाज़ार में फिटन से उतरे तो नीचे केले का छिलका पड़ा था। उनका पैर फिसला और वे मुँह के बल गिर पड़े। कहते हैं ग़ुस्से में आकर उन्होंने आसपास के सभी दुकानदारों से सड़क पर झाड़ू लगवा दिया। दुकानदारों के साथ-साथ दुकान में खड़े लोगों को भी सड़क साफ़ करने का आदेश दिया गया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बस इसी बात से बवाल हो गया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दुकान व्यापारियों के थे लेकिन कुछ दुकानों में आसपास के बाबू ज़मींदार भी बैठे थे। उनको भी झाड़ू लगाने का आदेश दिया गया। कहते हैं खबर आग की तरह फैल गई कि बाबू साहब लोग शहर में झाड़ू लगा रहे हैं। बस क्या था गाँवों से लोग उमड़-उमड़ कर आने लगे और सरकारी गाड़ियों, दफ़्तरों पर पत्थर मारने लगे। सरकारी वर्दी में जो दिखा उसी को दौड़ाने लगे। चार दिन तक शहर में साहब लोगों के जान पर आफ़त बनी रही। जो अफ़सर बाघ बहादुर की वीरता की कहानियों की मज़बूत डोर पर सवार होकर उस शहर की जनता पर सवारी करने आया था वह खुद गीदड़ की तरह कहाँ दुबका छिपा रहा कोई नहीं जानता था। उसी की गुहार पर गोरी पलटन आई थी शहर में शांति स्थापित करने। शहर की सड़कों पर एक दिन मार्च किया फ़ौजी जवानों ने और शहर के लोग ऐसे दुबके कि फिर से बाघ बहादुर के क़ब्ज़े में आ गए। सदियों से यहाँ की और न जाने कहाँ की जनता का यही हाल होता रहा है…</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बाद में लोग केले के छिलके को भूल गए, मॉरिस जॉनसन को भूल गए। कहानी यह बनाई सुनाई जाने लगी कि 9 अगस्त को भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा हुई और उसके महीने भर के अंदर ज़िले के हज़ारों लोगों ने जिलादार खान, रामधारी राय और राजा चौधरी के नेतृत्व में सरकारी दफ़्तरों पर धावा बोल दिया। सीतामढ़ी में भारत छोड़ो आंदोलन की इस कथा को लोग गर्व से सुनाते। कहते कि शहर के तीन सम्मानित परिवार के युवकों को अंग्रेजों ने जेल में डाल दिया और बड़ी मुश्किल से एक साल बाद उनको रिहाई मिली। आज भी खान, साह और राय परिवार को लोग स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार के रूप में याद करते हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आप कहेंगे कि बात शुरु हुई थी बाबा पलट बिहारी के स्थान से, कथा में पलटन नाथ के रूप में गाँव बिसरलपुर में उनके जन्म की कहानी शुरु ही हुई थी पलटन मार्च की कहानी और फिर क्या क्या कहानी शुरु हो गई? तो बताते चलें कि किस्से कहानी में यही होता है। क़िस्सा कोई एक लीक पर चलने वाली रेल की तरह नहीं होती है कि एक स्टेशन से शुरु हो और पटरी पर चलते हुए अपने गंतव्य पर पहुँच जाए। क़िस्सों में विषयांतर न हों तो उनका मजा ही क्या! असल में इस किस्से का संबंध पलटन से है और पलटन के पलटबिहारी होने से। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">फ़ौजी बूटों की आवाज़ शहर को पार कर गाँवों की सड़कों को भी रौंदने लगी। वैसे तब शहर था ही कितना बड़ा। समझ लीजिए कि आसपास के गाँवों के बाज़ार की तरह था। तो गोरी फ़ौज के सिपाही शहर की सड़कों को पार कर कब आसपास के गाँवों की सड़कों पर कड़ाम कड़ाम करते चलने लगे उनको पता ही नहीं चला। कहते हैं कि चलते-चलते वे बिसरलपुर गाँव पहुँच गए। जब फ़ौजी गाँव के पुराने पाकड़ के पेड़ के पास से गुजर रहे थे कि एक आवाज़ सुनाई दी— पलट! </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जाने क्या था उस आवाज़ में कि गोरी फ़ौज वहीं से वापस मुड़ गई। पलट की आवाज़ इतनी तेज़ थी कि दोपहर की ख़ामोशी में उस आवाज़ की गूंज दूर-दूर तक सुनाई दी। अपने घरों में दुबके किरतनिया परिवारों के वंशज फ़ौजी बूटों की कड़ाम कड़ाम से डरे हुए थे लेकिन वे इस बात को लेकर उत्सुक भी थे कि आख़िर इतनी ज़ोर से किसने पलट कहा कि गोरे फ़ौजी वापस लौट गए। वे गोरे फ़ौजी जो किसी के कहने पर न मुड़ते थे, न रुकते थे आख़िर किसकी आवाज़ सुनकर पीछे मुड़े और चले गए। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जब बूटों की आवाज़ शांत हो गई और गाँव वालों को इस बात का पक्का भरोसा हो गया कि अब ख़तरे की कोई बात नहीं थी तो पहले कुछ लोग निकल कर पाकड़ के पेड़ के पास पहुँचे। वहाँ पहुँचने के बाद जब उन लोगों ने आवाज़ लगाई तो कुछ और लोग निकले और फिर देखते-देखते सभी ग्रामीण पुरुष वहाँ पहुँच गए। सामने जो दिखाई दे रहा था उसको देखकर उनको अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हो रहा था। सामने पलटू खड़ा था और जिस दिशा से फ़ौजियों के लौटने की धूल दिखाई दे रही थी उसी दिशा में क्रोधित आँखों से देख रहा था। उसकी आँखें लाल टहटह लग रही थीं जैसे अड़हुल के फूल। वह कुछ नहीं बोल रहा था बस उसी दिशा में देखे जा रहा था और लोगों के वहाँ पहुँचने के पहले ही ज़मीन पर केले के खड़े खम्भे की तरह गिर गया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सब भागे लेकिन सबसे पहले पलटू के पास पहुँचा परीक्षण पांड़े। जब उसने औंधे मुँह पड़े पलटू को सीधा किया तो उसको देखकर जोर-जोर से चिल्लाने लगा— ‘इसके ऊपर कुछ आ गया है। अपने पलटू पर लगता है कोई भूत-दूत न तो देवी-देवता आ गए हैं। आओ भाई लोग देखो…’ </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सब भागते हुए उसको देखने के लिए पहुँचे तो सबका मुँह खुला का खुला रह गया। उसकी आँखें बाहर की ओर निकलने को आतुर लग रही थीं। मुँह से उसके फेन निकल रहा था और अस्फुट सवार में न जाने क्या कही जा रहा था। कोई दौड़ कर पानी लेकर आया और उसके मुँह पर पानी के छींटे मारने लगा। पानी से जैसे उसके शरीर में जान आ गई और वह बिजली की तरह उठकर बैठा और कुछ बोलने की कोशिश करने लगा। दो शब्द लोगों को सुनाई दिए— गोरी पलटन… पलट… </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कहकर वह फिर पलट गया। इस बार परीक्षण ने उसको उठाया और मुँह से पानी का लोटा लगा दिया। वह पानी पीने लगा और अपने आसपास जुटे लोगों को ऐसे देखने लगा मानो उसको यह समझ नहीं आ रहा हो कि वह वहाँ क्यों बैठा था और सारा गाँव उसको घेरे क्यों खड़ा था। एक बुजुर्ग ने आगे बढ़कर उससे पूछा— ‘क्या हुआ पलटू? सच-सच बताओ। कोनो निशाखातिर तो नहीं कर लिए?’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पलटू ने आँखों को मला। लोटे के पानी से कुछ छींटे आँखों पर मारे। गमछे से मुँह को पोछते हुए बताना शुरु किया— ‘हम यहीं पीपल के नीचे बैठे थे। अच्छी हवा आ रही थी। सोचे सूरज की गर्मी कुछ कम हो जाए तो घर जाएँ कि अचानक दूर से धूल का गोला उड़ता दिखाई दिया और उसके पीछे लग रहा था कि कुछ लोग चल रहे थे। हम डर गए। डर के मारे पेड़ पर चढ़ गए। ऊपर से साफ़ दिखाई दे रहा था। बंदूक ताने पलटन चली आ रही थी। देखकर हमको कंपकंपी छूट गई और हम थरथर काँपने लगे। मेरे काँपने से पूरे पेड़ का पत्ता नीचे झरने लगा और उससे एकदम अंधेरा छा गया। देखकर जाने उन फ़ौजियों को क्या लगा कि वे उसी तरह से कड़ाम कड़ाम करते हुए वापस लौट गए…' </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘हमको साफ सुनाई दिया था—पलट! तुम ही बोले थे। हमको कोनो धोखा नहीं हुआ था!’ इस बार ग्राम रक्षक दल के लालबाबू ने कहा। उसके समर्थन में कई लोग मुड़ी डोलाने लगे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘जब हम देखे कि पलटन पलट गई है तो हमको कुछो नहीं बुझाया। हम झट से पेड़ से नीचे उतरे और जोर से बोले— ‘हम हैं पलटन। पलटन नाथ! आगे ख़तरा के कोनो बात नहीं है। पलट जाइए… पलट जाइए… लेकिन ऊ लोग हमरे बात सुने ही नहीं। कोनो हमर बात नहीं सुन रहा है।’ </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सही में वहाँ कोई उसकी बात नहीं सुन रहा था। सब बोल रहे थे। कोई सुन नहीं रहा था। बीच में से कोई जोर से बोला— ‘पलटू पर गोसाईं असवार हो गए थे। गोसाईं हम लोगों को गोरी पलटन से बचाने के लिए आए थे। उन्होंने पलटनाथ को चुना अपना रौद्र रूप दिखाने के लिए। पलटनाथ के बोलने से नहीं भागी थी। इसके ऊपर असवार गोसाईं ने अपना रौद्र रूप दिखाया था उसी से डर कर पलटन वापस चली गई।’ </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सब जोर जोर से जयकारा लगाने लगे- गोसाईं महराज की जय! गोसाईं महाराज की जय!’ </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘बाबा पलटबिहारी की जय!’ एक आवाज़ आई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">और फिर बहुत सारी आवाज़ों ने जयकारा लगाया— बाबा पलटबिहारी की जय!’ </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उस दिन से पलटू को लोग पलटबिहारी बुलाने लगे। उसकी महिमा गाने लगे। कहते हैं कि चलते-चलते अगर वह एक बार पलट कर किसी को देख लेता तो या तो उसका भाग्योदय हो जाता। वह जिधर जाता उसके पीछे लोगों की भीड़ चलने लगती। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">क्या पता पलटबिहारी किसको पलट कर देख ले!</div></div></div><div style="text-align: right;">
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-54453141603475217762023-11-24T13:10:00.002+05:302023-11-24T15:28:38.738+05:30धीरेन्द्र अस्थाना की पहली प्रकाशित कहानी - लोग/हाशिए पर [1974] | Dhirendra Asthana ki Kahaniyan<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>जो आनंद पुरानी, अनदेखी, बेहतरीन फ़िल्म को देखने में आता है, वैसा ही धीरेन्द्र जी की 1974 में प्रकाशित पहली कहानी 'लोग/हाशिए पर' को पढ़ते हुए आया। ~ सं० <span><a name='more'></a></span></div><div><br /></div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBwqfU660MvZAuoxZJlONDOH4a_hkEWShZJ6EvowHB7XwGarYYO4FzIndhmejdHcsoDSx3X12tpNlhyphenhyphenMbRCkDUvl2AqNXKRSSVZeSje8tABIFUqsgqFNMR5PjHJ5ruMdqXGkKM34dJGErMi6NgcDu3CydCOOycCKI0ZFMAyymykxgD-dM3kG2lZ9_PtnX7/s903/dhirendra%20asthana%20ki%20kahaniyan.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBwqfU660MvZAuoxZJlONDOH4a_hkEWShZJ6EvowHB7XwGarYYO4FzIndhmejdHcsoDSx3X12tpNlhyphenhyphenMbRCkDUvl2AqNXKRSSVZeSje8tABIFUqsgqFNMR5PjHJ5ruMdqXGkKM34dJGErMi6NgcDu3CydCOOycCKI0ZFMAyymykxgD-dM3kG2lZ9_PtnX7/s16000/dhirendra%20asthana%20ki%20kahaniyan.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Dhirendra Asthana ki kahaniyan</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h1 itemprop="headline">
लोग/हाशिए पर</h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">~ धीरेन्द्र अस्थाना</h2>
<span itemprop="description"><span style="font-size: 11px;">सन् 1981 के अंतिम दिनों में टाइम्स समूह की साप्ताहिक राजनैतिक पत्रिका ‘दिनमान’ में बतौर उप संपादक प्रवेश। पांच वर्ष बाद हिन्दी के पहले साप्ताहिक अखबार चौथी दुनिया में मुख्य उप संपादक यानी सन् 1986 में। सन् 1990 में दिल्ली में बना-बनाया घर छोड़कर सपरिवार मुंबई गमन। एक्सप्रेस समूह के हिन्दी दैनिक ‘जनसत्ता’ में फीचर संपादक नियुक्त। मुंबई शहर की पहली नगर पत्रिका ‘सबरंग’ का पूरे दस वर्षों तक संपादन। सन् 2001 में फिर दिल्ली लौटे। इस बार ‘जागरण’ समूह की पत्रिकाओं ‘उदय’ और ‘सखी’ का संपादन करने। 2003 में फिर मुंबई वापसी। सहारा इंडिया परिवार के हिन्दी साप्ताहिक ‘सहारा समय’ के एसोसिएट एडीटर बन कर। आजकल स्वतंत्र लेखन।
संपर्क : डी-2/102, देवतारा अपार्टमेंट, मीरा सागर कॉम्प्लेक्स, रामदेव पार्क रोड, मीरा रोड (पूर्व). ठाणे -401107 / मोबाईल : 09821872693 / ईमेल : <a href="mailto:dhirendraasthana@gmail.com">dhirendraasthana@gmail.com</a></span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on"><span itemprop="description"><span style="font-size: 11px;"><a href="mailto:dhirendraasthana@gmail.com"></a></span></span><span style="font-size: 11px;"><br /></span>
<div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘प्रेस तो एक प्रतीक है’, बन्धु ने कहा था, ‘लोग समान्तर तकलीफों से गुजर रहे हैं और मैं या तुम भी उन्हीं की एक इकाई हैं। देश के अधिकांश लोग कगार पर खड़े हैं और नीचे अन्तहीन खाई है, सुरक्षित कोई नहीं है।’ श्रीवास्तव सोचता है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सामने की दीवार पर राम, कृष्ण और भगत सिंह के कैलेण्डर लटक रहे थे और ठीक उनके बगल में एक नंगी औरत का फोटो चिपका हुआ था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘यह अफसरों के आने की जगह है, क्लर्कों की जगह बार है।’ एक सूटेड-बूटेड आदमी अपने साथ खड़े क्लर्कनुमा व्यक्ति को समझा रहा था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘यस सर।’ क्लर्कनुमा व्यक्ति दारू पीने के बावजूद तमीज़ से पेश आ रहा था। दरअसल, उसने इतनी दारू नहीं पी थी कि दफ़्तर की मानसिकता को उतार सके। वह चुपचाप खिसक लिया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ठेके का शोर आत्मीय था, इसके बावजूद माहौल अचानक ही कहीं ग़लत हो गया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘तुम अपना कवर डिजाइन किसी और से क्यों नहीं बनवाते?’ अवधेश ने गिलास की अन्तिम बूंदें तक हलक में उंडेल लीं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘तुम्हें क्या एतराज़ है?’ श्रीवास्तव नरम पड़ गया। अवधेश देर तक चुप रहा फिर बीड़ी निकाल कर सुलगाने लगा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘तुम मुझे हमेशा ग़लत समझते रहे हो।’ श्रीवास्तव भावुक होने लगा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘मैं तुम्हें कुछ समझता ही नहीं।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘क्या?’ श्रीवास्तव का सारा सुरूर तुरन्त उतर गया। उसके जी में आया, सोडे की बोतल खींचकर अवधेश के सिर पर दे मारे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘मैं ही तुझे कौन-सा कुछ समझता हूं।’ श्रीवास्तव उत्तेजित था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘बात खत्म’, अवधेश सहजता से बोला, ‘तू मुझे कुछ नहीं समझता, मैं तुझे कुछ नहीं समझता, कवर कैसा?’ </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘साले, जब मेरी दारू ढकोसी जा रही थी, तब ये बात दिमाग में नहीं आयी थी।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘गाली-गलौज न कर, मैं जा रहा हूं।’ अवधेश ने रवि जी से हाथ मिलाया और ठेके के बाहर चला गया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘कॉलेज खुलने दे बेटे, सारी चित्रकारी घुसेड़ दूंगा।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘हल्ला न मचा यार।’ रवि जी ने उसका कन्धा थपथपाया और पव्वा ख़रीदने चले गये।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘मैं नहीं पीता।’ श्रीवास्तव गुर्राया और बाहर निकल गया। रवि जी का मूड चौपट हो गया। वे सोच रहे थे रात को कोई गीत-वीत लिख डालेंगे, लेकिन सारा मामला ही ख़राब हो गया। एक ही सांस में पव्वा धकेल कर वे लड़खड़ाते हुए बाहर निकल गए।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उसकी तकलीफों से कौन जुड़ा है? श्रीवास्तव ने सोचा, किसे नहीं पता कि किताब छपवाने के लिए उसे पूरे सात सौ रुपए का क़र्ज़ लेना पड़ा है, साले जितने भी लोग हैं, जड़ों में मट्ठा देने वाले ही हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">00</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सामने घण्टाघर था और घड़ी में सवा नौ हो गये थे। आख़िरी बस छूटने में पन्द्रह मिनट बाकी थे। उसने पान की दुकान से दो चारमीनार ख़रीदीं और एक को सुलगाने लगा। तभी सामने से प्रेमनगर की बस आती दिखायी पड़ी। वह हड़बड़ा कर और बग़ैर पैसे चुकाये भागकर बस के पायदान से लटक गया। पान वाला गाली देने के सिवा कुछ नहीं कर सका।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘सवा नौ पर ही गाड़ी भगा ली?’ उसने कन्डक्टर से बहस करनी चाही। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘पौने दस हो गये श्रीमान जी।’ कन्डक्टर ने व्यंग्य किया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘पास’ का नम्बर बोलकर उसने बस के कन्डक्टर, घण्टाघर की घड़ी और अवधेश को मन ही मन मां की गाली दी और अन्दर जगह बनाने लगा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">घर पहुंचते-पहुंचते नशा तेज़ हो गया। पता नहीं गुस्से के आधिक्य से या ठण्ड के कारण। एक बोतल तीन जनों में कोई नयी बात तो थी नहीं। उसने दरवाज़ा खटखटाया और जोर-जोर से एक घटिया गाना गाने लगा। अन्दर की लाइट जली और दरवाज़ा खुला। उपमा थी, शायद बिस्तर से उठ कर आयी थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘तुम आज फिर पी आये?’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘अरे सामने से हट।’ वह बहन को धक्का देकर भीतर आ गया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘बाऊजी नाराज़ हो रहे थे।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘तो?’ उसने जूते उतारे और बग़ैर कपड़े बदले मोजों समेत बिस्तर में घुस गया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘खाना...?’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘लाइट बढ़ा के दफ़ा हो ले।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उपमा पैर पटकती हुई कमरे से चली गयी। वह सिगरेट सुलगाकर पीता हुआ सोचता रहा कि छपने के बाद अपने उपन्यास की समीक्षा कहां-कहां और किस तरह करवायी जाये। उपन्यास बेचा कैसे जाये ताकि कर्जा उतर सके। ज्यादा देर वह सोच नहीं सका, उसका दिमाग नशे में डूबने लगा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">00</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सुना था—पहाड़ों पर बर्फ गिरी है। कोट के कॉलर खड़े करने के बावजूद ठण्ड बदन के भीतर तक घुसती जा रही थी—मांस को चीरती, हड्डियों को तोड़ती-सी। बालकराम ने एक भद्दी-सी गाली ठण्ड को दी, इसके बावजूद ठण्ड कम न हुई। प्रेस का ताला बन्द करने के बाद श्रीवास्तव चाबी देने ऊपर चला गया—फ्लैट में।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘रवि जी दो रुपये दे दो, एडवांस वाले दिन काट लेना।’ बालकराम ने गिड़गिड़ाते हुए कहा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘हैं नहीं यार।’ रवि जी ने बीड़ी सुलगा ली। बालकराम कुछ उदास गया। श्रीवास्तव लौट आया। उसके हाथ में गोर्की की किताब थी जिसे वह बीच-बीच में प्रूफ निपटाने के बाद पढ़ता रहा था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘चलें।’ रवि जी ने अचानक पूछा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘मेरे पास सिर्फ दो रुपये हैं।’ श्रीवास्तव ने जवाब दिया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘चलते हैं, देख लेंगे।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बालकराम सब कुछ भांप गया। उनसे विदा लेकर वह चकरौता रोड की तरफ मुड़ गया। रवि जी और श्रीवास्तव मच्छी बाजार वाली गली में मुड़ गये।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">(पाठक ध्यान दें, इस बार हमारा कथाकार बालकराम के साथ है।)</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">घण्टाघर पहुंचते-पहुंचते बालकराम के दांत किटकिटाने लगे और पैरों की उंगलियां बर्फ के टुकड़ों-सी हो गयीं। तिब्बती मार्केट से बीस रुपये में ख़रीदा गया कोट ठण्ड को रोक पाने में पूरी तरह नाकामयाब साबित हो रहा था। घण्टाघर से बालकराम गांधी रोड की तरफ मुड़ गया। गांधी रोड के चौराहे पर उसका एक जिगरी यार कच्ची शराब बेचता था। कच्ची ज्यादा महंगी नहीं होती। पूरी बोतल तीन रुपये की पड़ती है। उसे यकीन था कि उसका दोस्त पावभर कच्ची और एक भरी सिगरेट उधार दे ही सकता है। दुकान बन्द थी और ज्यादा वक्त नहीं हुआ था। साढ़े सात का भोंपू कुछ देर पहले बजा था उसे ताज्जुब हुआ।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘किशन कहां गया?’ उसने साथ के चाय वाले से पूछा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘पुलिस ले गई हरामी को।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘क्यों?’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘क्यों क्या, चरस पकड़ी गयी दुकान पर और दारू भी।’ चाय वाला खुश-खुश आवाज में बोला, ‘पांच महीने से पहले नहीं छूटते बेटा, मजाक थोड़े ही है, साले गांधी महात्मा के मुंह पर ही शराब का धन्धा... पकड़ा गया स्साला, अच्छा हुआ।’ </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बालकराम कुछ देर खड़ा रहा और चाय वाले को मन-ही-मन गालियां देता रहा, जो किशन के पकड़े जाने पर खुश था। फिर वह घर की तरफ मुड़ गया, इसके सिवा कोई चारा भी नहीं था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">घर पहुंचने पर उसने अपनी सबसे बड़ी लड़की सीता, जो तकरीबन ग्यारह वर्ष की थी, को जागते पाया। सीता से छोटे उसके तीन लड़के और थे। जब तक वह घर पहुंचता था। उसके चारों बच्चे सो चुकते थे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘तेरी मां कहां है?’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘मां काम पर गयी है।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘तू सोयी नहीं?’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘भूख लगी है, मां ने कहा था—लौटने पर रोटी लायेगी।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘रोटी नहीं बनी आज, हरामजादी।’ वह गुस्से में बड़बड़ाया और दोनों लड़कों वाली खाट पर एक तरफ लेट गया। सबसे छोटा मुन्नू लक्ष्मी की खाट पर लेटा था। तीन खाटें आने के बाद कमरे में मुश्किल से खड़े होने की जगह बचती थी। कमरे से लगकर एक छोटी रसोई जैसी कोठरी और थी जिसमें कुछ कनस्तर और एक-दो बक्से थे। वहीं पर रसोई का काम लिया जाता था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उसने सीता को डांटकर सो जाने के लिए कहा और खड़ा होकर बीड़ी खोजने लगा। उसे ध्यान था कि सुबह जाते वक्त वह कोठरी में दो-तीन बीड़ियां छोड़ गया था। लैम्प लेकर वह कोठरी में गया और बीड़ी-माचीस तलाश लाया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जब तक दरवाजे पर थाप पड़ी वह दो बीड़ी पी चुका था और सीता चुपचाप सो गयी थी। उसे गुस्सा आ गया, पता नहीं क्यों? उसने उठकर दरवाज़ा खोल दिया, लक्ष्मी थी। सर्द हवा का झोंका लक्ष्मी के साथ कमरे में घुसा और बग़ैर चिमनी वाले लैम्प को बुझा गया। कमरे में एकाएक घुप्प अंधेरा फैल गया। जब आंखें कुछ देखने लगीं तो उसने लैम्प को जला दिया। तब तक लक्ष्मी किवाड़ बन्द कर चुकी थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘रोटी क्यों नहीं बनायी?’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘उसी का जुगाड़ करने तो गयी थी।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वह कुछ नहीं कह सका, चुप पड़ गया। ये औरत बोलती नहीं चाकू मारती है। उसने सोचा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘पांच का पत्ता मिला, लेकिन जान खींच ली, दो थे।’ लक्ष्मी पीठ खुजाते हुए बोली और धोती के छोर में बंधा पांच का नोट कोठरी में कहीं रख आयी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कितनी चालू है मादर...। बलराम ने सोचा, सारी बातें साफ-साफ ही बोलेगी ताकि सुनकर कलेजा फुंक उठे। उसने एक-एक करके दोनों बच्चों को सीता की खाट पर लिटा लिया और लक्ष्मी को अपनी खाट पर ले लिया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘आज नहीं, तकलीफ है।’ लक्ष्मी ने तुरन्त करवट बदल ली। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उसका पोर-पोर दुख रहा था। दो जनों ने एक घण्टा लगा दिया था पूरा और वह सुबह से भूखी थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘बाहर तकलीफ नहीं होती, छिनाल।’ बालकराम को गुस्सा आ गया। एक तो उसे दारू नहीं मिल पायी थी, दूसरे वह सुबह से भूखा था और तीसरे ठण्ड बदन तोड़े दे रही थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘किसके कारण बाहर जाती हूं।’ लक्ष्मी बिफर गयी, ‘जिन्दगी को नरक बना दिया तूने, रोटी तक खिला नहीं पाता, ऊपर से इल्जाम ठोंकता है अलग।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘चुप।’ उसने लक्ष्मी का मुंह दबा दिया और उसे दबोच लिया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लैम्प को फूंक मारने के बाद उसने लक्ष्मी की गर्दन पर अपने होंठ चिपका दिये और उसके ऊपर आ गया। लक्ष्मी के होंठों से कराह फूट पड़ी और उसकी आंखों में आंसू उतर आये। तकलीफ से होंठ भिंच-भिंच जाते थे। तभी सीता उठ बैठी और अंधेरे में अपनी मां की कराहें सुनती रही। सीता की समझ में नहीं आ रहा था कि उसकी मां पर चढ़ा हुआ उसका बापू क्या कर रहा है?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">(हमारे कथाकार के दिमाग में एकदम ‘राग-दरबारी’ का पलायन संगीत गूंजने लगा... भागो, भागो, यथार्थ तुम्हारा पीछा कर रहा है। कथाकार इससे पहले आम लोगों के बीच कभी नहीं आया था, वह परेशान हो गया। उसे लगा, प्रेमिका की आंखें ज्यादा सुविधाजनक हैं। उसे कार्ल मार्क्स पर क्रोध आने लगा जिसने अच्छे-खासे अमूर्त और मनोरंजक साहित्य को तकलीफों और जनसाधारण से जोड़ने की बात शुरू की।)</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: center;">00</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ये देहरादून के साहित्यकार हैं, श्रीवास्तव प्रूफ देखता हुआ सोचता है, ये सब प्रेस से जुड़े हुए लोग हैं, यहां आए बिना जिनका खाना हजम नहीं होता। प्रूफ निपटाने के बाद उसने सोचा - वह प्रेस के स्टाफ और प्रेस से जुड़े साहित्यकारों को लेकर कोई लम्बी चीज लिखेगा। प्रेस में एक-से-एक ‘धापसोल’ कैरेक्टर भरे पड़े हैं। प्रेस वर्कर्स की तकलीफों, मालिक द्वारा उनका शोषण और शोषण के खिलाफ उठ खड़े होने के बजाय हतवीर्यों की तरह लगातार बर्दाश्त करते चले जाना। वह पन्त और बन्धु से इस थीम पर डिस्कस करेगा, उसने सोचा और पढ़ा हुआ प्रूफ लेकर कम्पोजिंग रूम में चला गया। मसूरी की नेशनल एकेडमी से एक जरूरी काम आ जाने के कारण उसका उपन्यास बीच में ही रुक गया था। ‘नवरक्त’ का गणतंत्र विशेषांक भी छप रहा था। और छोटे-छोटे डेली-वर्क अलग से। सारा टाइप ब्लॉक था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘नवरक्त’ प्रेस का अखबार था और रवि जी प्रेस मैनेजर होने के साथ-साथ ‘नवरक्त’ के सम्पादक भी थे। वैसे चीफ एडीटर तो प्रेस के मालिक विक्रम साहब ही थे। पढ़ा हुआ प्रूफ पेज सेट करने के लिए अनूप सिंह को देकर वह दूसरा गैली प्रूफ उठवा कर ले आया। अभी सिर्फ साढ़े छह हुए थे और प्रेस सवा सात पर बन्द होता था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">प्रूफ पढ़ने से पहले उसने देखा— बन्धु ‘दिनमान’ का नया अंक पढ़ रहा था और अवधेश किसी छोटी पत्रिका को देख रहा था, जो कानपुर से नयी-नयी निकली थी। रवि जी बड़ी तन्मयता से खत लिखने में व्यस्त थे। श्रीवास्तव प्रूफ पढ़ने लगा। इस बीच अवधेश चला गया। प्रूफ पढ़ने के बाद श्रीवास्तव ने घड़ी देखी—सात बजकर तेरह मिनट। रवि जी से हाथ मिला कर वह पन्त और बन्धु के साथ बाहर आ गया। वे ‘डिलाइट’ में जाकर बैठ गये। किशन तुरन्त तीन गिलास पानी रख गया और बन्धु को एक भद्दी गाली भी दे गया। बन्धु के साथ उसका अश्लील मजाक चलता था—आत्मीयता के स्तर पर।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">चाय पीकर पन्त जी उठ खड़े हुए, उन्हें कोई काम था, वे चले गये। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘मैंने एक कविता लिखी है।’ बन्धु ने बीड़ी सुलगाते हुए कहा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘सुना दे।’ </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘ऐसे नहीं। पहले दारू पियेंगे, फिर रात का शो देखेंगे, इसके बाद कविता। रात को तू मेरे घर रुक जाना।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘पैसे?’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘आज साइकिल-एडवान्स मिला है।’ बन्धु ने इत्मीनान से जवाब दिया। श्रीवास्तव खुश हो गया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">चाय के पैसे बन्धु ने ही चुकाये। इसके बाद दोनों मच्छी बाजार की तरफ मुड़ गये। दारू ख़रीदने के बाद दोनों एक खाली बेंच पर बैठ गये। बेंच का खाली पाया जाना वैसा ही विचित्र था जैसे डिलाइट में किसी गैर-बौद्धिक का मिलना। बोतल निपटाने के बाद उन्होंने पान खाये और चारमीनार की डिब्बी ख़रीदी। बन्धु आज बादशाह बना हुआ है, श्रीवास्तव ने सोचा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">फिल्म देखने के बाद उन्होंने चाय पी और कनाट-प्लेस की तरफ मुड़ गये। कनाट-प्लेस से कुछ ही दूर यमुना कालोनी थी, जहां बन्धु रहा करता था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">घर पहुंचने से पहले घर के सामने के खम्बे के नीचे खड़े होकर बन्धु ने एक सिगरेट खुद जलायी और एक उसे दी, इसके बाद वो जेबें टटोलने लगा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘क्या हुआ?’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘यार वो कविता वाला कागज तो दफ़्तर में ही छूट गया शायद।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘फिर?’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘फिर क्या... अन्तिम लाइनें याद हैं।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘वोई सुना दे।’ श्रीवास्तव मुस्कराया। दिसम्बर के अन्तिम दिनों की ठण्ड में सड़क के किनारे, ट्यूब लाइट वाले खम्बे के नीचे खड़े होकर कविता सुनना अपने में एक मौलिक सुख है। श्रीवास्तव ने सोचा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘आखीर की लाइनें इस प्रकार हैं, बन्धु अपने विशेष लहजे में बोला,</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"> हां, यह भी एक रास्ता है</div><div itemprop="articleBody"> इस पर वर्तमान कभी दौड़ता है हम से</div><div itemprop="articleBody"> आगे भविष्य की तरह</div><div itemprop="articleBody"> कभी पीछे/</div><div itemprop="articleBody"> भूत की तरह लग जाता है</div><div itemprop="articleBody"> हम इसकी तरह उल्टे लटके हैं, आग के अलाव पर</div><div itemprop="articleBody"> आग ही आग है</div><div itemprop="articleBody"> नसों के बिलकुल करीब जिनमें बारूद भरा है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हालांकि कविताओं में श्रीवास्तव का विश्वास नहीं था फिर भी बन्धु अभी भी ऐसी चीजें लिख रहा था जो सोचने के लिए एक लड़ाकू जमीन तैयार करती थीं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘तेरी उमर कितनी हो गयी?’ श्रीवास्तव ने अचानक ही पूछा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘सत्ताईस, क्यों?’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘शादी कब करेगा?’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘शादी?’ बन्धु चौंक पड़ा, फिर हंसा और चुप हो गया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘इसी साल जनवरी में अपने फण्ड से एक हजार रुपया एडवान्स लेकर और पिताजी की वो एक अदद छोटी-सी कपड़े की दुकान बेचकर मैंने अपनी बहन की शादी की है।’ बन्धु एकाएक ही टूट गया, ‘अब दूसरी बहन भी तैयार है।’ वह घर की तरफ चलता हुआ बोला, ‘क्या मैं शादी कर सकता हूं?’ बन्धु जोर का ठहाका लगाकर हंस पड़ा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">श्रीवास्तव ने सोचा—ठहाका लगाकर बन्धु ने मोहन राकेश की तरह अपने अन्दर एक कील और जड़ ली है। बन्धु के साथ श्रीवास्तव घर की सीढ़ियां चढ़ने लगा। बन्धु का कमरा बहुत छोटा था और एक छोटी खाट के अलावा उसमें सिर्फ कुछ किताबें थीं। बगल के कमरे में उसके पिताजी, उसकी बहन और उसका छोटा भाई था। श्रीवास्तव जूते उतार कर बन्धु के बिस्तर में घुस गया। वह काफी उदास था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">00</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पेशाब करने के बाद अनूपसिंह ने एक गिलास ठण्डा पानी पिया और कम्पोजिंग रूम से होता हुआ ऑफिस में आ गया। अनूपसिंह बहुत उदास था। वह किसी भी काम में हिस्सा नहीं ले पा रहा था। प्रेस की घड़ी में साढ़े सात हो गये थे और विक्रम साहब का पता नहीं था। उसे आज पैसों की सख्त ज़रूरत थी। आज सुबह जब वह काम पर आया था तो घरवाली के दर्द हो रहे थे। उम्मीद थी कि बाल-बच्चा आज ही हो ले। हालांकि घर पर अनूपसिंह की बहन और उसका बारह साल का लड़का भी था लेकिन बग़ैर पैसों के तो वे कोई तीर नहीं मार सकते थे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उधार वालों को तो वह अगली तनख्वाह तक टरका भी सकता है लेकिन जो बच्चा होने वाला है उसे कैसे समझाये कि इस बार कड़की है, अगले महीने पैदा होना। पता नहीं ऐन मौके पर किस चीज की ज़रूरत पड़ जाये। पैसा पास हो तो दिल मजबूत तो रहता ही है। वैसे भी इस बार वह अपनी औरत को गिजा वाली कोई चीज नहीं खिला पाया था, जबकि उसने सुना था कि बाल-बच्चे वाली औरतों को इस मौके पर घी देना चाहिए। उनका तो ये दूसरा जन्म होता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दो-चार वर्कर बेसबरी में प्रेस के बाहर जाकर खड़े हो गये थे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अनूपसिंह भी बाहर निकल आया। सर्द हवा का झोंका उसे बहुत भीतर तक झकझोरता चला गया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कार के रुकते ही विक्रम साहब बैग उठाकर भीतर आये। कुर्सी पर बैठे रवि जी और श्रीवास्तव खड़े हो गये लेकिन सुकरम उसी तरह बैठा रहा। सुकरम मुजफ्फरनगर के एक गांव का जाट था और तड़ी के साथ ठेके के हिसाब से काम करता था। उसकी कम्पोजिंग की रफ्तार सबसे अधिक थी। इसीलिए उसका रुतबा भी था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘किसे एडवान्स देना है?’ </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘सभी को चाहिए, साहब।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘ठीक है। विक्रम साहब ने लापरवाही से कहा, ‘कल मिलेगा।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अनूपसिंह को लगा, उसका चेहरा सख्त पड़ गया है, लेकिन तुरन्त ही उस पर धुआं-सा तैरने लगा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘साब, मुझे तो आज ही दिलवा दो।’ अनूपसिंह गिड़गिड़ा पड़ा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘क्यों?’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘जी, घरवाली के बच्चा होने वाला है।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘इस समय कोई पैसा नहीं है, कल बैंक से निकलवा कर देंगे।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘दसेक रुपये तो दे दो साब।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘दस रुपये रवि जी से ले लेना।’ विक्रम साहब ने कहा और प्रेस से बाहर निकल गये। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘रवि जी, दस रुपये...साब ने कहा है।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘साब चढ़ गये मेरे इस पे।’ रवि जी गर्म हो गये। ‘यहां क्या पेड़ लगा हुआ है, दस रुपये दे दो...।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कोट के बटन बन्द करता हुआ श्रीवास्तव बाहर निकल गया। उसके पीछे-पीछे प्रेस के सारे वर्कर भी आ गये। रवि जी ने प्रेस का ताला बन्द करने के बाद चाबी खन्ना को दे दी—विक्रम साहब तक पहुंचाने के लिए। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘ये विक्रम है न, बड़ा हरामी है साला।’ शामलाल ने हथेलियां मलते हुए कहा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘दुपहर का बीज है मादर...।’ बालकराम गुर्राया, ‘कभी वक्त पर पैसा नहीं देगा।’ ‘दुपहर का बीज’ पर तमाम वर्कर ठहाका मारकर हंस पड़े लेकिन अनूपसिंह कुछ और उदास हो गया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अनूपसिंह अचानक अकेला रह गया। सारे वर्कर खिसक लिये थे। बला की ठण्ड थी। यह दिसम्बर के दिन थे और अभी जनवरी-फरवरी भी सामने पड़ी थीं जब मंसूरी में गिरती बर्फ यहीं से दिखायी पड़ती है और घाटी में बसा हुआ यह शहर कांप-कांप जाता है। परके साल इसी ठण्ड में अनूपसिंह की इकलौती लड़की डबल निमोनिया का शिकार होकर अकाल मौत मर गयी थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सहसा ही अनूपसिंह के कदम एक साथ भारी हो आये और सारा बदन शिथिला गया। घर का रास्ता काफी लम्बा था और उसकी बीवी सुबह से दर्द झेल रही थी। वह परेशान हो गया। उसे लगा—खाली हाथ वह घर नहीं पहुंच पायेगा। विक्रम साहब ने ऐन मौके पर उसे तोड़कर रख दिया था। उसकी आंखों में अंधेरा-सा उतरने लगा और देर तक प्रेस के सामने से हिल नहीं सका—ठण्ड के बावजूद।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">00</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘मैंने तुम्हारी एक कहानी पढ़ी है श्रीवास्तव जी’, मदन ने कम्पोजिंग रोककर कहा, ‘उसमें एक वाक्य है—व्यवस्था लोमड़ी की तरह चालाक होती है और छोटे पोस्टरों पर बड़े पोस्टर चिपकाने की कला में माहिर।’ सिर्फ इसी वाक्य का मतलब समझ नहीं आया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘इन्टरवल में बताऊंगा।’ श्रीवास्तव मुस्कराया और बीड़ी सुलगाने लगा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘एक आदमी है,’ मदन ने कहा, ‘सुअर की तरह धकापेल उसने आठ बच्चे पैदा किये हैं, इसका जिम्मा किस पर जाता है?’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘उसी आदमी पर।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘मैं नहीं मानता। इसका जिम्मेदार उसका बाप है, जिसने उन्नीस साल की उमर में ही उसका ब्याह रचा दिया। तनखा सिरफ दो सौ दस रुपये, आदमी के आत्महत्या के पूरे चांस हैं न!’ </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘बेशक।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘लेकिन मैं अभी तक जिन्दा हूं।’ मदन रुआंसा हो गया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मदन जैसे हंसमुख कम्पोजीटर को टूटते श्रीवास्तव आज ही देख रहा था। उसे लगा हालात कुछ ज्यादा ही नाजुक हैं। आदमी अधिक दिनों तक बर्दाश्त नहीं करेगा। कमरे का माहौल अचानक ही सुस्त-सी उदासी लिये भारी हो गया। दायीं तरफ बैठा शामलाल उसी का उपन्यास कम्पोज कर रहा था और बायीं ओर खन्ना ‘नवरक्त’ का छप चुका पेज डिस्ट्रीब्यूट कर रहा था। श्रीवास्तव ने चाहा कि वह मदन को बताये कि असल में दोष उस व्यवस्था का है जो विक्रम साहब के मुनाफे के लिए बनी है। लेकिन खन्ना को देखकर वह चुप लगा गया। खन्ना मजदूर होने के बावजूद विक्रम साहब का आदमी था। श्रीवास्तव इस कमरे में गैली प्रूफ लेने आया था। बीड़ी फेंककर उसने प्रूफ को भी फाइनल करना था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दिसम्बर की ठण्ड में आधी रात को खम्भे के नीचे खड़े होकर बन्धु कविता सुनाता है—आग-ही-आग है नसों के बिलकुल करीब... श्रीवास्तव सोचता है और प्रूफ पढ़ता है। विक्रम साहब एक-एक रात में हजार-हजार रुपया जुए में हारते हैं और मशीनमैन गुप्ता अपने लड़के की दवाई के लिए सिर्फ ढाई रुपये का इन्तजाम नहीं कर पाता। रात के हादसे बहुत खतरनाक होते हैं और सरेआम किसी का चाकू किसी की पसलियां तोड़कर गुजर जाता है। श्रीवास्तव प्रूफ नहीं पढ़ता। क्यों पढ़े? डेढ़ सौ रुपये में वह सिर झुकाकर, आंखें मलता हुआ सारा-सारा दिन प्रूफ पढ़ता रहे, उसके चश्मे का नम्बर साल-दर-साल बढ़ता चला जाये और विक्रम साहब जुआ खेलते रहें, व्हिस्की पीते रहें और औरतों को चूसते रहें। एक आदमी है जिसने धकापेल बच्चे पैदा किये। एक अदद बीवी, एक बूढ़ा बाप। यह मदन है। सुना है, एक वक्त चूल्हा जलता है और रोटी को नमक से खाया जाता है। बड़ा लड़का एक सिनेमा हाल के सामने मूंगफली बेचता है और छोटा एक होटल में बर्तन मांजता है। हम सोने की मुर्गी हैं, प्रेस में सोना हगकर जाते हैं और हमारी ही साली ये हालत। इंकमैन शास्त्री चीखता है और बग़ैर दवा के मर चुके अपने बच्चे की ताजा लाश पर उसकी बीवी जार-जार रोती है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘प्रेस तो एक प्रतीक है, इस महादेश का।’ बन्धु कहता है, ‘लोग समान्तर तकलीफों से गुजर रहे हैं।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">विक्रम साहब भी एक प्रतीक हैं, श्रीवास्तव सोचता है, जो एक अंधेरी गुफा के मुहाने पर पूरी व्यवस्था को लिये बैठे हैं। होटल की खिड़कियों से गोश्त की बची हड्डियां फेंक दी गयी हैं। नीचे खड़े लड़के एक साथ उन पर झपटते हैं और एक-दूसरे का सिर फोड़ देते हैं। दो-एक कुत्ते गुर्राते हुए आते हैं और हड्डियां लेकर भाग जाते हैं। लड़कों के सिरों से खून टपक रहा है। ताजा सूर्ख खून। सुना है क्रांति का रंग खून जैसा होता है। जमीन पर टपकने से पहले ही लड़के अपना-अपना खून पी लेते हैं और निर्मल वर्मा पाठकों को विदेशी जमीन पर खींच ले जाते हैं, भुतैली छायाओं और हवा के घोंसलों के बीच। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मोहल्ले में रात को एक कार आती है और मां अपने बच्चे को छोड़कर कार में चली जाती है। कार में विक्रम साहब हैं। और विक्रम साहब एक प्रतीक हैं। पति निरीह आंखों से सब देखता है—पति भी एक प्रतीक है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जिन्दगी वीभत्सता की हद तक सड़ी हुई है और कहानी एक फालतू और वाहियात चीज है, जो पेट भरे उबाऊ लोगों की मानसिक अय्याशी पूरी करती है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सोचो। सिर्फ इतना सोचो कि तुम्हारे खेत में उगा हुआ सोना उनकी तिजोरी में क्यों कैद हो जाता है? कि चीनी, चावल, कपड़ा और घी तुम्हारे गट्टों के दम पर बाजार में आता है और तुम ही भूखे-नंगे हो।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बिहार के गांव में एक औरत भूख से तंग आकर अपने बच्चों का गला घोटकर आत्महत्या कर लेती है और महानगरों में ‘अकहानी’ का जन्म होता है। राजस्थान के गांव में प्यास से तड़पते अपने बाप को जवान लड़की रो-रोकर अपना पेशाब पिला देती है और ‘अज्ञेय’ ‘अपने-अपने अजनबी’ लिखकर पैसे पीटते हैं। महानगरों के सात मंजिला होटलों में बच्चों का गोश्त बिकता है, कलकत्ता के फुटपाथ पर प्रेमचन्द का ‘होरी’ मरा हुआ पाया जाता है और बुद्धिजीवी अपनी मां के शव के बगल में लेटकर अपनी बहन के साथ संभोग करता है—यह भोगा हुआ यथार्थ है और इसने कहानी को नये आयाम दिये हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यह सबसे ज्यादा गरीब देश है, इन साले गरीबों ने देश के माथे पर कलंक लगा दिया है। गरीबों का एक महानगर बनाया जाये और उस पर एटम बम डालकर तबाह कर दिया जाये। चरस के नशे में ‘फ्री वर्ल्ड’ की बात करने वाला एक कवि यह धांसू आइडिया कॉफी हाउस की मेज पर उछालता है और ठहाकों से मेज हिलने लगती है। विक्रम साहब इस धांसू आइडिये से खुश होकर ‘फ्री वर्ल्ड’ के हिमायती उस चरसी कवि को साहित्य अकादमी का इनाम दिलवाने का आश्वासन देते हैं और बंगाल के मजदूरों पर ताबड़ तोड़ गोलियां बरसने लगती हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">विक्रम सा...ह...ब...। श्रीवास्तव जोर से चीखता है। अपनी-अपनी कुर्सी पर बैठे एकाउन्टेन्ट नेगी और रवि जी एक साथ चौंक पड़ते हैं। श्रीवास्तव की सांस उखड़ गयी है, और माथे पर कड़ी ठण्ड के बावजूद पसीना चमक आया है। उसके दिमाग में कुछ बहुत बेहूदा-बेहूदा घट रहा है। यह अमूर्तीकरण है। इसे मूर्त करना है। अमूर्तता का जमाना पिकासो के साथ दफन हो गया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">श्रीवास्तव का सिर भारी हो गया, बेहद भारी। घड़ी देखी—पूरे पांच। वह जल्दी-जल्दी प्रूफ पढ़ने लगा। रवि जी अभी तक उसे घूर रहे थे। प्रूफ पढ़ता हुआ श्रीवास्तव फिर सोचता है कि लोग आत्महत्या के बजाय के बजाय हत्या की बात क्यों नहीं सोचते? दरअसल, जोतां वाली माता ने लोगों का दिमाग भी गरीब कर दिया है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आज इतवार था। प्रूफ पढ़कर श्रीवास्तव रजिस्टर में अपना ओवर टाइम दर्ज करवाता है। साढ़े सात से साढ़े पांच। कुल दस घंटे। महीने की तनख्वाह में बीस रुपये जोड़कर कुल एक सौ सत्तर रुपये। इन बढ़े हुए रुपयों में से वह एक जोड़ी मोजे और देब्रे की ‘रिवोल्यूशन इन द रिवोल्यूश्न’ ख़रीदेगा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पन्त जी एक नयी कविता सुना रहे हैं। लेकिन श्रीवास्तव सिर्फ एक बात सोच रहा है—विक्रम साहब।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘नवरक्त’ का विशेषांक आज प्रकाशित हुआ है, कल की डाक से पोस्ट किया जायेगा। प्रेस की घड़ी में पौने सात हो गये हैं। और देहरादून के कुछ रचनाकार हमेशा की तरह प्रेस में मौजूद हैं। श्रीवास्तव को सहसा ही प्यास लग आयी है। वह उठकर कम्पोजिंग रूम में चला गया है—जहां एक ऊंचे स्टूल पर बैठा अनूपसिंह अपनी आंखों से खून के कतरे समेट रहा है। खून! यह सन्नाटा और सूर्ख खून भी एक प्रतीक है। श्रीवास्तव सोचता है— विक्रम साहब। अनूपसिंह की औरत बच्चा जन्मते समय दम तोड़ गयी थी और अनूपसिंह की आंखों में खून के कतरे हैं। श्रीवास्तव जाकर अनूपसिंह के पास खड़ा हो गया है। अनूपसिंह के कान श्रीवास्तव के होंठों के एकदम करीब हैं और श्रीवास्तव बेआवाज चीखता है—विक्रम साहब।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">00</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अचानक ही श्रीवास्तव का पुराना चिन्तन अनायास ढह गया। नहीं, ‘अचानक’ शब्द ग़लत प्रयोग हुआ है। यह सब कुछ धीरे-धीरे लेकिन लगातार हुआ था। दरअसल, श्रीवास्तव कुछ ज्यादा ही संवेदनशील था, साथ ही अपने मूल में वह भावुक भी था। गड़बड़ी यहीं हो गयी। घृणा के आघात उसकी चेतना से लगातार टकराये और आघात-दर-आघात उसमें पैनापन भरने लगा। उसने साहित्य लिखना एकदम छोड़ दिया। साहित्य पर से उसका विश्वास उठ गया। सुकरम से उसकी खास यारी हो गयी थी और वह प्रेस के वर्कर्स के बीच अधिक उठने-बैठने लगा था। कुछ ग़लत है, जो बदलना ही चाहिए, वह सोचा करता। लन्च टाइम में वह सुकरम, मदन और शामलाल को चाय पिलाने ले गया और देर तक समझाता रहा। हमारे कथाकार ने सिर्फ एक ही शब्द सुना—विक्रम साहब।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">प्रेस बंद होने के बाद वह अनूपसिंह और बालकराम के साथ बाहर निकला और दूर तक उन्हें कुछ समझाता चला गया। हमारा कथाकार फिर देर से पहुंचा, वह एक ही शब्द सुन पाया-विक्रम साहब। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यह सिलसिला कई दिन तक चलता रहा। इस बीच सुकरम ने कई बार विक्रम साहब के साथ बदतमीजी और झगड़ा किया। एक दिन, सबके सामने, उसने जेब का चाकू निकाल कर खोला और बन्द किया। प्रूफ देखता हुआ श्रीवास्तव चुपचाप मुस्कराता रहा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक दिन मशीनमैन गुप्ता काम पर नहीं आया। उसने एक दिन पहले एप्लीकेशन भी नहीं दी थी। सारे दिन मशीन खाली रही। लाख खोजने पर भी नगर भर में कोई दूसरा मशीनमैन खाली नहीं मिला। विक्रम साहब ने हंगामा मचा दिया। उनका गुस्सा कुतुबमीनार की ऊंचाई तक पहुंच गया। कुछ अरजेन्ट वर्क जो उसी दिन देने थे, नहीं दिये गये। विक्रम साहब ने एकाउन्टेन्ट नेगी को हुक्म दिया कि गुप्ता की तनख्वाह में से घाटा पूरा किया जाये।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अगले दिन गुप्ता आया, उसका चेहरा उदास था। विक्रम साहब उसी का इन्तजार कर रहे थे। देखते ही फट पड़े। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘साहब, मेरा जो लड़का टाईफैड से बीमार था। वो गुजर गया। इसीलिए नहीं आ सका।’ गुप्ता रुआंसा हो गया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘हम क्या लड़के के ठेकेदार हैं।’ विक्रम साहब चीखे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गुप्ता की आंखों में तुरन्त खून छलक आया, लेकिन वह चुपचाप सिर झुकाये खड़ा रहा। तनख्वाह में से घाटा पूरा करने की बात पर सुकरम बाहर निकल आया और अपनी मौलिक गालियों के साथ फैल गया। विक्रम साहब वैसे ही फुके हुए थे। उन्होंने तुरन्त सुकरम का हिसाब साफ किया और उसे निकाल बाहर किया। सुकरम वहशियों की तरह उन्हें घूरता रहा फिर वह बाहर निकल गया। उस दिन पांच जनवरी थी, सात जनवरी को तनख्वाह मिलती थी। श्रीवास्तव नाक छिनकने के बहाने बाहर निकला और शाम सात बजे के बाद सुकरम से दीपक रेस्त्रां के बाहर मिलने को कहा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अगले दिन, छह जनवरी को प्रेस में मनहूसियत गश्त लगा रही थी। सब चुपचाप जल्दी-जल्दी अपना काम निपटा रहे थे। लंच टाइम में एकाउंटेंट नेगी, डिस्ट्रीब्यूटर खन्ना के अलावा बाकी सब वर्कर श्रीवास्तव के साथ एक चाय घर में जाकर बैठ गये और गुपचुप कुछ बात करने लगे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">(हमारा कथाकार भी वहां पहुंचा लेकिन उसे डांट कर भगा दिया गया। उस रात कथाकार को नींद नहीं आयी, वह काफी परेशान था, उसने खूब शराब पी ली और टुन्न हो गया। पता नहीं उसके पास पैसे कहां से आये? खैर ये व्यक्तिगत मामला है। क्या पता वो पैसे वाला हो। जरूरी थोड़े ही है कि कथाकार गरीब ही हो।)</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: center;">00</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कृप्या पाठक रुकें ओर थोड़ा अधिक अपनी-अपनी संवेदनाओं के मुताबिक अफसोस जाहिर करें क्योंकि इस जगह आकर एक जबरदस्त हादसा हो गया है। पता नहीं क्यों हमारा कथाकार पागल हो गया है। कहता है—मैं आत्महत्या करूंगा। मेरी आत्महत्या का कारण है, ये प्रेस। प्रेस तो एक प्रतीक है—बन्धु ने कहा था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मुझे लगता है, ऐसी आक्रान्त स्थितियों से गुजरते हुए कोई भी भावुक और अति संवेदनशील व्यक्ति पागल हो सकता है। अरे, आप हंस रहे हैं। एक कथाकार पागल होकर आगरे चला गया और आप में रत्ती भर भी संवदेना नहीं जागी। शर्म की बात है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सुनिए, आप भी सुनिए उसका आर्तनाद। कह रहा है—सारे क्लाड ईथरली पागलखाने में कैद हैं और दुनिया के सारे पागल बाहर घूम रहे हैं। विदा बन्धु। ब्रह्मराक्षस अकाल मौत मरता है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">खैर, कोई नया कथाकार ढूंढते हैं। आखिर कहानी को आगे तो बढ़ाना ही है। जब तक कोई नया कथाकार आये तब तक मैं ही सुनाये देता हूं। लेकिन भाई साहब। ‘कहानीपन’ का मुझे कतई नहीं पता। मैं तो इस बीच जो घटनाएं घटित हुई हैं उनका वर्णन-सा करे देता हूं। कहानीपन, स्थितियों का टैरर और कहानी की रोचकता आप स्वयं जोड़ते चलिए।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">तो, किस्सा-ए-लोग/हाशिए पर, इस प्रकार है—सात तारीख को तनख्वाह लेने के बाद आठ तारीख से प्रेस में स्ट्राइक हो गयी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">स्ट्राइक का हॉरर या टैरर जो कुछ भी होता है, आप स्वयं सोचिए।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक महीना गुजर गया। लोगों ने तनख्वाह तो ले ही ली थी। चार घंटे के अन्तर से चार-चार के गु्रप में प्रेस के सामने आठ वर्कर बैठते रहे। रवि जी ने मौके का फायदा उठाया और इससे पहले कि उनसे सवाल किया जाता कि तय करो, किस ओर हो तुम? वे अपने गांव चले गये, दो महीने की छुट्टी लेकर। नेगी और खन्ना इस हड़ताल में शामिल नहीं थे, वे विक्रम साहब के पक्षधर थे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">श्रीवास्तव ने दो-तीन विरोधी पार्टियों से सम्पर्क कर लिया था। मजदूरों के मसीहा भी वर्कर्स को समर्थन देने के लिए कभी टैक्सी में और कभी स्कूटर में आते थे। दरअसल, इस हड़ताल का श्रेय एक विरोधी पार्टी लेना चाहती थी। पार्टी के नेता एम.एल.ए. के इलेक्शन में खड़ा होना चाहते थे और इसके लिए जनआधार की ज़रूरत थी। हड़ताल की सफलता-असफलता का सीधा सम्बन्ध उनकी सफलता और असफलता से जुड़ गया था। झण्डों पर काफी प्रसिद्ध नारे लिखकर टांगे गये और स्ट्राइक की खबर पूरे नगर में फैल गयी। इस बीच श्रीवास्तव भाग-दौड़ में व्यस्त रहा। उनकी आंखों में सिर्फ विक्रम साहब थे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दूसरा महीना शुरू होते ही वर्कर्स के चेहरे स्याह पड़ गये क्योंकि उधार वाले बीच हड़ताल में ही तंग करने लगे। उनके घर वालों को राशन, पानी, दवाई और कपड़ों की किल्लत हो गयी। उधार मिलना बन्द हो गया। विरोधी पार्टी द्वारा फण्ड इकट्ठा किया गया और किसी तरह एक हफ्ता और खिंच गया। फिर वही दिक्कत! वे और उनके बीवी-बच्चे रोटी के बग़ैर तरसने लगे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जरा आप उस वक्त के संघर्ष की कल्पना कीजिए, जब भुखमरी के दैत्याकार पंजे ने उन सबको अपनी गिरफ्त में ले लिया था। उनके पास खाने को रोटियां नहीं थीं। उनके बच्चे और बीवियां फरवरी की बर्फीली ठण्ड में बिना कपड़ों के ठिठुर रहे थे। यह वह वक्त था जब विक्रम साहब भारी-भारी कीमती कपड़ों में छुपे हुए थे और मुर्गे का गोश्त तथा व्हिस्की इस्तेमाल कर रहे थे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">भई, मुझे तो लिखना नहीं आता और कथाकार हो गया पागल। बंद है। आप स्वयं ही उन संघर्षों के स्कैच अपने मस्तिष्क में बनाइये।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">श्रीवास्तव की मुसीबतें बढ़ती ही जा रही थीं क्योंकि उसी के कहने पर वर्कर्स ने हड़ताल की थी। हालांकि श्रीवास्तव को तो घर पर खाना मिल ही जाता था लेकिन वह खा नहीं पाता था। आपके साथी लगातार भूखे हों और आप रोटियां तोड़ें, इससे ज्यादा कुत्सित हरकत और कोई नहीं हो सकती।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आखिर विक्रम साहब का सिंहासन चरमरा गया। हड़ताल के कारण प्रेस की साख गिर रही थी और हजारों रुपयों का काम वापस लौट रहा था। अखबारों में रोज इस बात को उछाला जा रहा था। मजाक थोड़े ही है, नगर में मजदूरों की आठ पार्टियां हैं और तेरह अखबार। व्यवस्था भी किक्रम साहब का साथ न देने के लिए मजबूर थी। इसके दो कारण थे। एक तो इस हड़ताल को लेकर नगरवासी अतिरिक्त रूप से भावुक हो गये थे, दूसरे विक्रम साहब इतने बड़े पूंजीपति नहीं थे कि चुनावों में सत्ता को लाखों रुपया दान दिया करते। नगर की जबान पर सिर्फ हड़ताल थी और बुद्धिजीवी तक चायघरों में इसे बहस का मुद्दा बनाये हुए थे। मस्तराम के साहित्य से मुंह निकाल कर कॉलेज के छात्र अपने नेताओं से पूछते थे—शहर जला दें क्या? दफ़्तर के दो-चार क्लर्क तो इतने गुस्सा थे कि उन्होंने अपने बॉस को सलाम तक करना छोड़ दिया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आखिर मोर्चा फतह हो गया। हड़ताल तोड़ दी गयी। श्रीवास्तव ने उस रात शराब पी। उसकी सारी मांगें स्वीकार कर ली गयी थीं। वर्कर्स की तनख्वाह में पचास रुपये मासिक की बढ़ोतरी हुई, प्रेस टाइम सवा नौ से साढ़े सात के बजाय दस से छह कर दिया गया, हड़ताल के दौरान की तनख्वाह दी गयी, सुकरम को वापस काम पर लिया गया, इतवार के अलावा दस सालाना छुट्टियां और बढ़ायी गयीं, तथा सलाना बोनस की भी व्यवस्था की गयी। रातों-रात राजनीति के रंगमंच पर श्रीवास्तव के बल्ब जगमगा उठे। वह आम आदमी का मसीहा हो गया था और कमलेश्वर से मिलना चाहता था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लेकिन नगर के साहित्यकार नाराज़ हो गये। उनका कहना था, लेखक को सक्रिय राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अचानक एक और हादसा हुआ। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक दिन प्रेस में पूरी रात का ओवर-टाइम हुआ। पिछला नुकसान पूरा करने के लिए लगातार ओवर-टाइम चल रहा था फिर भी वर्कर्स खुश थे क्योंकि तीन रुपये घंटे के हिसाब से उनकी तनख्वाह में पैसे जुड़ते चले जा रहे थे। उनके दिमागों में एक लम्बे अरसे से कैद आकांक्षाएं आंखों में मचलने लगी थीं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">प्रेस के दरवाजे अंदर से बंद कर लिये गये थे। उस रात ओवर-टाइम में श्रीवास्तव सहित छह आदमी थे। गुप्ता, सुकरम, शामलाल, अनूपसिंह और खन्ना। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यह करीब रात का सवा बजे का वक्त था जब प्रेस का दरवाज़ा अचानक ही खटखटाया गया। तुरन्त सब चौंक पड़े, फिर सहज हो गये। चौंकने वालों में खन्ना शामिल नहीं था और दरवाज़ा भी तुरन्त खन्ना ने ही खोला। एकदम से दो पेशेवर किस्म के बदमाश भीतर घुस आये। यह अप्रत्याशित था, सभी हतप्रभ रह गये। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">श्रीवास्तव ने चौंक कर देखा—खन्ना ने मुस्करा कर सुकरम की तरफ इशारा किया। पलक झपकते ही एक लम्बी खुकरी सुकरम के पेट में घुस कर उसकी आंतें बाहर खींच लायी। यह एक ऐसा खौफनाक क्षण था कि सब बुत की शक्ल में खड़े रह गये। सुकरम जोर से जिबह होते बकरे की तरह चीखा फिर जमीन पर गिरकर तड़पने लगा। दोनों बदमाश हवा हो गये। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इसके बाद जो कुछ हुआ वह एकदम नाटकीय था। श्रीवास्तव फौरन ऑफिस की तरफ भागा और दरवाजे पर विक्रम साहब से टकरा गया। उनके साथ दो पुलिस वाले भी थे। आप क्या सोचते हैं वो धरती फाड़ कर निकले थे। मेरा अनुमान है कि वो विक्रम साहब के फ्लैट में पहले से ही मौजूद थे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अचानक बड़े नाटकीय अंदाज में खौफनाक लहजे के साथ खन्ना चीखा — सुकरम को श्रीवास्तव ने मारा है। खन्ना की चीख सुनते ही बाकी वर्कर्स चुप पड़ गये। श्रीवास्तव अवाक् रह गया। जब तक वह कुछ कहता, उसे पकड़ लिया गया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जिस दिन उसके मुकदमे की तारीख थी उस दिन कोई साहित्यकार कोर्ट नहीं पहुंचा क्योंकि उसी दिन दिल्ली से आये एक बड़े लेखक के सम्मान में गोष्ठी का आयोजन था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">श्रीवास्तव चीखता रहा — मुझे बताया जाये, सुकरम का कत्ल होने के एक मिनट के भीतर पुलिस कैसे पहुंच गयी? लेकिन उसकी आवाज पांच अदद गवाहों के नीचे दब कर रह गयी। उसने आश्चर्य से देखा—जिन लोगों के लिए वह लड़ा था, वही लोग एक-एक करके उसके खिलाफ गवाही देकर गये। इन्हीं लोगों के कारण श्रीवास्तव ने विक्रम साहब की दुश्मनी मोल ली और वही लोग कह गये कि सुकरम को श्रीवास्तव ने ही खुकरी मारी थी। मारने का कारण हड़ताल के दौरान की आपसी दुश्मनी बताया गया। श्रीवास्तव को लगा कि उसे पागल हो जाना चाहिए। वर्कर्स को या तो धमकी दी गयी है या ख़रीद लिया गया है, वह जानता था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: center;">00 </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">काले फौलाद के सींखचे बहुत मजबूत हैं और उनके पीछे खड़ा हुआ श्रीवास्तव बेहद कमजोर। उसकी बोलती बंद हो गयी है और आंखें खोखली। उसका चेहरा एकदम सपाट है और गाल धंस गये हैं। वह सींखचों से लगा खड़ा है। एक लंगड़ी औरत जो उसकी मां है, श्रीवास्तव सोचता है, एक बाप जो तेजी से जिन्दगी की ढलान पर लुढ़क रहा है। एक बहन जो ताड़ सरीखी हो गयी है। चार छोटे भाई। और...और...और एक कार आयेगी रात के सन्नाटे और अन्धेरे में। कार में विक्रम साहब होंगे और उसकी बहन कार में बैठकर चली जायेगी। मां सब देखेगी और गूंगी हो जायेगी, बाप अपना सिर दीवार से फोड़ लेगा। उफ! श्रीवास्तव अपना सिर सींखचों पर पटक देता है। काश मेरी सोचने की शक्ति बरबाद हो सकती। श्रीवास्तव सोच रहा है। लगातार। हवा में लटकता एक फंदा है और एक अदद गर्दन...। विक्रम साहब ठहाका लगा रहे हैं...श्रीवास्तव के भीतर जोर से कोई रोता है और नगर के साहित्यकार ‘डिलाइट’ में बैठकर कहानी के बदलते प्रतिमानों पर बहस कर रहे हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सामने एक आदमी खड़ा है, निरीह-दयनीय। उसके चेहरे की झुर्रियों से अन्तहीन यातना झांक रही है। यह श्रीवास्तव का बाप है। श्रीवास्तव बैठा-बैठा देर तक छाया को घूरता रहता है फिर भी छाया बुत की शक्ल में खड़ी रहती है। श्रीवास्तव को लगा-उसका बाप सचमुच खड़ा है। वह उठकर ठण्डे कदमों से सींखचों के करीब आता है और अचरज से सामने खड़े आदमी का चेहरा छूता है। उसे झटका लगता है। यह मूर्तता है। उसका बाप वाकई खड़ा है। वह चश्मा उतार कर साफ करता है और पहन कर फिर देखता है—सचमुच उसका बाप ही है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बाप हैरानी से श्रीवास्तव की हरकतें देखता है और अपनी बूढ़ी आंख चुपचाप पोंछता है। श्रीवास्तव कुछ कहना चाहता है लेकिन आवाज साथ नहीं देती। दरअसल श्रीवास्तव कुछ कहना ही नहीं चाहता। संवाद की स्थिति खत्म हो चुकी है। अब सिर्फ बियाबान है, जिसमें उसे सांय-सांय करना है। वह बुत रहता है और बाप सामने से हट जाता है। देर तक बाप का लौटना श्रीवास्तव अपनी सोच में साकार देखता है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘ओय हरामी। तेरे कू तेरी मां मिलने वास्ते आया।’ मुच्छड़िया सन्तरी गुर्राता है। श्रीवास्तव उठकर मिलने वाली कोठरी में चला जाता है।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘तूई तो हमारा सहारा था रे।’ मां रो पड़ती है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">श्रीवास्तव चीखना चाहता है—विक्रम साहब। लेकिन इस बार भी आवाज साथ छोड़ जाती है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— मुझे अपने दोस्तों ने धोखा दिया है मां। वह मां को बताना चाहता है। विक्रम साहब तो खैर एक दुश्मन थे। लेकिन मां ऐसी बातें नहीं समझती। वह फिर पत्थर की बेंच पर बैठ जाता है और मां का लौटना महसूस करता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— यार, श्रीवास्तव कुछ ज्यादा ही भावुक था। साहित्यकारों की बहस का यह टुकड़ा छिटक कर ‘डिलाइट’ की खिड़की से बाहर आ जाता है और तुरन्त कथाकार के पास आगरे पहुंचता है। कथाकार जोर से हंसता है—वीभत्स ठहाके के साथ और हंसता चला जाता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आज भी विक्रम साहब एक रात में दो-दो हजार रुपया हार जाते हैं और शराब के साथ औरत को पीकर विजय दर्प से मुस्कराते हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कोई नहीं सोचता किसी की ओर से और सुभाष पन्त ने एक कविता लिखी है—यह एक चरागाह की तरह समतल और खामोश शहर है। </div></div><div style="text-align: right;">
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-57623266640936319432023-11-17T12:24:00.003+05:302023-11-17T15:15:58.428+05:30मनोज पांडेय की कहानी 'खेल' | Manoj Pandey - Hindi Kahani - Khel<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on"><div><blockquote><div>अगर गलती करने पर किसी को मारा जा सकता है तो यह बात हर बड़े-छोटे पर समान भाव से लागू होनी चाहिए। ~ मनोज पांडेय </div></blockquote><div><br /></div><div>गर शब्द रंग हैं और कागज़ कैनवास तो मनोज पांडेय की कहानी ‘खेल’ बेहतरीन पेंटिंग है...पढ़िए/निहारिए ! ~ सं0 </div></div><div><br /></div><div><div><br /></div><div>पेचीदा रचना प्रक्रिया है इस कहानी खेल की।जीवन की चुनौतियों को ऐसे ही झेला जा सकता है ~ ममता कालिया </div></div><div><br /></div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEju01coxGNYLwwe-nM7bYLoZi1ntTaNvw12FmGoF5HqWbqKG7J3mssSMavt1UnXaMuAT5djW_0TQxWoEOJ9lAZM1DSUkUVNCn11zce-PXuICnlD6Fu0cbVD9_snWcq2JGbLjm5MlrZkyuLeBqIih6TblYO8k7BlIjoCw860X9Gx1LLeoAHxDCOiu9QH7Orw/s903/manoj%20pandey%20hindi%20kahani%20khel.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEju01coxGNYLwwe-nM7bYLoZi1ntTaNvw12FmGoF5HqWbqKG7J3mssSMavt1UnXaMuAT5djW_0TQxWoEOJ9lAZM1DSUkUVNCn11zce-PXuICnlD6Fu0cbVD9_snWcq2JGbLjm5MlrZkyuLeBqIih6TblYO8k7BlIjoCw860X9Gx1LLeoAHxDCOiu9QH7Orw/s16000/manoj%20pandey%20hindi%20kahani%20khel.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Manoj Pandey - Hindi Kahani - Khel</td></tr></tbody></table><br /><span><a name='more'></a></span><div style="text-align: center;"><br /></div><h1 itemprop="headline">खेल</h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">~ मनोज पांडेय </h2><div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on"><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody" style="font-size: 24px;"><div itemprop="articleBody"><span style="font-size: 11px;">7 अक्टूबर, 1977 को इलाहाबाद के एक गाँव सिसवाँ में जन्म। लम्बे समय तक लखनऊ और वर्धा में रहने के बाद आजकल फिर से इलाहाबाद में। / कुल पाँच किताबें - ‘शहतूत’, `पानी’, `खजाना’ और `बदलता हुआ देश’ (कहानी संग्रह), ‘प्यार करता हुआ कोई एक’ (कविता संग्रह) - प्रकाशित। देश की अनेक नाट्य संस्थाओं द्वारा कई कहानियों का मंचन। कई कहानियों पर फिल्में भी। अनेक रचनाओं का उर्दू, पंजाबी, नेपाली, मराठी, गुजराती, मलयालम तथा अंग्रेजी आदि भाषाओं में अनुवाद। कहानी और कविता के अतिरिक्त आलोचना और सम्पादन के क्षेत्र में भी रचनात्मक रूप से सक्रिय। / कहानियों के लिए स्वयं प्रकाश स्मृति सम्मान (2021) वनमाली युवा कथा सम्मान (2019), राम आडवाणी पुरस्कार (2018), रवीन्द्र कालिया स्मृति कथा सम्मान (2017), स्पन्दन कृति सम्मान (2015), भारतीय भाषा परिषद का युवा पुरस्कार (2014), मीरा स्मृति पुरस्कार (2011), विजय वर्मा स्मृति सम्मान (2010), प्रबोध मजुमदार स्मृति सम्मान (2006)। / फोन : 08275409685 / ई-मेल : <a href="mailto:chanduksaath@gmail.com">chanduksaath@gmail.com</a></span></div></div><div itemprop="articleBody" style="font-size: 24px;"><br /></div></div></div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">गणेश के जीवन में यह पहला मौका है जब वे घर में अकेले हैं। उन्हें अच्छा तो बहुत लग रहा है पर उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि इस अकेलेपन और आजादी का क्या करें। बबली छत के रास्ते आई थी। दोनों देर तक घुट-घुट कर बतियाते रहे। दोनों के भीतर घर में अकेले होने की सनसनी थी। इसके पहले कि यह सनसनीखेज होने की तरफ बढ़ती बबली चली गई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वह दोबारा आए इसके पहले आपको गणेश के बारे में जानना चाहिए। गणेश का पूरा नाम गणेश प्रसाद है। गणेश प्रसाद केसरवानी। वे मिश्रीलाल और कौशल्या की इकलौती सन्तान हैं। मिश्रीलाल और कौशल्या के विवाह के कई सालों बाद उनका जन्म हुआ। मिश्रीलाल कहते हैं कि गणेश का जन्म गणेश भगवान के आशीर्वाद से हुआ था इसलिए उन्होंने इनका नाम गणेश प्रसाद रखा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यह एक पतला और लम्बा सा घर है, जिसमें गणेश रहते हैं। मुश्किल से चार मीटर चौड़ा और करीब तीस-बत्तीस मीटर लम्बा। अभी पूरे घर की पुताई हुई है सो यह सब तरफ से चमक रहा है। बिजली की रोशनी में गणेश अपना ही घर पहचान नहीं पा रहे हैं। इसके बावजूद कि वे इसी घर में जन्मे और पले-बढ़े। आप कहेंगे कि सिर्फ पुताई भर हो जाने से कोई घर इतना नया कैसे हो सकता है कि पहचान में ही न आए। इतनी दूर की तो विज्ञापन वाले भी नहीं फेंकते।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आप सही कह रहे हैं पर इसलिए कह रहे हैं कि आप न गणेश के बारे में कुछ जानते हैं न उनकी उस लड़ाई के बारे में जिसे वे साल भर से लड़ते रहे हैं। उसी लड़ाई का सुफल है कि गणेश आज घर में अकेले हैं। माँ मिश्रीलाल के साथ अपने मायके गई हैं और मिश्रीलाल माँ के साथ अपनी ससुराल। कहने को दोनों एक ही बातें हैं पर दोनों के बीच पहाड़ जैसा अन्तर है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गणेश अपने पिता को मिश्रीलाल कह कर ही पुकारते हैं। बचपन में कौशल्या ने उन्हें सुधारने की बहुत कोशिश की पर गणेश की तोतली जबान में मिश्रीलाल अपना नाम सुनकर चहक उठते। उन्हें अपना नाम इतना सार्थक और प्यारा इसके पहले कभी न लगा था। गणेश बड़े हुए तो यह स्थिति बदल गई। बाद में तो उन्होंने इस बात की जी-तोड़ कोशिश की कि गणेश उन्हें पापा बुलाने लगें। कई बार मार भी पड़ी पर बात नहीं बनी तो नहीं बनी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"> गणेश के माथे पर जो दाग है वह तब का है जब मिश्रीलाल ने पापा बनाम मिश्रीलाल के मसले पर नाराज होकर पाव का बटखरा उनके ऊपर फेंक मारा था। गणेश रो रहे थे, कौशल्या उनके साथ-साथ रो रही थीं। मिश्रीलाल अपनी दुकान से फिटकिरी का एक टुकड़ा लेकर आए थे और पत्नी से कहा था कि इसे पीसकर घाव पर लगाकर पट्टी बाँध दो। कौशल्या रोते हुए लगातार बड़बड़ाती रही थीं कि किस निर्मोही आदमी के पल्ले बँध गई हैं जिसके ऊपर एकलौते पूत का दर्द भी नहीं व्यापता। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"> कौशल्या आधी ही सही थीं। मिश्रीलाल ने कुछ कहा भले नहीं पर दिन भर उनका हिसाब गड़बड़ होता रहा। यही नहीं उस दिन के बाद मिश्रीलाल कहने पर भी उन्होंने गणेश की बातें वैसे ही सुनीं जैसे कि पापा या बाबू कहने पर सुनते। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ऐसा नहीं है कि गणेश ने उन्हें पापा या बाबू कहने की कभी कोशिश नहीं की या कि जानबूझकर किसी जिद वश उन्हें मिश्रीलाल कहते रहे। बात इसकी उल्टी ही थी। गणेश ने अपनी तरफ से बहुत कोशिश की थी कि मिश्रीलाल की जगह पर पापा कहें। अकेले में बहुत सारा अभ्यास किया था पर जब भी वे सामने होते पापा कहते जबान को जैसे लकवा मार जाता। गणेश भीतर से पापा बोलते पर बाहर जो आवाज निकलती वह हमेशा मिश्रीलाल होती।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">घर के आगे वाले हिस्से में मिश्रीलाल की किराने की दुकान है। दुकान की बगल से एक पतला सा रास्ता दुकान के पीछे वाले कमरे में खुलता है। इसके बाद तीन कमरे और हैं। फिर आँगन है। आँगन में लाल गूदे वाले अमरूद का पेड़ है, जिसके नीचे एक चापाकल है। आँगन के बाद रसोई है। रसोई में जल निगम का नल लगा हुआ है, जिसमें सुबह घंटे भर पानी आता है। कौशल्या का रोज सुबह का एक काम यह भी है - घर के सभी बर्तनों में जरूरत का पानी भर के रखना। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">रसोई के बाद फिर से दो कमरे हैं। कुछ इस तरह से जैसे माचिस की बहुत सारी डिब्बियाँ एक दूसरे से जोड़कर रख दी गई हों और उनके बीच एक से दूसरी डिब्बी में जाने के लिए रास्ता बना दिया गया हो। बिना किसी योजना के। कैंची उठाई और जहाँ मन किया काट दिया। घर के एकदम पीछे वाले हिस्से में शौचालय और स्नानघर बना हुआ है। शौचालय का प्रयोग सब करते हैं पर स्नानघर का प्रयोग कौशल्या के अलावा और कोई नहीं करता। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">घर के पीछे से कभी एक नहर गई थी जिसमें अब भी कभी कभी पानी आ जाता है। बाकी समय में वह मुहल्ले भर का कचरा, गंदा पानी और मल मूत्र अपने भीतर समोए बहती रहती है। मुहल्ले के ज्यादातर लोग अपने घरों का कूड़ा भी इसी नहर में ही फेंकते हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कहने को दुकान सिर्फ आगे वाले कमरे में है पर घर का शायद ही कोई ऐसा हिस्सा हो जिसमें दुकान का कोई सामान न रखा हो। यह पूरा घर एक अव्यवस्थित गोदाम जैसा था जिसमें घर के तीनों सदस्य चूहों और काक्रोचों से बस थोड़ी ही बेहतर स्थिति में रहते। चूहे और काक्रोच घर में कुछ इस कदर फैले हुए थे कि नींद और सपनों तक में जगह घेरने लगे थे। यहाँ तक कि जब गणेश ने डायरी लिखनी शुरू की तो उनकी डायरी का दूसरा ही पन्ना काक्रोच और चूहों के बारे में था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">चूहे और काक्रोच मिश्रीलाल की सनक थे। वे दिन भर काक्रोच और चूहे मारते रहते। मिश्रीलाल मरे हुए काक्रोचों को पीछे की नहर में फेंक आते पर पता नहीं कहाँ से अगले दिन उतने ही चूहे और काक्रोच फिर से प्रकट हो जाते। कई बार गणेश को लगता कि वे उन्हीं मरे हुए काक्रोचों के प्रेत हैं जो मिश्रीलाल से बदला लेने के लिए बार बार लौट आते हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पूरा घर मरे हुए काक्रोचों की गन्ध से भरा रहता। इस असहनीय गन्ध से बचने के लिए गणेश हींग, कपूर, कोई तीखी महक वाला तेल या लाल दन्त मंजन जैसी चीजें सूँघते रहते। कई बार कुछ भी सूँघने पर यह मरी गन्ध पीछा नहीं छोड़ती तब गणेश घर से बाहर भागते कि खुली हवा में साँस ले सकें। यहाँ तक कि घर के पीछे की नहर की गन्ध भी गणेश को अपने घर से बेहतर लगती जिसमें मुहल्ले भर की गन्दगी बजबजाती हुई बहती रहती। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">माँ अक्सर पूछती कि गणेश उस बजबजाती नहर में क्या झाँकते रहते हैं। गणेश ने इस सवाल का जवाब कभी नहीं दिया। तब गणेश लोहे का वह किवाड़ बन्द करते और छत पर चले जाते। गाँव में जैसे एक दूसरे से जुटे हुए बहुत सारे खेत होते हैं वैसे ही यहाँ एक दूसरे से जुटी हुई बहुत सारी छतें हैं। हो सकता कभी यहाँ भी खेत ही रहे हों पर आज इससे क्या फर्क पड़ता है। असली बात यह है कि छत पर से देखने पर पीछे की तरफ अभी भी खेत और बाग दिखाई पड़ते हैं। गणेश अक्सर वहाँ जाते हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">घर में कई और भी अजीबोगरीब बातें थीं। जैसे कि घर के हर कमरे में घड़ियाँ टँगी हुई थीं। ये घड़ियाँ दुकान में बिकने वाले तमाम सामानों के साथ उपहारस्वरूप आई थीं। उनमें सामानों का प्रचार छपा हुआ है। ये घड़ियाँ टिकटिक करते हुए एक दिन चुपचाप बन्द हो जातीं। दोबारा चलने के लिए इन्हें सेल चाहिए और सेल कोई भी कम्पनी मुफ्त में नहीं देती। सेल वाली कम्पनियाँ भी नहीं कि चाहिए बैटरी माँगिए निप्पो।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इसी तरह बहुत सारी कलमें जहाँ तहाँ पड़ी रहतीं जिनकी रिफिल की स्याही सूख चुकी होती। जर्दा-जाफरानी, बंधानी हींग, जय दुर्गे अगरबत्ती, हिन्दी सवार बीड़ी से लेकर चूहामार दवा तक के सालों-साल पुराने बहुत सारे कैलेंडर थे जो दीवारों पर एक के ऊपर एक टँगे रहते। ज्यादातर कैलेंडरों में देवी-देवताओं के काल्पनिक चित्र थे तो कुछ ऐसे भी थे जिनमें कुछ प्राकृतिक दृश्य मसलन पहाड़, जंगल, नदी या झरने आदि की तसवीरें भी होतीं। कुछ में सीधे सीधे उनका प्रोडक्ट छपा रहता। नया साल आता तो पुराने कैलेंडरों के ऊपर नए कैलेंडर टाँग दिए जाते। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">घर के अलग-अलग हिस्से अलग-अलग समय जी रहे थे। किसी कैलेंडर में जनवरी चल रही होती तो किसी दूसरे में अगस्त। एक घड़ी में कुछ बजा होता तो दूसरी में कुछ दूसरा। बल्कि ज्यादातर में तो समय रुक ही गया था। इस तरह से पूरे घर में समय भयानक अराजक रूप में पसरा हुआ था। गणेश इस अराजकता के साथ खेलना सीख ही रहे थे कि उनके हाथ एक डायरी लग गई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यह डायरी किसी सुगन्धित तेल के जरिए आई थी। इसके हर पन्ने पर सुगन्धित तेल की शीशी बनी हुई थी। हालाँकि इसमें कोई गन्ध नहीं थी पर गणेश जब भी इसे अपने हाथ में लेते उन्हें सुगन्धित तेल की तीखी गन्ध आती। गणेश देर तक तेल की उस तीखी गन्ध में अपनी नाक डुबोए रखते। शुरुआत के दिनों में डायरी लिखना भी उनके लिए एक ऐसी ही चीज थी। देर तक नाक को डुबोए रखने वाली चीज। इसमें गणेश वह सब कुछ लिख सकते थे जो वह सोचते थे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">युवाओं वाले सारे स्वाभाविक आवेग गणेश के भीतर थे। इसी आवेग के साथ वे अपने घर के बारे में सोचते और उन्हें कुछ समझ में न आता। उनका डायरी लिखना बस इसे समझने की एक छोटी-सी कोशिश थी। फिर तो इसमें वह सब बातें शामिल होती गईं जो उनके दिल और दुनिया का हिस्सा थीं। बस बबली की बात वे कभी नहीं लिख पाए। किसी ने देख लिया तो! बबली उनके भीतर भरी हुई थीं पर डायरी में अभी उसके नाम तक की इन्ट्री नहीं हुई थी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जबकि उनके डायरी लिखने की शुरुआत ही बबली की तरफ आकर्षित होने से शुरू हुई। जैसे ही उनके भीतर प्रेम के फूल खिले, उनका सोचने समझने का तरीका ही बदल गया। अब तक जिन चीजों पर उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया था वे एकदम ठोस होकर उनके भीतर का हिस्सा बन गईं। जब वे बबली की खूबसूरती की तरफ आकर्षित हुए तो उन्हें दुनिया भर की बदसूरती भी ज्यादा साफ होकर दिखने लगी। उन्हें यह सब देखने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं थी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">डायरी में गणेश ने सबसे पहले घर में फैली हुई बू के बारे में लिखा। माँ के बारे में लिखा। पीछे की नहर के बारे में लिखा। दीवालों पर टँगी हुई बन्द घड़ियों के बारे में लिखा। एक के ऊपर एक टँगे हुए कैलेंडरों के बारे में लिखा। टँगे हुए कैलेंडरों के पीछे की दीवाल के बारे में लिखा। दुकान और ग्राहकों के बारे में लिखा। अपने दोस्तों के बारे में लिखा। स्कूल के अध्यापकों के बारे में लिखा और लगातार लिखते ही गए।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">घर में बहुत दिनों तक किसी को पता भी नहीं चला कि गणेश डायरी लिखने जैसा एक ऐसा काम कर रहे हैं जो इस खानदान में शायद ही कभी किसी ने किया हो। तो इसी क्रम में एक दिन गणेश ने मिश्रीलाल के बारे में लिखा। उनके गन्दे पाजामे, बंडी और कमीज के बारे में लिखा। गणेश ने मिश्रीलाल की दुकान के बारे में लिखा। उनके कानों के लम्बे-लम्बे बालों के बारे में लिखा। उनके हिसाब-किताब में डूबे रहने को लिखा। कमाल की बात यह थी कि गणेश ने यह सब मिश्रीलाल की गद्दी पर बैठकर लिखा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मिश्रीलाल दुकान का सामान लाने गए थे। दुकान गणेश के हवाले थी। दोपहर का समय था। ग्राहकों का आना-जाना न के बराबर था। गणेश ने लिखा और लिख कर भूल गए। यह भूलना कुछ इस कदर था कि गणेश वह डायरी वहीं दुकान में छोड़ कर चले आए। इस तरह उनकी डायरी मिश्रीलाल के हाथ लग गई। मिश्रीलाल ने अनायास ही उसे पलटा और फिर पलटते ही रहे। डायरी में ऐसी तमाम बातें थी जो किसी भी तरह से उनके हिसाब-किताब में नहीं समा रही थीं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मिश्रीलाल ने गणेश को बुलाया। वह उसी गद्दी पर बैठे हुए थे जिस पर बैठकर गणेश ने डायरी में अपनी बातें दर्ज की थी। उन्होंने गणेश से कहा कि वह क्या वाही-तबाही सोचता रहता है और उसकी हिम्मत क्या इस कदर बढ़ गई है कि वह सरेआम अपने बाप के बारे में जो मर्जी आएगी सो लिख देगा। लोग सही कहते हैं कि ज्यादा पढ़ने-लिखने से दिमाग खराब हो जाता है। मिश्रीलाल ने कहा कि क्या तुम इतने मनबढ़ हो गए हो कि ये घर तुम्हें भूतों का डेरा नजर आता है। जिस दिन चवन्नी भी कमाने लायक हो जाना उस दिन बात करना। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गणेश मुँह लटकाकर चले आए। उन्हें शर्म और गुस्सा एक साथ आ रहे थे। गलती मिश्रीलाल की न होकर उनकी ही थी। वे डायरी दुकान में कैसे छोड़कर आ सकते थे। पर यहीं पर यह बात भी उनके ध्यान में आई कि मान लो कि यह डायरी उनके कमरे में ही रखी होती और मिश्रीलाल के हाथ लग जाती तो क्या वे इसे नहीं पढ़ते। शर्तिया पढ़ते। तो क्या किया जाय? यह कैसे हो कि गणेश जो भी लिखें उसे मिश्रीलाल तो क्या कोई भी और न पढ़ पाए। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दिन भर की मेहनत के बाद गणेश ने अपनी डायरी लिखने का एक नया सूत्र तैयार किया। सूत्र था - अ+5 = अ। यानी कि गणेश को जो भी अक्षर लिखना होगा, गणेश वह न लिखकर उसके आगे का पाँचवाँ अक्षर लिखेंगे। यानी कि क की जगह पर च। यह तय करते ही गणेश ने अपनी पीठ ठोकी और मान लिया कि उनकी निजता हमेशा-हमेशा के लिए सुरक्षित हो गई है। इसके बाद गणेश ने अपने कमरे में बैठकर दोबारा डायरी लिखी और इस बात के लिए मिश्रीलाल की काफी मजम्मत की कि उन्हें अपने बेटे की निजता की परवाह नहीं है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गणेश ने जान-बूझकर अपनी डायरी सामने ही पड़ी रहने दी। ऐसी जगह पर जहाँ उस पर मिश्रीलाल की नजर जाए ही जाए। गणेश ने डायरी इस तरह से रखी कि अगर वह हवा से भी हिले तो गणेश को पता चल जाए। अपनी समझ में गणेश ने बड़ा तीर मार लिया था पर मिश्रीलाल के भीतर उनकी डायरी को लेकर एक सघन उत्सुकता घर कर गई थी। दूसरे दिन ही गणेश को पता चल गया कि मिश्रीलाल इतने भी बोदे नहीं हैं जितना वे उन्हें समझे हुए थे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मिश्रीलाल ने गणेश को बुलाया और पूछा कि चल क्या रहा है तुम्हारे दिमाग में? क्या तुम सलीम की तरह अपने पिता अकबर से बगावत पर उतारू हो? मिश्रीलाल ने कहा कि ऐसे खेल वे बहुत खेल चुके हैं। उन्होंने एक तंजिया हँसी के साथ गणेश को चुनौती-सी दी कि खेलना ही है तो कुछ कठिन खेलो, तुमको भी मजा आए और मेरा भी कुछ मनोरंजन हो। मुझे भी तो पता चले कि बगावत की आग कहाँ तक पहुँची है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गणेश शर्म और गुस्से से गड़ गए पर जैसे ही वह पिता के सामने से हटे, एक ढीठपना उनके अन्दर दोबारा आ बैठा। इसी के साथ गणेश को अपनी गलती समझ में आई। गणेश ने जो फार्मूला बनाया था उसमें व्यंजन तो अपनी जगह बदल रहे थे पर मात्राएँ जस की तस बनी हुई थीं। बाकी की कमी वाक्य के अन्त पर पूरी हो गई होगी। है की जगह खै, था की जगह फा। कितने मूर्ख थे गणेश! दिन भर हिसाब-किताब में डूबे रहने वाले मिश्रीलाल के लिए इतना आसान सा सूत्र! </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अगला पूरा दिन गणेश ने नया सूत्र बनाने में लगा दिया। इस बार मात्राओं की जगह भी बदली। है, हैं, था आदि में कुछ निर्रथक अक्षर जोड़े और उन्हें वाक्य की शुरुआत में ही ले आए। अब उनके पास एक नई भाषा थी। और जब मिश्रीलाल खुद को अकबर और गणेश को सलीम सम्बोधित कर ही चुके थे तो जरूरी हो गया था कि डायरी में अनारकली की इन्ट्री भी करवा ही दी जाय। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यहीं पर मिश्रीलाल के बारे में वह बात बता दी जाय जो शुरू में छूट गई थी और उनकी पूरी धज के साथ जरा भी मेल नहीं खाती। मिश्रीलाल कस्बे के इकलौते सिनेमाहाल गंगा टॉकीज में लगने वाली सारी फिल्में देखते हैं। शुक्रवार को बाजार बन्द रहता है इसलिए मिश्रीलाल का शुक्रवार की शाम छ्ह से नौ का शो फिक्स है। बस यही एक चीज थी जो अभी भी उन्हें पुराने मिश्रीलाल से जोड़े हुई थी। अकबर और सलीम ने इसी रास्ते से उनके भीतर जगह ली होगी और अब अनारकली की इन्ट्री गणेश की तरफ से होगी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अगले दिन अपने नए सूत्र का प्रयोग करते हुए गणेश ने फिर से डायरी लिखी। डायरी में उन्होंने दो छत दूर की अपनी अनारकली बबली के बारे में लिखा। बबली के सामने यह बात कहने की हिम्मत उनमें नहीं थी। पर जब वे डायरी लिखने बैठे तो उनमें यहाँ तक हिम्मत आ गई कि उन्होंने उसका हाथ पकड़कर उसे अपने पास बैठा लिया। बबली ने भी हाथ छुड़ाने की कोई कोशिश नहीं की और गणेश से सटकर बैठ गई। ये सब लिखते हुए गणेश के भीतर ऐसी सनसनाहट प्रकट हुई जैसे सच में ही बबली उनसे सटकर बैठी हो। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जब यह रोमांच कम हुआ तो न जाने कैसे गणेश को माँ की याद आ गई। जब माँ बबली की उम्र की रही होंगी तब कैसी दिखती रही होंगी! माँ की तब तक शादी हो गई थी। क्या पता गणेश पेट में भी रहे हों। कल्पनाओं में माँ बबली से ज्यादा खूबसूरत लगी। तब गणेश ने मिश्रीलाल के बारे में सोचा। गणेश की उमर में उनकी शादी हो गई थी। क्या मिश्रीलाल तब गणेश की तरह दिखते रहे होंगे? दोनों क्या कभी वैसे ही सटकर बैठे होंगे जैसे अभी वह और बबली बैठे हुए थे। गणेश जिस गति से यह सब सोच रहे थे लगभग उसी गति से यह सब लिखते भी जा रहे थे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">तभी यह सवाल भी कागज पर उतरा कि गणेश माँ के बारे में इतना कम क्यों सोचते रहे हैं, जबकि मिश्रीलाल अच्छे या बुरे किसी न किसी रूप में उनके खयालों में हमेशा रहे हैं। क्या मिश्रीलाल ने कभी माँ की सुन्दरता पर ध्यान दिया होगा या हमेशा हींग और मसालों की गन्ध में ही खोए रहे होंगे? क्या दुकान का हिसाब-किताब दुरुस्त रखने के चक्कर में मिश्रीलाल के हाथ से जीवन का हिसाब-किताब फिसलता गया है! </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">डायरी जिस दिशा में जा रही थी वह गणेश के लिए छोटे मुँह बड़ी बात थी। लिखते-लिखते गणेश रुक गए। उन्होंने डायरी बन्द की और माँ के पास जाकर बैठ गए। माँ सब्जी काट रही थी। गणेश बगल में बैठकर लहसुन छीलने लगे। माँ ने गणेश को लहसुन छीलते देखा तो चौंक-सी गई। माँ ने कहा कि तुम जाओ काम करो अपना। यह मैं कर लूँगी। गणेश ने कहा कि उनके करने में क्या दिक्कत है। किसी को तुम्हारा हाथ भी तो बँटाना चाहिए। माँ मुसकराई, फिर बोली, तो शादी कर दें अब तुम्हारी?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">रात में जब गणेश लेटे तो उन्हें यह बात याद आई कि आज उन्होंने जीवन में पहली बार लहसुन छीला है। इसी के साथ भीतर यह सवाल भी उभरा कि माँ कितने सालों से लहसुन छील रही है? और क्या कभी मिश्रीलाल ने भी लहसुन छीला होगा? माँ के साथ या कि अपनी माँ के साथ। फिर गणेश को माँ की मुसकराहट याद आई। गणेश ने याद करने की कोशिश की कि इसके पहले माँ को मुसकराते हुए उन्होंने कब देखा था। गणेश को नहीं याद आया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इसी मुसकराहट की डोर के सहारे उन्हें माँ द्वारा उनकी शादी को लेकर किया गया मजाक याद आया। और जब यह याद आया तो साथ-साथ बबली भी वापस आ गई। गणेश डायरी वापस ले आए और जहाँ पर बात छोड़ी थी उसके आगे उनके मन के बाहर या भीतर जितनी भी बातें थीं सब लिख डालीं। लिखने के क्रम में गणेश - जो अपने इस नाम से अक्सर दुखी रहते थे - ने अपना नया नामकरण किया... बबलू। बबली की तर्ज पर। जैसे ही गणेश ने यह किया उनके भीतर कुछ जोर से बजा जिसकी गूँज में वे देर तक बजते रहे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सुबह गणेश छत पर गए तो गणेश को लगा कि बबली उन्हें देखकर मुसकरा रही हैं। वे अपने आप से ही चौंक गए। बबली की मुसकराहट गणेश को अच्छी लगी। उन्होंने हाथ ऊपर उठाया और इस तरह से हिलाया जिसे हाथ हिलाना भी माना जा सकता था और हाथ झटकना भी। जवाब में बबली ने भी हाथ हिलाया जिसे हर हाल में हाथ हिलाना ही कहा जा सकता था। गणेश का दिल इतनी तेज धड़क रहा था कि अगर वह अपने सीने पर हाथ न रख लेते तो वह बाहर ही आ जाता। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कॉलेज में गणेश का कुछ खास मन न लगा। दिन भर वे बबली के खयालों में खोए रहे। अचानक कोई खुशबू आती और उन्हें महका कर चली जाती। वे बिना किसी बात के खुद को खुशी से भरा हुआ पाते तो दूसरे ही पल उतनी ही उदासी उनके भीतर बरस रही होती। दोपहर बाद जब वे कॉलेज से लौटे तो साथ में कॉलेज की एक भी स्मृति उनके साथ नहीं आई। वे बबली के साथ गए थे और बबली के साथ ही लौट आए। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">घर आने के बाद गणेश किसी न किसी बहाने छत पर पहुँच जाना चाहते थे। यह शुक्रवार का दिन था। मिश्रीलाल घर में नहीं थे। वे कहीं गए थे और वहाँ से उन्हें गंगा टाकीज में पिक्चर देखते हुए लौटना था। गणेश माँ के साथ बैठे हुए कुछ इधर-उधर की बतिया रहे थे पर उनका मन छत पर भटक रहा था। थोड़ी देर में गणेश छत पर पहुँच गए पर बबली तो क्या बबली की परछाईं भी कहीं नहीं दिख रही थी। बबली को क्या पता कि गणेश छत पर आए हैं, गणेश ने खुद को दिलासा दी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अगले दिन गणेश सोकर उठे ही थे कि मिश्रीलाल कमरे में डायरी लहराते हुए हाजिर थे। उन्होंने बिना कुछ पूछे गणेश को थप्पड़ मारा कि अब तुम इतने बड़े हो गए हो कि माँ-बाप की प्रेमकहानी लिखोगे? तुम माँ-बाप के जीवन में झाँकोगे? और ये बबली कौन है जिससे तुम अपनी माँ की तुलना कर रहे थे। इसके बाद मिश्रीलाल ने एक कहावत कही जिसका मतलब यह था कि अभी पिछवाड़ा साफ करना तो आया नहीं और चले हैं बड़ी-बड़ी बात करने। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मिश्रीलाल का अचानक गरजना-बरसना कौशल्या की समझ में ही नहीं आया। जब उन्होंने पूछा कि हुआ क्या तो मिश्रीलाल ने कहा कि तुम्हीं ने इनको बिगाड़ कर रखा है नहीं तो इन्हें तो मैं एक दिन में तारे दिखा दूँ। जाहिर है कि कौशल्या को अब भी कुछ समझ में नहीं आया। जब तक वे दोबारा कुछ बोलतीं तब तक मिश्रीलाल रोज की तरह दुकान खोल रहे थे और गणेश ने चुप्पी साध ली थी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गणेश समझ नहीं पा रहे थे कि उन्होंने ऐसी कौन सी बात डायरी में लिख दी जिससे माँ या पिता का अपमान या अवमानना होती थी। बहुत पहले जब मिश्रीलाल ने पापा की जगह मिश्रीलाल कहने पर बटखरा फेंक मारा था तब से यह पहली बार था जब उन्होंने गणेश पर हाथ उठाया था। गणेश अवाक और स्तब्ध से थे जब उन्होंने एटलस खोली। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">भूगोल गणेश का प्रिय विषय है और एटलस देखते हुए तो वे पूरा का पूरा दिन बिता सकते हैं। नक्शे उन्हें इस तरह से रट गए हैं कि वे आँख मूँदे-मूँदे भी चाड, फिजी, पापुआ न्युगिनी, एस्टोनिया या बुर्किना फासो पर सही-सही उँगली रख देते हैं। वे इन देशों के बारे में और जानना चाहते हैं पर उनकी कोर्स की किताबें बस जरा-सा बताकर चुप हो जाती हैं। वे इन देशों के बारे में एक खास तरह की कल्पना में खोए रहते हैं। इस कल्पना में तरह-तरह के लोग हैं। तरह-तरह के भोजन हैं। कभी न देखे गए जीव-जन्तु हैं और पता नहीं क्या-क्या है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गणेश जब कॉलेज के लिए निकले तो उनकी कॉलेज जाने की जरा-सी भी इच्छा नहीं हुई। उनके गालों पर मिश्रीलाल की उँगलियों के निशान थे जिन्हें धीरे-धीरे ही मद्धिम पड़ना था। वे नहर के दूसरी तरफ के उस बाग में चले गए जो उन्हें हमेशा अपनी तरफ बुलाता रहता था। जैसे जादू के जोर से वहाँ उन्हें बबली मिल गईं जो अपनी किसी दोस्त के साथ वहाँ पर पहले से ही उपस्थित थीं। वे अपने में इस तरह से उलझे हुए थे कि यह भूल ही गए थे कि बबली यहाँ पर उनसे ही मिलने आई हैं। उन्होंने बबली को देखा और अचम्भे से भर गए। फिर उनका हाथ अनायास ही अपने गाल पर जाकर रुक गया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दूसरी तरफ मिश्रीलाल का हिसाब दिन भर गड़बड़ाता रहा। वे किसी को ज्यादा किसी को कम लौटाते रहे। उन्हें बार-बार वह बटखरा याद आता रहा जिससे उन्होंने बचपन में गणेश को चोट पहुँचाई थी। आखिर गणेश ने गलत क्या लिखा था जिस पर उन्हें इतना गुस्सा आया। यह सवाल मिश्रीलाल ने बार-बार अपने आप से पूछा और उन्हें एक बार भी इस बात का कोई सन्तोषजनक जवाब न मिला। कौशल्या अलग नाराज थीं। सुबह से उन्होंने मिश्रीलाल की तरफ देखा भी नहीं था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गणेश रोज के समय पर घर लौटे। उनके बाएँ गाल पर अभी भी मिश्रीलाल की उँगलियों के निशान छपे हुए थे। मिश्रीलाल दुकान पर ही थे। उन्होंने एक चोर-नजर से गणेश को आते हुए देखा और हिसाब-किताब में डूब गए। कौशल्या ने गणेश के लिए खाना परोसा और जब गणेश खा रहे थे तब कौशल्या की उँगलियाँ गणेश के गालों पर आईं और आकर चली गईं। बदले में गणेश और कौशल्या की आँखों में एक साथ आँसू आए और देर तक आँखों में ही टँगे रहे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">रात में गणेश डायरी लिखने बैठे तो उनसे कुछ लिखा नहीं जा रहा था। उनके मन में आया कि बहुत हुआ। अब ये खेल बन्द ही हो जाना चाहिए। गणेश इस बात से आहत थे कि मिश्रीलाल ने फाउल खेला था। उन्होंने अगर कुछ गलत लिखा था तब भी वह थप्पड़ जायज नहीं था जो उनके गाल पर पड़ा था। अगर गलती करने पर किसी को मारा जा सकता है तो यह बात हर बड़े-छोटे पर समान भाव से लागू होनी चाहिए। खेल के नियम पिता और पुत्र के लिए अलग-अलग नहीं हो सकते।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गणेश ने तय किया कि वे खेल के बीच में मैदान छोड़कर नहीं भागेंगे। वे मिश्रीलाल को बाध्य करेंगे कि वे खेल के नियमों का पालन करें। इसके लिए सबसे पहले उन्हें एक नया सूत्र चाहिए था। उनके पिछले सारे सूत्र मिश्रीलाल ने डिकोड कर लिए थे। गणेश इस बात से अभी भी अचरज में थे पर इस बात ने उनके भीतर पिता का कद बढ़ा दिया था। इसलिए इस बार वे उनके सामने ऐसी चुनौती पेश करना चाहते थे जिसका कोई तोड़ मिश्रीलाल के पास न हो। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गणेश ने इस बार अपने लिए एक नई लिपि ही बना डाली। हर अक्षर के लिए नया निशान, हर मात्रा के लिए नया संकेत। यह मिश्रीलाल के फाउल का जवाब था। अपनी नई लिपि में उन्होंने अपना पूरा दिन लिख डाला। वह सब लिखा जो सुबह से उन्हें मथ रहा था। मिश्रीलाल के बारे में वह सारी बातें लिखीं जो उनकी आँख में तिनके की तरह करकती रहती थीं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गणेश ने दोबारा अपने घर को भूतों का डेरा लिखा। उन्होंने माँ की इस पुरानी शिकायत पर लिखा कि मिश्रीलाल कभी भी उनके साथ गणेश के मामा के यहाँ नहीं गए। उन्होंने लिखा कि इस घर में काक्रोच ही काक्रोच हैं और इससे भी गिजगिजी बात यह है कि सबसे बड़े वाले काक्रोच मिश्रीलाल हैं। उन्होंने घर में सब तरफ पसरी हुई असहनीय गन्ध के बारे में लिखते हुए उन सब का स्रोत मिश्रीलाल को बताया और यह सब लिखकर मिश्रीलाल के सिरहाने रख आए। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मिश्रीलाल अँधेरे कमरे में आँख मूँदे लेटे हुए थे। उनकी आँखों में वह दृश्य बार बार चुभ रहा था जिसमें वह गणेश को थप्पड़ मार रहे थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि उनके अन्दर अचानक इतना गुस्सा कहाँ से आ गया था। गलत क्या लिखा था गणेश ने। यही तो सही शकल है उनकी। तो क्या वे अपनी ही शकल बर्दाश्त नहीं कर पाए थे। इस सवाल के सन्नाटे में जब वे अपने भीतर उतरे तो उनकी डबडबाई हुई आँखों में एक के बाद एक न जाने कितनी फिल्में गड्डमड्ड होती गईं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यह सब एक अन्यायी बँटवारे से शुरू हुआ था। पिता की मौत के बाद दुकान मिश्रीलाल के बड़े भाई मेवालाल सँभालते थे। मिश्रीलाल उन दिनों बड़े भाई की भक्ति और कौशल्या के खुमार में एक साथ खोए हुए थे। यह खुमार तब टूटा जब एक दिन उन्हें पता चला कि दुकान बड़े भाई ने पूरी तरह से अपने नाम कर ली है। मेवालाल का कहना था कि जब उन्होंने दुकान सँभाली तब दुकान टूटने के कगार पर ही थी और जब वे अपनी जवानी गलाकर दुकान दोबारा खड़ी कर रहे थे तब मिश्रीलाल ऐश कर रहे थे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मिश्रीलाल भाई की इस बेईमानी से सदमे जैसी हालत में थे। ऊपर से बड़े भाई के प्रति उनकी भक्ति और प्रेम को लेकर कौशल्या द्वारा मारे गए ताने ने उन्हें अपने ही भीतर कैद कर दिया। वे एक तरफ जहाँ कौशल्या से दूर होने लगे वहीं दूसरी तरफ भीतर यह भी जिद उभरी कि वे भी दुकान ही चलाएँगे और बड़े भाई से बेहतर और बड़ी दुकान चलाकर दिखाएँगे। कौशल्या जब तक इस बात को समझ पातीं तब तक वे प्रेमी की बजाय हमेशा हिसाब-किताब में डूबे रहने वाले दुकानदार बन चुके थे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"> इस पूरी रात उनका अपना जीवन उनके सामने ऐसे चलता रहा जैसे वह बड़े पर्दे पर कोई फिल्म देख रहे हों। इसमें पुरानी पारिवारिक फिल्मों की तरह समर्पिता पत्नी कौशल्या थीं। कौशल्या से उनका अपार प्रेम था। उन दोनों का इकलौता बेटा गणेश था जिस पर दोनों नेह लुटाते रहते थे। इसके बाद बेईमान भाई था। कौशल्या का तंज था। वैराग्य जैसी तटस्थता में बदलता हुआ प्रेम था। घर भर में पसरी हुई दुकान थी। गणेश को मारा गया थप्पड़ था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आज जब वे अपना खुद का सिनेमा देख ही रहे थे तो उन्हें ऐसे बहुत सारे दृश्य दिखाई पड़े जो पहले देखने से रह गए थे। उन्हें कौशल्या के दुख और रुलाइयाँ दिखाई पड़ीं। कौशल्या के जिस तंज ने मिश्रीलाल को पूरी तरह से बदल दिया था वह गलत था क्या! कौशल्या ने उन्हें मेवालाल के बारे में बार-बार चेताया था पर हर बार उन्होंने कौशल्या को झिड़क ही दिया था। इसके बावजूद कौशल्या ने हर बार उन्हें माफ कर दिया था। वे ऐसा क्यों नहीं कर पाए? </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"> उधर कौशल्या अलग ही गुम थीं। उन्हें उस तनाव भरे खेल के बारे में कुछ नहीं पता था जो पिता और पुत्र के बीच चल रहा था। घर में तीन लोग थे और तीन अलग अलग कमरों में आँखें बन्द किए पड़े थे। मिश्रीलाल ने डायरी उठाई जो गणेश उनके सिरहाने रख गए थे। वे देर तक डायरी को कुछ इस तरह से सहलाते रहे जैसे गणेश के गाल सहला रहे हों। फिर वे उठे और जाकर कौशल्या की बगल में लेट गए।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दोनों पिछले कई सालों से अलग-अलग सो रहे थे। कौशल्या को मिश्रीलाल की गन्ध से उनके बगल में होने का पता चल गया पर वे सोने का अभिनय करते हुए लेटी रहीं। जैसे ही मिश्रीलाल ने उन्हें पीछे से अपनी बाँहों में भरा वे सिहर उठीं और उनका अभिनय टूट गया। वे उठ बैठीं और बोलीं कि आज तुम्हें हुआ क्या है जो सुबह से एक के बाद एक कारनामे किए जा रहे हो। मिश्रीलाल कुछ नहीं बोले। कौशल्या ने उन्हें छुआ तो पाया कि वे काँप रहे हैं। मिश्रीलाल बेआवाज रो रहे थे। कौशल्या स्तब्ध रह गईं। यह पहला मौका था जब उन्होंने मिश्रीलाल को रोते हुए देखा था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सुबह गणेश ने घर में नई गन्ध महसूस की। यह उनके लिए पूरी तरह से अबूझ थी। वे मिश्रीलाल के कमरे में झाँक आए। डायरी सिरहाने पड़ी थी जो उन्होंने पड़ी ही रहने दी। अपने कमरे में लौटते हुए उन्हें माँ का चेहरा भी अलग-सा लगा। गणेश की समझ में कुछ भी नहीं आया। वे जैसे इस बदलाव से बचते हुए छत पर चले आए। बबली अपनी छत पर मौजूद थीं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अगले दिन जब गणेश कॉलेज से लौटकर आए तो देखा कि पूरा का पूरा घर बिखरा हुआ पड़ा है। दीवालों पर से सारी घड़ियाँ और कैलेंडर नीचे उतर आए थे। उनकी जगह दीवालों पर गोल, चौकोर या आयताकार निशान दिखाई दे रहे थे। ये निशान बाकी दीवाल की तुलना में चमक रहे थे। कौशल्या का चेहरा भी इसी तरह से चमक रहा था। गणेश ने अचरज से माँ की तरफ देखा। माँ ने बताया कि घर की पुताई होनी है। तुम भी अपनी किताबें वगैरह ढंग से साफ करके रख लो। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">घर में जो कुछ भी हो रहा था उसे गणेश कौतुक से देख रहे थे। मिश्रीलाल से गणेश की बातचीत तकरीबन बन्द चल रही थी। उनकी वह डायरी मिश्रीलाल के सिरहाने कई दिन पड़ी रही थी। गणेश तय नहीं कर पा रहे थे कि मिश्रीलाल उनकी नई लिपि पढ़ पाए हैं या नहीं पर घर में आए बदलाव इतने साफ थे कि गणेश चौंक-चौंक जाते। एक दिन उन्होंने मिश्रीलाल को माँ की बगल में बैठकर सब्जी काटते देखा और अगले दिन तो उनके अचरज की सीमा ही नहीं रही जब माँ ने उन्हें मुसकराते हुए बताया कि वे मिश्रीलाल के साथ पिक्चर देखने जा रही हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">और एक दिन गणेश ने मिश्रीलाल और कौशल्या को मामा के यहाँ जाने की तैयारी करते देखा। मामा के नए घर का गृहप्रवेश होना था। जिसमें शामिल होने के लिए दोनों जा रहे थे। दो दिन दुकान गणेश के हवाले थी। कौशल्या मुसकराते हुए गणेश के पास आईं। उन्होंने कहा कि तुम्हारे पापा पूछ रहे हैं कि तुम्हारे कपड़े प्रेस हैं क्या? कह रहे हैं कि उनके पास ससुराल जाने लायक कोई कपड़ा ही नहीं है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जब दोनों घर से निकलने वाले थे गणेश मिश्रीलाल के पास गए। गणेश ने उनसे पूछा कि उन्होंने उनकी लिखी आखिरी डायरी पढ़ ली थी क्या? जवाब में मिश्रीलाल मुसकराए। गणेश ने विस्मित स्वर में पूछा, मगर कैसे? मिश्रीलाल ने कहा कि मिश्रीलाल की मदद से। मैं तुम्हारे लिखे में सबसे पहले अपना नाम खोजता था। एक बार यह मिला नहीं कि बाकी सब कुछ मेरे सामने खुलता चला जाता था। गणेश एक साथ विजित और विजेता दोनों ही भावों से भर गए। उन्होंने मुग्ध होकर मिश्रीलाल की तरफ देखा। मिश्रीलाल शरमा से गए।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कौशल्या और मिश्रीलाल मामा के यहाँ जाने के लिए निकले तो गणेश की समझ में ही नहीं आया कि वह अकेले करें क्या। वह बहुत खुश थे। उन्होंने पहली बार मिश्रीलाल और कौशल्या को एक साथ इतना खुश देखा था। गणेश खुशी के मारे रोने-रोने को हो आए। खुशी की बात यह भी थी कि घर में उन्हें रोते हुए देखने वाला कोई नहीं था। बबली आए इसके पहले वह आराम से रो सकते थे। </div><div><br /></div></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: right;">(वनमाली कथा के मई-2023 अंक में प्रकाशित)</div></div><div style="text-align: right;">
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-46709296254514518262023-11-04T16:50:00.003+05:302023-11-04T17:20:52.633+05:30योगिनी, तुम करो अपना आह्वान - रश्मि भारद्वाज की कविताएं | Nav Durga: Rashmi Bhardwaj's Poems<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;">रश्मि भारद्वाज और उनकी कविताओं को किसी परिचय, टिप्पणी आदि की ज़रूरत नहीं है इसलिए, उनका स्वागत करते हुए इतना कहूँगा कि ये नौ कविताएं, वर्तमान में माँ दुर्गा की नौ नवेली और भीतर तक उतरती रचनाएं हैं। ~ सं० </div><span><a name='more'></a></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh4RpKhFDWxysSFAAreZ10EGoQnT6FP_bVAFLOaqLuJ2ylaWMW5PV1r-3LU3eJWiZvFK6ZCkvV_WW_mK22E-gMesWrZeuMnWQhEz421tFpRduVYpA7jZ4M5HEHv63DAFmy97TAJsCBbCTTYHRsqXIJBarJ752QAWoIKxPf8Dl9NnmBIWX1KX3-6q6aC0hAf/s903/Nav%20Durga%20Rashmi%20Bhardwaj's%20Poems.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh4RpKhFDWxysSFAAreZ10EGoQnT6FP_bVAFLOaqLuJ2ylaWMW5PV1r-3LU3eJWiZvFK6ZCkvV_WW_mK22E-gMesWrZeuMnWQhEz421tFpRduVYpA7jZ4M5HEHv63DAFmy97TAJsCBbCTTYHRsqXIJBarJ752QAWoIKxPf8Dl9NnmBIWX1KX3-6q6aC0hAf/s16000/Nav%20Durga%20Rashmi%20Bhardwaj's%20Poems.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Nav Durga: Rashmi Bhardwaj's Poems</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h1 itemprop="headline" style="text-align: right;">नवदुर्गा: नौ कविताएं </h1>
<h1><span itemprop="description">योगिनी, तुम करो अपना आह्वान</span></h1>
<div itemprop="articleBody"><h3>~ रश्मि भारद्वाज </h3><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody" style="font-size: 24px; font-weight: 700;"><div itemprop="articleBody"><span style="font-size: 11px;">लेखक, अनुवादक, संपादक | अंग्रेज़ी साहित्य से एम फिल,पीएचडी</span></div></div><div itemprop="articleBody" style="font-size: 24px;"><span style="font-size: 11px;"><div itemprop="articleBody"><span>पुस्तकें: तीन कविता संग्रह - एक अतिरिक्त अ, मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है, घो घो रानी कितना पानी / एक उपन्यास- वह साल बयालीस था / संपादित पुस्तक- प्रेम के पहले बसन्त में। अनुवाद एवं संपादन में कई महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित।सम्मान: ज्ञानपीठ नव लेखन अनुशंसा, शिवना अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मान, पाखी शब्द साधक सम्मान आदि </span></div><div itemprop="articleBody"><span><br /></span></div></span></div></div><blockquote><div itemprop="articleBody">नवदुर्गा कोई और नहीं, हमारी आंतरिक शक्ति है, हम स्त्रियों में अंतर्निहित चेतना, संकल्प शक्ति, प्रेम और तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी उबार ले जाने वाली हमारी जिजीविषा। वे परंपरा से मिली धरोहर हैं और वहीं से आधुनिक स्त्री का स्वरूप भी मिलता है। ऐसी आधुनिक स्त्री जो गढ़े गए रूपकों और मिथकों के बाहर संधान करती है अपना अस्तित्व। हम सबके अंदर स्थित दुर्गा महाकाव्यों के पार जाकर आम जीवन में खोजती है अपने स्त्री होने के मायने। एक आम स्त्री की तरह पराजित होती है, भयभीत होती है लेकिन अपनी सारी ताकत बटोर पुनः अपनी यात्रा आरंभ करती है। वही नवदुर्गा मेरा हाथ गह अपना यह नया स्वरूप लिखने के लिए मेरी अन्तःप्रेरणा बन जाती है। </div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: right;">-रश्मि भारद्वाज </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="color: red;">|१|</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">शैलपुत्री, पिता से रखना अनुरक्ति </div><div itemprop="articleBody">कोई आस मत रखना</div><div itemprop="articleBody">प्रथम मोहभंग सदैव पिता ही करते हैं</div><div itemprop="articleBody">जब उनके गृह में ही नहीं</div><div itemprop="articleBody"> हृदय में भी तुम आगन्तुक हो जाती हो</div><div itemprop="articleBody">मिलेंगे तुम्हें ऐसे पिता भी </div><div itemprop="articleBody"> गर्भ में वीर्य डाल आने के अतिरिक्त</div><div itemprop="articleBody">एक जीवन में वे कही नहीं होते, </div><div itemprop="articleBody"> मात्र अपनी काया का अंश हो तुम</div><div itemprop="articleBody">अपनी ही योनि से जन्म लेती हो</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मत रमाना धूनी किसी कैलाशपति की प्रतीक्षा में</div><div itemprop="articleBody">कोई रचेगा प्रेम का स्वांग </div><div itemprop="articleBody">विवाह के लिए कुल, गोत्र, धन धान्य, देह कोरी चाहेगा</div><div itemprop="articleBody">वह जिसके लिए तुम फूंक दोगी अपना शरीर</div><div itemprop="articleBody">तुम्हारी राख पर ही धरेगा अपनी गृहस्थी नयी,</div><div itemprop="articleBody"> वरण करे कोई तुम्हारा, इतनी सिद्धि शेष नहीं कहीं</div><div itemprop="articleBody">तुम धारण करती हो जिसे</div><div itemprop="articleBody">वह अर्धनारीश्वर हो जाता है</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">शैले, कहीं नहीं है वह आश्रय</div><div itemprop="articleBody">जिसके लिए तुम वन-पर्वत भटकती रही</div><div itemprop="articleBody">जिसे तुमने रचना चाहा </div><div itemprop="articleBody">माटी के एक टुकड़े पर</div><div itemprop="articleBody">इस संसार के उल्लास के लिए</div><div itemprop="articleBody">खोती रही अपना समस्त वैभव,</div><div itemprop="articleBody"> किए तमाम आडम्बर, अनुष्ठान</div><div itemprop="articleBody">अपनी देह ही नहीं अपनी आत्मा को भी</div><div itemprop="articleBody">देवों की तृप्ति के लिए गिरवी रख दिया</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">योगिनी, तुम करो अपना आह्वान</div><div itemprop="articleBody"> गाओ केवल अपनी स्तुति के मंत्र </div><div itemprop="articleBody">तुम जिसे बाहर खोजती चली आयी हो सदियों से</div><div itemprop="articleBody">वह तिलिस्म सदैव तुम्हारे भीतर ही है</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="color: red;">|२|</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सहस्त्रों वर्ष की साधना , क्षीण शरीर, निस्तेज मुख </div><div itemprop="articleBody">यह देह तो साध ली तुमने, अपर्णा </div><div itemprop="articleBody">इस मन को कैसे बांधा</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">तप, त्याग, सद्विचार हो</div><div itemprop="articleBody">जो पाना हो अभीष्ट, गलानी पड़ती है काया</div><div itemprop="articleBody">नष्ट कर देनी होती है मन की सभी कुंडलियाँ,</div><div itemprop="articleBody">फिर क्या उसे व्यभिचार कहोगी</div><div itemprop="articleBody">जहाँ किसी वांछित के लिए</div><div itemprop="articleBody">तोड़ दी जाती हैं समस्त वर्जनाएँ </div><div itemprop="articleBody">छोड़ दिया जाता है स्वयं को अनियंत्रित </div><div itemprop="articleBody">बहने के लिए प्रवाह में </div><div itemprop="articleBody">भूलकर पाप-पुण्य के तमाम बहीखाते</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कुछ पाने का रास्ता </div><div itemprop="articleBody">जहाँ गुज़रता है इच्छाओं के बीहड़ से </div><div itemprop="articleBody"> रचती हैं स्वप्न जागती आँखों का</div><div itemprop="articleBody">प्रेम में </div><div itemprop="articleBody">प्रेम के बाद भी</div><div itemprop="articleBody">बना ही लेती हैं कोई एक दरीचा</div><div itemprop="articleBody">जहाँ से आ सकती है रोशनी</div><div itemprop="articleBody"> नक्षत्र के अस्त हो जाने पर</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">विलग नहीं हो पातीं</div><div itemprop="articleBody">कभी अपनी कामनाओं से</div><div itemprop="articleBody">छूटती नहीं जिनकी जीवन की लालसा </div><div itemprop="articleBody">उन अपराधिनों की फिर कौन सी गति</div><div itemprop="articleBody">ब्रह्मचारिणी!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="color: red;">|३|</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">देवसुता</div><div itemprop="articleBody">चाहे सिरजी गयी देवों द्वारा</div><div itemprop="articleBody">निमित्त मात्र नहीं हो उनके संग्राम का</div><div itemprop="articleBody">रचा गया तुन्हें जब पराजित हुए देवता </div><div itemprop="articleBody">तुम्हारी दिव्यता ही उन्हें उबार सकती थी,</div><div itemprop="articleBody">आयुध थे उनके</div><div itemprop="articleBody">उनके ही वस्त्र आभूषण</div><div itemprop="articleBody">पर वह विवेक तुम्हारा हो</div><div itemprop="articleBody">जो देख सकता हो दमित का भी पक्ष</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वह पक्ष जिसे नवदेवता बदल सकते हैं </div><div itemprop="articleBody">धन धान्य, कुल गोत्र के प्रभाव से</div><div itemprop="articleBody">इस देवलोक के राजा जानते हैं</div><div itemprop="articleBody">केवल सत्ता की भाषा</div><div itemprop="articleBody">धर्म सिमट कर इतना भी शेष नहीं</div><div itemprop="articleBody">एक मनुष्य वहाँ पूरा अट सके</div><div itemprop="articleBody"> रखना स्मरण </div><div itemprop="articleBody">तुम नहीं हो समिधा देवों के हवन कुंड की</div><div itemprop="articleBody">तुम्हारे स्त्रीत्व ने सदैव</div><div itemprop="articleBody">देवलोक का उद्धार किया है,</div><div itemprop="articleBody">तुम्हें रहे सदैव स्मरण उनका</div><div itemprop="articleBody">जिन्हें स्वर्ग से निष्काषन का दंड मिला है</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वह जो अर्धचंद्र है तुम्हारे माथे का </div><div itemprop="articleBody">दमकता रहे न्याय की आभा से</div><div itemprop="articleBody">चन्द्रघण्टा!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="color: red;">|४|</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">स्त्री की हँसी एक रहस्य है</div><div itemprop="articleBody">कहते हैं ज्ञानी</div><div itemprop="articleBody">देवता यहाँ रख देते हैं अपनी समस्त क्लांति</div><div itemprop="articleBody">संसार यहीं लेता है आश्रय, </div><div itemprop="articleBody">यहीं पाता है सारा भोग विलास</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कथा भी कहती है, भवानी </div><div itemprop="articleBody">तुम्हारे ईषत् हास्य से निर्मित हुआ यह ब्रह्मांड</div><div itemprop="articleBody">किन्तु तुम्हारी ही बनाई इस सृष्टि में</div><div itemprop="articleBody">तुम्हारी पुत्रियों की आँखें सदैव सजल हैं</div><div itemprop="articleBody"> कोई भेद ही है, या है केवल उनका दक्ष स्वांग</div><div itemprop="articleBody">खोज लाती हैं वे अपनी हँसी </div><div itemprop="articleBody"> हर ग्रहण के उपरांत</div><div itemprop="articleBody">यह तुम्हारा दिया आशीर्वाद है, </div><div itemprop="articleBody">एक चिरन्तन अभिशाप है, </div><div itemprop="articleBody">अथवा तुम्हारी परम्परा से चला आ रहा वह पाठ</div><div itemprop="articleBody">एक संसार हो </div><div itemprop="articleBody"> या हो एक घर</div><div itemprop="articleBody"> सृष्टि के लिए </div><div itemprop="articleBody">स्त्री का हँसते रहना ज़रूरी है</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="color: red;">|५|</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जगतारिणी</div><div itemprop="articleBody">एक बालक मात्र नहीं है तुम्हारी गोद में</div><div itemprop="articleBody">समस्त पृथ्वी ही समाई है,</div><div itemprop="articleBody"> कभी जो</div><div itemprop="articleBody">उतार देना चाहो सारा भार</div><div itemprop="articleBody">किसी काँधे पर टेक लगाकर</div><div itemprop="articleBody">सुस्ता लेना चाहो पहर दो पहर</div><div itemprop="articleBody">पैर सिकोड़ कर सो जाओ किसी गोधूलि</div><div itemprop="articleBody">कहीं झोला टाँग निकल पड़ो</div><div itemprop="articleBody"> दूर भ्रमण पर एकाकी,</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यह भी कैसा अधम प्रश्न है</div><div itemprop="articleBody">किन्तु क्या यह सम्भव है</div><div itemprop="articleBody">त्याग कर अपनी ही संतानें</div><div itemprop="articleBody">तुम निकल जाओ कभी सत्य के संधान में</div><div itemprop="articleBody">फिर भी वंदनीय कहलाओ</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="color: red;">|६|</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पुत्रियाँ अभीष्ट नहीं</div><div itemprop="articleBody">किन्तु मंगालाचरण के लिए उनकी आवश्यकता है</div><div itemprop="articleBody">होठों पर प्रार्थना</div><div itemprop="articleBody">गर्भ में बीज </div><div itemprop="articleBody">नेत्रों में लज्जा हो</div><div itemprop="articleBody">जो घर आओ, कात्यायनी </div><div itemprop="articleBody">जिन प्रश्नों का कोई हल नहीं</div><div itemprop="articleBody">उन्हें मत उचारो</div><div itemprop="articleBody">दोष लगेगा पुनरुक्ति का</div><div itemprop="articleBody">संसार नित नवीन के संधान में है</div><div itemprop="articleBody">काव्य हो या जीवन,</div><div itemprop="articleBody">पराक्रम कथाओं में शोभता है</div><div itemprop="articleBody">हम तुम्हारी छवि की स्तुति करेंगे</div><div itemprop="articleBody">वहाँ तुम रहो अनंता</div><div itemprop="articleBody">जगत व्यवहार में आओ</div><div itemprop="articleBody">तो जानो सर्वप्रथम </div><div itemprop="articleBody">तुम्हें कहाँ अंत हो जाना है</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="color: red;">|७|</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कितनी कालरात्रियाँ </div><div itemprop="articleBody">गुंजित होती हैं तुम्हारे आर्तनाद से</div><div itemprop="articleBody">करुण स्वर में पुकारती हो देवों को</div><div itemprop="articleBody">जागो, दैत्यों का संहार करो </div><div itemprop="articleBody">तुमने उनके संग्राम में</div><div itemprop="articleBody">संहार किया कथानक के असुरों का </div><div itemprop="articleBody"> स्वयं हो क्षत विक्षत</div><div itemprop="articleBody">जीवन में, </div><div itemprop="articleBody">मृत्यु के बाद भी,</div><div itemprop="articleBody">कितने विकट दिन</div><div itemprop="articleBody">जब मृत्यु ने भी नहीं गही तुम्हारी हथेली</div><div itemprop="articleBody">तुम प्रतीक्षा में रही </div><div itemprop="articleBody">एक रात्रि तुम्हें छिपा ले अपनी गोद में</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">रौद्रा, कहाँ भूल आयी तुम अपना खड्ग </div><div itemprop="articleBody">अपनी ज्वाला,</div><div itemprop="articleBody">खोलो अपने धधकते नेत्र</div><div itemprop="articleBody">तुम्हें नष्ट करने हेतु</div><div itemprop="articleBody">देव -दानवों ने संधि कर ली है</div><div itemprop="articleBody"> अब वे सर्वत्र घूमते हैं तुम्हारे संधान में</div><div itemprop="articleBody">कभी - कभी वेष धरे</div><div itemprop="articleBody">स्नेहीजनों का भी</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="color: red;">|८|</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">चन्द्रमौलि ने गंगा जल से स्नान करा</div><div itemprop="articleBody">तुम्हें इतना उज्ज्वल कर दिया है</div><div itemprop="articleBody">तुम्हें देख नेत्र चौंधिया जाते हैं</div><div itemprop="articleBody">वहाँ शरण नहीं मिलती,</div><div itemprop="articleBody">इतना रूप किस हेतु गौरी</div><div itemprop="articleBody">जो अपनी ही किसी श्याम अंश के लिए</div><div itemprop="articleBody">कठिन कर दो जीवन</div><div itemprop="articleBody">समस्त उबटन चंदन प्रलेप के बाद भी </div><div itemprop="articleBody">बदलती नहीं जिनकी काया</div><div itemprop="articleBody">ऐसी श्यामवर्णाएं कहना चाहती हैं </div><div itemprop="articleBody">उन कथावाचकों से</div><div itemprop="articleBody">क्रोध में नहीं जलता है रंग </div><div itemprop="articleBody">प्रतिकार या हिंसा से नहीं होता कोई स्याह</div><div itemprop="articleBody">यह किसकी गणना रही </div><div itemprop="articleBody">काला तम का प्रतीक हो गया</div><div itemprop="articleBody">घोर उजाले की ओट में जबकि</div><div itemprop="articleBody">होते रहे अधर्म</div><div itemprop="articleBody"><br /><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="color: red;">|९|</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अभी गायी जाती रहेंगी स्तुतियाँ</div><div itemprop="articleBody">गढ़े जाते रहेंगे रूपक</div><div itemprop="articleBody">इसी बीच, हौले से तुम कानों में फूंक देती हो एक मंत्र</div><div itemprop="articleBody"> दूसरों की पराजय में नहीं</div><div itemprop="articleBody">उल्लास अपने विजय में है, जया</div><div itemprop="articleBody">तुम स्वयं तय करो अपना युद्ध</div><div itemprop="articleBody">हार जाओ थोपे गए छद्म</div><div itemprop="articleBody">हारना भयमुक्त करता है</div><div itemprop="articleBody">ज़रूरी लड़ाईयों के लिए, </div><div itemprop="articleBody">सजग हो तुम्हारी दृष्टि </div><div itemprop="articleBody">दूर तक देखना, देर तक देखना</div><div itemprop="articleBody">ताकि देख सको स्पष्ट</div><div itemprop="articleBody">तुम्हारी सिद्धि छिपी है</div><div itemprop="articleBody">तुम्हारे हृदय में</div><div itemprop="articleBody">तुम उसे अपने वश में रखना </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कथा में नहीं हूँ मैं</div><div itemprop="articleBody">स्तुति में नहीं हो सकता मेरा संधान </div><div itemprop="articleBody">यह जानना</div><div itemprop="articleBody">किसी देवी की आराधना नहीं थी यह</div><div itemprop="articleBody">एक मानुषी का वक्तव्य है</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div><br /></div></div>
<div style="text-align: right;">
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br />
<br /></div>
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००००००००००००००००</div>
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-67299849071904931232023-11-02T00:00:00.000+05:302023-11-02T00:00:00.130+05:30जो भी हो तुम, ख़ुदा की क़सम लाजवाब हो ~ गीताश्री के स्मृतिआँगन में ममता कालिया | Mamta Kalia in GeetaShri's SmritiAangan<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>ममताजी जैसा मित्र तो, जैसा आप गीताश्री के संस्मरण में पढ़ेंगे, मेरा भी कोई दूजा नहीं है। ममताजी अगर कमाल हैं तो गीताश्री भी अब कमतर नहीं रहीं हैं! आज हिन्दी संसार की प्रिय कथाकार ममता कालिया के जन्मदिन पर उन्हें प्यार भरी बधाई और स्मृतिआँगन के लिए उनपर लिखे इस ज़बरदस्त-जानदार-ज़रूरी आलेख के लिए गीताश्री को आभार ! ~ सं० <span><a name='more'></a></span></div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj8nolCSuKOSKGkSFBPHRNCR_qgKFwftEjZHtnZ1AwH3_vyGsKGkQ2KrfUDEzhXoB-04cwajqVScqWwMT_CqSERufsz6J3-iab3VJeHmqGcH0p_H9vtV6eXbCq973iQSmHVvcZ3ZdLbkNp-P6lBYS-w_3hychktgTu6Daxhsc2a7s_OCh0FeIBnQCsw0ArC/s903/%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%86%E0%A4%81%E0%A4%97%E0%A4%A8%20%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82%20%E0%A4%AE%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj8nolCSuKOSKGkSFBPHRNCR_qgKFwftEjZHtnZ1AwH3_vyGsKGkQ2KrfUDEzhXoB-04cwajqVScqWwMT_CqSERufsz6J3-iab3VJeHmqGcH0p_H9vtV6eXbCq973iQSmHVvcZ3ZdLbkNp-P6lBYS-w_3hychktgTu6Daxhsc2a7s_OCh0FeIBnQCsw0ArC/s16000/%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%86%E0%A4%81%E0%A4%97%E0%A4%A8%20%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82%20%E0%A4%AE%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Mamta Kalia in GeetaShri's SmritiAangan</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h1>हंसी से बढ़िया कवर स्टोरी कुछ नहीं</h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">~ ममता कालिया पर गीताश्री का संस्मरण </h2>
<blockquote><div 11px="" font-size:="">मेरे भीतर जो गुस्सा है, आक्रोश है, असंतोष है चीज़ों के प्रति उससे लगता है कि हो सकता है मैं बहुत हिंसक होती या रेडिकल किस्म की व्यक्ति होती। लेखन कहीं हमको बहुत परिमार्जित और समृद्ध भी करता है। बहुत सारा गुस्सा जो लोगों पर निकलता, वो काग़ज़ पर निकल जाता है। कई बार मुझे इतना तेज़ असंतोष होता है किसी बात से तो लगता है कि अगर लिखूंगी तो काग़ज़ में छेद हो जाएगा। कभी ये भी लगता है कि मैं बहुत ठस्स किस्म की इनसान होती और मैं केवल आलू गोभी बनाती और अपने जीवन को सार्थक मानती। अपने बच्चों की फ़ोटो फेसबुक पर बार-बार लगा-लगा कर इतराती और कहती देखो, ये बन गया, वो ये बन गया, मैं ऐसा काम कभी नहीं करती। लोग अपना फ़ोटो लगाते रहते हैं। मैं कभी इस तरह की कोशिश नहीं करती। क्योंकि मुझे लगता है कि किताबें लिखना मुझे बहुत संतोष देता है अंदर से तृप्त करता है। फुलफिल करता है, जो कमी है भीतर में, उसे। वो कमी, केवल पति, बच्चे, दाल भात से पूरी नहीं होती। हम पढ़े लखे हैं, हमने विश्व साहित्य को इतना पढ़ा-लिखा है, तो उसमें एक किरच अपनी तरफ से भी एड करे, भले ही वो जुड़े या न जुड़े, लेकिन हर लेखक अपने लेखन से ये प्रयत्न तो करता है।</div></blockquote><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: right;">~ ममता कालिया, मुझसे साक्षात्कार के दौरान </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैंने उन्हें लंबे साक्षात्कार के दौरान ही ठीक से जाना। जानने के कई अवसर आए थे, बातचीत में वे ख़ूब खुलीं और बिना छुपाए बहुत कुछ बताया। वे बाते भी, जिन्हें लेखक छुपाना चाहते हैं। समाज के जज करने का भय उन्हें रोकता है। ममताजी छुपाना नहीं जानतीं। उन्हें जो उचित लगेगा, बोल देंगी। चाहे मंच हो या कोई और माध्यम। ऊपर दिए गए पैरा में वे कितना स्पष्ट कहती हैं कि वे कैसी हैं। ये तो लेखक का अपने बारे में अपना आकलन है। एक और चेहरा होता है, जिसे लोग जानते हैं। जिन्हें मैं जानती हूं, उन पर बात करना चाहती हूं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ममता कालिया, इस दौर की सबसे सक्रिय, सबसे चहेती लेखिका हैं जिनसे सबको लगाव है और जिन्हें सबसे लगाव है। पिछले कुछ सालो में उनका नया अवतार मेरे सामने आया है। हो सकता है, वे पहले से ऐसी ही हों। मेरे हिस्से जब से आई हैं, मैं उनके प्यार में गंभीरता से पड़ गई हूं। उस भंवरे की तरह जो शाम होते ही फूलों की पंखुरियों में कैद होना चाहे। फूल का सुवास, पंखुरियों की नरमाई उसे रात भर पोसती है, कम से कम बाहर के डरावने अंधेरे से उसके भीतर का कोमल अंधेरा कहीं बेहतर है। सुबह कितनी लेकर उड़ान भरता है भंवरा। मैं वो भंवरी हूं जो ममता कालिया की पंखुरी-पाश में बंधे रहना पसंद करती हूं। कोई मेरे दिल से पूछे कि वो क्या हैं। उन्हें क्यों जाने किसी की नज़र से हम। फ़क़त इक नज़र ही तो है अपने पास, जो सुंदर मनुष्यों की पहचान कर लेती है। उनकी मोहब्बत में, सोहबत में गिरफ़्तार हुआ चाहती है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मेरे लिए तो वे उम्र से परे हैं। वे मुझे उम्र से परे ले जाकर दोस्त की तरह ट्रीट करती हैं। मैं उन्हें दीदी नहीं कहती। वे मेरी बहन नहीं, मेरी सखि हैं। बिल्कुल किसी हमउम्र की तरह जिससे जी भर बातें खुल कर की जा सकती हैं, जिसे कुछ भी कहा जा सकता है, जिनसे लड़ा जा सकता है। बहस की जा सकती है। चुहल और मस्तियां भी। उनमें कृत्रिमता कतई नहीं। उन्होंने मेरे भीतर से वरिष्ठता का ख़ौफ़ दूर किया था। मैं तो वरिष्ठ लेखकों और लेखिकाओं से सहमी रहती हूं। कुछ के व्यवहार याद रहते हैं कि कैसे वे बातें करते हुए वरिष्ठ बने रहते हैं। फ़ोटो खिंचवाते समय कैसे असहज और कृत्रिम हो उठते हैं। उन पर कुछ लिखो तो वे आपके शब्दों की नाप तौल करने लगते हैं। कुछ तो नियंत्रित भी करना चाहते हैं। ऐसे समय में ममता सखि का व्यवहार जादू जगाता है। कई बार चकित रहती हूं। न वरिष्ठता का बोध न गरिष्ठता का अहसास, न बातों में बनावटीपन। बात-बात पर हंसती-खिलखिलाती, चुहल करती। उनकी बातें इतनी चुटीली होती हैं कि आप चुप बैठ ही नहीं सकते। ना जाने कितनी शामें, कितनी दोपहरिया हमने खाते-पीते, हंसते-बोलते गुजारी हैं। इन पहरों का कोई हिसाब नहीं। उनसे मिलने की ललक इतनी कि वे एक बार आवाज़ दें तो हम दौड़े चले जाएं। किसी से मिलने का ऐसा लालच कम होता है मेरे भीतर। ये जो समय है, जब लोगों के चेहरे से नक़ाब उतर रहे हैं, अपने-परायों की पहचान हो रही है, असली-नकली लोग एक्सपोज हो रहे हैं, ऐसे लोगों की पहचान के बाद इनसे दूर जाने का मन करता है, तब ममताजी जैसे चंद आत्मीयों की संगति राहत देती है। ऐसे रिश्ते तमाम नकली रिश्तों पर भारी होते हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हम साथ बैठ कर ठहाके में उनकी फिक्र, उनकी दी हुई पीड़ा उड़ा देते हैं। हंसी से बढ़ कर कोई नेमत नहीं। ममताजी के पास हंसी का अकूत खजाना है। कम ही नहीं पड़ता। दुख उन पर भी पड़े। दुख उनके भीतर पल रहा है। अपने साथी से बिछड़ने का दुख सबसे बड़ा। प्रख्यात लेखक-संपादक रवींद्र कालिया उनके जीवन-साथी थे। उनसे बिछड़ने के बाद वे अकेली रह गई हैं। भीतर से बिखरी होंगी, टूटी होंगी, घर का सूनापन खलता होगा, लेकिन एक लेखक का एकांत हो या एकाकीपन, वो सामान्य लोगों से अलग होता है। लेखक का एकांत अनुर्वर नहीं होता। वे जीवन में कभी बोर नहीं होते। वे अकेले कहां होते हैं। अकेले होकर भी अपने गढ़े-रचे गए किरदारों की भीड़ में होते हैं। उनके किरदार कभी उन्हें अकेला नहीं छोड़ते। ये बातें मैं अब समझने लगी हूं जब ख़ुद लिखने लगी। ममताजी ने ख़ुद को संभाला, पीड़ा की तहें बनाईं, उन्हें अपने भीतर ऐसे रखा, जैसे मेघ छुपा रखते हैं बिजली को। कौंधते हैं दुख, उनकी हंसी में। उनकी चुटीली बातों में। हंसी से बढ़िया कवर स्टोरी कुछ नहीं। हंसी हर दुख की कवर स्टोरी होती है। मैं बेहतर समझ सकती हूं। जिसने अपने जीवन में भीषण दुख देखा हो, उससे पूछिए कि उसकी छलकती हंसी का मतलब क्या है। वैसे भी ये ना-मुराद दुनिया दुख सुनाने या दिखाने के काबिल नहीं है। मैं तो ख़ारिज करती हूं ऐसी दुनिया को, शायद इसीलिए मुझे ममताजी की हंसी उस पाक आब-ए-जमजम की तरह लगती है, जो सारे कलुष धो देती है। उस ना-मुराद दुनिया को ख़ारिज कर देती है, जिसे कदापि अपना दुख नहीं सुनाया जाना चाहिए। हम जैसे लेखक किस्तों में अपना सबकुछ किरदारों को दे देते हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ममताजी ने ‘रवि-कथा’ और ‘जीते जी इलाहाबाद’ में जो लिखा, वो किसी भी लेखक के लिए पाठशाला हो सकती है। जीवन, शहर और संबंधों को ऐसे भी लिखा जा सकता है। ममताजी को मैंने इन दो किताबों से ज़्यादा जाना। कितना खुली हुई, जैसे मेघालय की उमंगगोट झील का पारदर्शी जल हों, सतह तक साफ-साफ दिखाई देती हुई। उनकी बातों में जो रस है, वहीं रस उन्हें पढ़ते हुए आता है मुझे। सच कहूं तो मैं फेसबुक पर उनके कमेंटस को दीवानों की तरह पढ़ती हूं, कई पंक्तियां तो कापी करके संभाल कर रखती हूं। वे इतनी सटीक, चुटीली और मा'नी-ख़ेज़ होती हैं कि कहीं भी कोट कर सकते। मेरे लिए जब-जब उन्होंने लिखा, मैंने संभाल कर रखा है। प्योर देसी घी की महक से भरी हुई पंक्तियां मुझे दिलासा देती चलती हैं और मुझ पर मेरा भरोसा भी। आप हमेशा ऐसी संगति चाहते हैं जो आपकी हिम्मत न तोड़े, आपको सिर्फ कमियां बता कर निराशा की गहरी खाई में न फेंके, फूलों की घाटी का पता भी बताए। मुझे तो ममताजी इसी रुप में मिली हैं। हंसते हुए अक्सर कहती हैं, “गीतू, जरा थम कर लिखो। जितनी देर में मैं तुम्हारी एक किताब पढ़ नहीं पाती हूं, तुम दूसरी किताब लिख लेती हो। “</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं इन वाक्यों में छुपे हुए संदेश सुन लेती हूं। मैं फिर ख़ुद को थाम लेती हूं। जो थमना आया, उनकी बातों से आया। वरना, हम तो चलते-चलते दौड़ने लगे थे। कुढ़ने वाले निंदको ने इसी बात को कहा था- “बहुत जल्दी-जल्दी लिखती है यार। मेहनत नहीं करती। मेहनत करती तो और अच्छा लिख सकती थी। “ </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सच है कि शुरुआती दौर में बड़ी हड़बड़ी थी। अपने समकालीनों से पिछड़ जाने का मलाल तो होता ही है। अब नहीं है। मेरा सौभाग्य कि संगति ऐसी मिली, जिन्होंने मुझे संवार दिया। ममताजी जैसी संगति मिले तो आप कुछ हासिल ही करेंगे। यहां प्राप्ति ही प्राप्ति है। उनके हाथों का बना स्वादिष्ट खाना, उनके हाथों से बनी गरमा गरम चाय, पकौड़े। वे कितनी अच्छी मेहमान- नवाज़ हैं, उनके करीबियों को मालूम है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं जब भी जाती हूं, लेखिका वंदना राग, प्रत्यक्षा या कभी कोई और साथ रहे हैं। मैं अकेली कम ही गई हूं। वंदना के साथ सबसे अधिक बार गई हूं। जब भी हमारा मिलने का मन करता है, हम उन्हें मैसेज करते हैं- वे जो जवाब देती हैं, वो लाजवाब कर दे किसी को भी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उनका जवाब- “तुम दोनों के बिना आधा रौशन दरवाजा खोला नहीं जाता। “ </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आह...कौन न मर जाए इन पंक्तियो पर। कौन न इठलाए ऐ ख़ुदा, ख़ुद पर। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgbZJTu56PdNZ5StLQg_02uZrxSfXfCHffj3H5hTYrEBgx9c0NkmRMWmHa-EL2vf0ws8Dw9y-Qp7VvtH6GNm5TmGH7puTnFYCIriVWFoTUWfOcheYES5u7R1tc2ozDC9uv06hGUQcijL4wrI6lOqMLEohEbDlg5NVXVjpvbCqbokZ2xCRXKQaxkJmz7B1Md/s1000/%E0%A4%AE%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%A8%E0%A4%BE%20%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%97.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1000" data-original-width="767" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgbZJTu56PdNZ5StLQg_02uZrxSfXfCHffj3H5hTYrEBgx9c0NkmRMWmHa-EL2vf0ws8Dw9y-Qp7VvtH6GNm5TmGH7puTnFYCIriVWFoTUWfOcheYES5u7R1tc2ozDC9uv06hGUQcijL4wrI6lOqMLEohEbDlg5NVXVjpvbCqbokZ2xCRXKQaxkJmz7B1Md/w306-h400/%E0%A4%AE%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%A8%E0%A4%BE%20%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%97.jpg" width="306" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">गीताश्री, ममता कालिया व वंदना राग</td></tr></tbody></table><br /><div itemprop="articleBody" style="text-align: center;"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक बार मैं अकेली गई थी। हमीं तीन बैठे थे। मैं, ममताजी और उनकी पड़ोसन लेखिका मित्र मीना झा। हम देर तक हंसते-हंसाते रहे। चाय-पकड़े का दौर चला। फिर मैं सांझ हुई तो निकल गई। अभी रास्ते में ती कि ममताजी का व्हाटसप पर मैसेज आया- “गीतू, मीना जी कह रही हैं, गीता गईं तो ऐसा लगता है, दस बीस लोग उठ कर चले गए। “</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ये पढ़ कर मेरा हंसते-हंसते बुरा हाल। हम तीनों मिल कर ख़ूब धमाल करते रहे थे। मैं थोड़ा ज़्यादा ही उत्साहित। आखिर ममता कालिया जैसी बड़ी लेखिका की संगति में मैं बावरी क्यों न होऊं। मैंने आज तक इस मैसेज को संभाल कर रखा है। मैंने इसे अपनी तारीफ के रुप में लिया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बाद में मैंने अपने मित्रों को सुनाया, तब से वे अक्सर मुझे चिढ़ाते हैं, “ठीक ही तो कहा ममताजी ने, आप तो दस बीस के बराबर ही हैं। “ मैं लोटपोट हो जाती हूं, ये समझ कर भी कि ममताजी ने किसी और मंशा से कहा, मेरे मित्र मेरे मोटापे का मजाक बना रहे हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ममताजी का एक एक कमेंट ऐसा है आप हंसे बिना या सोचे बिना नहीं रह पाएंगे। वन लाइनर की चैंपियन हैं ममताजी। उस पंक्ति में या तो हास्य होगा या जीवन-दर्शन। बड़ी बातें लिख जाती हैं और मैं मुग्ध होकर उस पंक्ति को कई-कई बार पढ़ती हूं। वंदना राग से इस बारे में अक्सर चर्चा करती हूं, वो भी सहमत होती हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं कमेंट पढ़ कर उन्हें मैसेज करती हूं- “क्या गजब कमेंट, लव यू रहेगा हमेशा। “ </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वे तत्काल सहजता से जवाब देती हैं- “तुम ज़िन्दगी डालती हो। इस लमहा कोई ईसीजी करे, क्या गज़ब रिपोर्ट आये। “</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ममताजी की ताऱीफ करने वाले अनेक लोग हैं, पाठक वर्ग है। उन्हें भरपूर सराहना और स्नेह मिला है, हरेक वर्ग से। ऐसी लेखिका जब हमें सराहे तो भला हम फूल कर गुब्बारा क्यों न हो जाएं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कुछ समय पहले मैंने इन्हें बताया कि आपके ऊपर संस्मरण लिखने जा रही हूं....उन दिनों वे अस्वस्थ चल रही थीं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">तबीयत का हाल भी पूछना था, मिलने का भी मन था और बताना भी था। उन्होंने जवाब दिया- </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ज़रूर लिखो गीता। अभी डेंटल सर्जन के पास से लौटी हूँ। दिल की मरम्मत अलग चल रही। उम्र में एक सीढ़ी ऐसी आती है जिसे उलांकना मुश्किल लगता है। खैर, मैं उलांक लूँगी। विश्वास है। “</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इसी अस्वस्थता के दौर में वे एक बड़ा काम कर रही थीं। उन्हें एक पल चैन कहां। हमेशा कुछ न कुछ करते रहना है। वे कभी खाली नहीं बैठ सकतीं। एक साथ तीन–चार काम शुरु कर देती हैं। ख़ुद ही बताया था। कई बार दो तीन रचनाएं, किताबों पर एक साथ काम। ये काम सबके वश का नहीं। मल्टी ट्रैक पर चलना आसान नहीं। तभी अस्वस्थता के दौर में ‘वर्तमान साहित्य’ नामक पत्रिका के महिला महाविशेषांक का दायित्व कंधे पर उठा लिया और लग गईं इसके पीछे। ममताजी के संपादन की खबर फैलते ही सबको इंतजार रहा कि वे सबसे रचनाएं मांगे। उन्होंने चयन किया, रचनाएं मंगवाई। बातों ही बातों में बताया उन्होंने कि इतनी रचनाएं आ चुकी हैं कि कई अंक निकाले जा सकते हैं। एक अंक की सीमाएं होती हैं। उन्होने मुझसे कहानी भेजने को कहा। ममताजी के लिए कहानी लिखना, उनके संपादन में छपना, किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं। मैं सब काम छोड़ कर एक ऐसी कहानी लिखना चाहती थी जो उन्हें पसंद आए। वे सख्त चयन करती हैं। पसंद न आए तो साफ बोल देती हैं। किसी का दिल नहीं तोड़तीं, मगर हंसते-हंसते वे नापसंदगी जता देती हैं। मेरे सामने चुनौती थी। एक बड़ी लेखिका की कसौटी पर कसी जाने वाली थी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं जुट गई जी जान से। धड़कते दिल से उन्हें कहानी भेजी। वे पढ़ेंगी तो क्या कहेंगी। मैंने कहा था उन्हें कि पसंद न आए तो मत छापिएगा। कमियां बताइएगा। मैं फिर से मेहनत करूंगी, और बेहतर लिखूंगी ताकि आपको पसंद आ सके। दोस्ती अपनी जगह, काम अलग रहे। कुछ समय की प्रतीक्षा के बाद उनका मैसेज चमका- </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“बेहद सशक्त रचना है गीतू। मेहनत की महिमा और सौंदर्य इससे पहले मत्स्यगंधा में भी देखा था। इसी की मैं कद्र करती हूँ। बहुत मुबारकबाद। ”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मुझे याद आया कि जिन दिनों उन्होंने मेरी कहानी “मत्स्यगंधा” आधा ही पढ़ कर मैसेज किया था- “तुम बहुत सशक्त रचानाकार हो, जिसकी जड़ें गांव की मिट्टी में है और फैलाव नगर चेतना में है। “ </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मेरी खुशी के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है....मैं क्यूं न फिरु छलकी...छलकी...। यहां ये सब बताने का मकसद ये है कि ममताजी का दिल दरिया है। उस समय जिनकी कहानियां पसंद, सबको छापा और सबको इतने ही प्यारे संदेश भेजे होंगे, मुझे यकीन है। बड़े लेखक सबके हिस्से में होते हैं थोड़े-थोड़े। वे प्रतिभा को चुनते हैं, सराहते हैं। चेला मंडली तैयार करके सिर्फ उन्हें ही प्रोमोट नहीं करते। हालांकि ममता के आसपास कई मठ और मठाधीश सक्रिय हैं। वे उनके साथ होकर भी अलग और स्वतंत्र विचारों की हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ममताजी का दरबार सबके लिए खुला है। दिल्ली जो भी आता है, उनसे मिलना चाहता है। मिलता भी है, सब उनके सहज स्वभाव और आत्मीय आवभगत के कायल होकर लौटते हैं। बड़ा लेखक अपने व्यवहारों से भी बड़ा बनता है। सिर्फ लेखन काफी नहीं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं ये सब लिखते हुए यहां याद करना चाहती हूं कि उनका नाम पहली बार कब सुना था। हम पहले नाम सुनते हैं फिर उन्हें पढ़ते हैं फिर मिलने की इच्छा जागती है। मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि पहली बार नाम कब सुनी और कब इनसे लगाव महसूस हुआ। कॉलेज के दिनों की बात है। अस्सी का दशक था। मेरी चेतना बनने, जगने के दिन थे। मेरे भीतर एक सजग स्त्री पैदा हो रही थी जिसने गंभीर साहित्य पढ़ना शुरु किया था। हिंदी भाषा के अध्ययन के प्रति लगाव हुआ और मैंने विषय के रुप में उसे चुना। फिर तो साहित्यिक पत्रिकाएं, पुस्तकें पढ़ने का चस्का लगा। साहित्यकारों के बारे में दिलचस्पी जगी। हमारे बीच उन नामों पर, उनके लेखन पर चर्चा होती। इलाहाबाद को हम तब साहित्य के गढ़ के रुप में जानते-मानते थे और वहां के लेखकों को पढ़ रही थी, उनके बारे में जान रही थी। उन्हीं दिनों की बात है। मैंने ममता कालिया का नाम सुना था और उनकी कुछ कहानियां किसी पत्रिका में (याद नहीं) किसी ने पढ़ने को दी थी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उन दिनों हम हसरत से देखा करते थे दूर बड़े शहरों, नगरों में रहने वाले लेखकों को। हम ठहरे छोटे शहर के होस्टल के कैदी। हमारी दुनिया सीमित थी। घर से होस्टल तक सिमट कर रह गए थे हम। लेकिन भीतर में एक समानांतर दुनिया बन रही थी जो बाहरी दुनिया से ज़्यादा आजाद थी। जहां हमने महबूब लेखकों को बसा रखा था। मुझे लेखिकाएं ज़्यादा लुभाती थीं। क्योंकि मैं एक बंद समाज की स्त्री थी, मुझे स्त्रियों की उपलब्धियां जैसे आज रोमांचित करती हैं, वैसे ही पहले भी करती थी। तब तो और ज़्यादा करती थीं। मैंने उसी दौर में कुछ लेखिकाओं के नाम जाने, सुने और उन्हें पढ़ा। तब कहां सोचा था कि उनसे कभी मिल पाऊंगी। उन्हें देखने तक की कल्पना नहीं की थी। वो हमारे आकाश के सितारे थे। जब दिल्ली आई, पत्रकारिता के दिन शुरु हुए तो मेरे सिरहाने इंद्रधनुषी ख्वाब नहीं, किताबें हुआ करती थीं। अति व्यस्तता भरे दिन होते, रात किताबों के संग। मैं तब लेखकों के बारे में, उनके व्यवहारों के बारे में किताबी ढंग से सोचती थी। जीवन से ठीक से पाला जो नहीं पड़ा था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">और एक समय ऐसा आया जब आउटलुक साप्ताहिक (हिंदी पत्रिका) में आई, साहित्य का पेज मेरे जिम्मे आया, तब साहित्य समाज से पाला पड़ा, तब जीवन भी समझ में आया। उन्हीं दिनों उस दौर के बड़े लेखकों से मिली, उन्हें अपने पेज पर छाप कर गौरवान्वित हुई। उसी दौर में एक दिन ममता कालिया को फोन किया पहली बार। हम वैलंटाइन डे पर लेखिकाओं से उनके प्रेम प्रसंगों पर परिचर्चा कर रहे थे। सबसे फोन पर ही बात करनी थी। मुझे याद है, ममताजी ने हैलो करने के साथ ही खिलखिलाना शुरु कर दिया। जब सवाल पूछा तो वे और ठहाका लगाने लगीं। मैं तो सकुचाई हुई, थोड़ी सहमी हुई कि कहीं डांट देंगी, बातचीत नहीं करेंगी तो मेरे संपादक बहुत नाराज हो जाएंगे। उन दिनों साहित्य पेज की प्रभारी होने के नाते वैसे भी कई लेखक, रचना न छपने या देर से छपने को लेकर नाराज थे, जैसा संपादक जी बताया करते थे। पहले तो मुझे लगा कि शायद मेरी कु-ख्याति ममताजी तक भी पहुंच गई है। लेकिन मेरा डर निर्मूल निकला। हंसते–हंसते ही उन्होंने मेरे सवाल का जवाब दिया, कालिया जी के साथ अपनी पहली मुलाकात से लेकर प्रेम परवान चढ़ने तक के किस्से सुना दिए। इतने मजेदार ढंग से सुनाया कि वे किस्से मुझे आज तक याद हैं। मेरे मन पर उनके व्यवहार की गहरी छाप पड़ी और मुझे लगा, इनसे यारी हो सकती है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दिल से चाहो तो मौके भी मिलते हैं। ‘अल्केमिस्ट’ का वो संवाद याद करिए या ‘ओम शांति ओम’ में शाहरुख खान का संवाद। समय आया, जब अपनी यारी हुई...क्या ख़ूब हुई कि दिलदार बने बैठे हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इन दिनों आलम ये है कि जब कभी मौज चाहिए तो उनसे बातें कर लेती हूं। उनके चुटीले कमेंटस पढ़ कर हंसी आती है, रहा नहीं जाता तो बात कर लेती हूं। बार-बार मिलने की इच्छा रखती हूं, क्योंकि उनके साथ सखियों की तरह ठिठोली भी कर लेती हूं और हाथ पकड़ कर झूले भी झूल लेती हूं। कभी उलझन हो कि क्या लिखूं, क्या न लिखूं तो उनसे सलाहें भी लेती हूं। उन्होंने हाल में सुझाया है – “मुजफ्फरपुर की महागाथा लिखो, सुपर हिट होगी। “</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दिनों दिन उनकी सक्रियता बढ़ती जा रही, यात्राएं ख़ूब हो रही हैं। जो भी आदर से बुलाता है, वो मना नहीं कर पातीं। इस समय देश की सबसे ज़्यादा घूमने वाली लेखिका हैं। चाहे कोई लाख मना करे, हम लोग या उनके बच्चे, वे नहीं मानती हैं। वे कहती है- मुझे इसी से ऊर्जा मिलती है, मैं क्यों न जाऊं। उनकी उम्र की कई लेखिकाएं उनकी इस भागदौड़ से चकित रहती हैं। ममताजी ने सच में साबित किया है कि उम्र सिर्फ नंबर है, दिमाग पर उसका लोड न लेना बेहतर। हालांकि उन्हें इस बात का अहसास है कि उनकी व्यस्तताओं ने उनके लेखन पर असर डाला है। एक बार हाल ही में कुछ उदास स्वर में बात कर रही थी कि मैं कुछ लिख नहीं पा रही हूं। तब उन्होंने हौसला बढ़ाते हुए कहा था – “देखो दोस्त, अपनी शक्ति पहचानो। तुम इधर के लेखन में सशक्त स्वर हो। मेरा समय शोध छात्रों में, गप्पबाजी में और पढ़ने में खर्च होता रहता है। जम कर गंभीर लेखन कभी लिखने की मोहलत ही नहीं मिलती। “</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इतना विपुल लेखन के बाद उन्हें ऐसा लगता है तो हम जैसों का क्या हाल होगा, सोचिए। बेघर (1971), नरक दर नरक (1975), प्रेम कहानी (1980), लड़कियां (1987), एक पत्नी के नोटस (1997), दौड़ (2000), सुक्खम-दुक्खम (2009), कल्चर-वल्चर (2016), सपनों की होम डिलीवरी (2017) जैसे एक से बढ़ कर एक उपन्यास लिखने वाली, अनेक कहानी संग्रह, नाटक, कविता संग्रह लिखने वाली, अनेक बड़े पुरस्कारों से नवाज़ी गईं लेखिका को लेखन न कर पाने का मलाल घेरता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वे चाहे तो सबसे दूरी बना कर लेखन में जुट जाएं। वे समाज से, पाठकों से, प्रशंसकों से, मित्रों से, आयोजकों से कट कर रहें। वे ऐसा नहीं कर सकतीं। ये सारी चीजें एक सच्चे लेखक को ताकत देती हैं, जीने का हौसला भी। यह हौसला बना रहे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">और एक बात। ऐसा नहीं कि मेरी उनसे असहमतियां नहीं होतीं। उन्होंने इतना साहस दे रखा है या छूट कि मैं अपनी असहमति जता कर उनसे उलझ पड़ती हूं। ऐसे मौके पर उन्हें संयमित जवाब देते, समझाते देखा है। वे दिल नहीं तोड़तीं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कितनी बातें लिखूं...। उनकी याद ही रौनक बढ़ा देती है चेहरे की। अभी तो स्मृतियों के और नये झरोखे बनने हैं। उनका साथ, उनके साथ हम बने रहें। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div></div><div style="text-align: right;">(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br />
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-82589131751765497822023-10-15T13:41:00.002+05:302023-10-15T13:41:36.680+05:30मगहर में बुलावे पर या उसके बिना ~ मृदुला गर्ग | With or without invitation in Maghar ~ Mridula Garg<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>व्यस्त ज़िंदगी के इतवार की सुबह यदि, मृदुला गर्ग अपनी सिग्नचर स्टाइल में मगहर से जुड़ा संस्मरण लिखकर भेज दें तो, आराम को छोड़कर उसे आप तक पहुंचना मेरी ज़िम्मेदारी है ~ सं०</div><div><br /></div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhCIMlgREOYPLsaOwRjd90GqpljZUg50PcVnSX8hR7nO6LhD8yDRq-VjrmbvZWO68Q6NEj_bAmF5wnzfGBBnOWJpYZgyim5Qh4cjStkguil3OLBOXyofHZgEvlcTn22LtBvKOtob6gqvc5NlY4MJO0AGcDM7kjSNxyegCIVwS9gRDdjHw46CxGKSQqhj6D-/s903/Maghar%20mridula%20garg.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhCIMlgREOYPLsaOwRjd90GqpljZUg50PcVnSX8hR7nO6LhD8yDRq-VjrmbvZWO68Q6NEj_bAmF5wnzfGBBnOWJpYZgyim5Qh4cjStkguil3OLBOXyofHZgEvlcTn22LtBvKOtob6gqvc5NlY4MJO0AGcDM7kjSNxyegCIVwS9gRDdjHw46CxGKSQqhj6D-/s16000/Maghar%20mridula%20garg.jpg" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h1 itemprop="headline">
बस थे तो कबीर</h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">
~ मृदुला गर्ग</h2>
<div 11px="" font-size:=""><br /></div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">केतन यादव, गीताश्री और अनामिका के साथ जनवरी की जिस ठिठुरती सर्दी में गोरखपुर से अलख सुबह मगहर यात्रा पर गए थे, तब मैं भी गोरखपुर में थी। <span style="color: #666666;">[पढ़ें: <a href="https://www.shabdankan.com/2023/10/maghar-with-anamika-and-geeta-shree.html" target="_blank">अनामिका व गीताश्री के साथ मगहर ~ केतन यादव</a>]</span> दुपहर में उद्घाटन सत्र में भाषण देने का पाप कर्म मैं ही करने वाली थी। कुछ उसके चलते और कुछ एक ज़रूरत से ज्यादा धाँसू कमरे में ठहराए जाने के कारण, मेरा मगहर जाना मुमकिन न था। छत के कोने पर बने, आर पार होती सर्द हवा के बहाव से असुरक्षित, उस वीवीआईपी कमरे में न हीटर था, न बिजली और न फोन। मुहब्बत में मेरे मोबाइल ने भी ज़िंदगी से रुखसत कर ली थी। लगा कमरा, ख़ास तौर पर 80+ साला जवानों के लिए रिजर्व था! दो-चार कमरे छोड़ कर अनामिका का कमरा था। रात में वहीं शरण लेनी पड़ी थी। पर मैं गोरखपुर पहुंचने से बहुत पहले, करीब बीस साल पहले, मगहर पहुंच चुकी थी। गई नहीं थी, पहुंचाई या बुलाई गई थी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वह तेज़ गर्मी की दुपहर थी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दरअसल रेलगाड़ी से हम चार जन, वागीश शुक्ल, मनोहर श्याम जोशी, सुनीता जैन, अशोक वाजपेयी और मैं गोरखपुर जा रहे थे। वहां विश्वविद्यालय में कोई कार्यक्रम था। पर ख़ुदा के फज़ल से गाड़ी बस्ती पर बिगड़ गई। वागीश जी ने, जो वहीं के निवासी थे, कहा, गाड़ी आगे बढ़ने वाली नहीं थी। बेहतर था कि हम वहीं उतर जाएं। तो हम प्रवासी चेले, मय सामान वहीं उतर गए। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अपने स्वभाव के विरुद्ध संयोग से मेरे पास खाने का काफी सामान था। क्यों था, उसकी कहानी फिर कभी। अभी इतना काफी है कि एक निहायत खटारा गाड़ी में ठुंस कर हम लोग, खाते पीते, गोरखपुर की तरफ़ बढ़े। पर… यह खासा बेढ़ब था… होता ही है। तो हम सबके मन में एक ही ख़याल था। शर्तिया हमारे वहां पहुंचने से पहले कार्यक्रम ख़त्म हो चुका होगा। मन में चाहत रही होगी तभी न सबने एक सुर में कहा, कुछ ही देर में मगहर आएगा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हमने कुछ नहीं किया। गाड़ी खुद ब खुद कबीर के मज़ार पर रुक गई। कैसे न रुकती। बस्ती में रेलगाड़ी खराब ही इसलिए हुई थी की हम गोरखपुर पहुंचने से पहले मगहर पहुंचे। केतन यादव ने मज़ार, समाधि, मंदिर और कुएं का ज़िक्र किया है। सच कहूं, मुझे सिर्फ और सिर्फ कबीर का मज़ार दिखा, फिर और कुछ नहीं दिखा। शायद वहां कोई हिंदू प्रार्थना कर रहा था। किसी ने बतलाया था। शायद न भी कर रहा हो। वह मैं ही रही हूं। प्रार्थना में मर्द औरत का फर्क नहीं रहता। जैसे हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, जैन का। ईश्वर वहां नहीं था, न खुदा, न बेटा, पिता और होली घोस्ट, और न बुद्ध, ऋषभदेव या महावीर। बस थे तो कबीर, थे जो इनमें और इनसे परे हमारी अंतरात्मा में बसे थे। उस आत्म से साक्षात्कार करने के बाद हम गोरखपुर गए और तमाम ज़मीनी कार्यवाही हुईं। पर उसे सम्पन्न होना नहीं कहा जा सकता था। वे बस हुईं। हमारी आत्मा में तो सबकुछ पहले ही संपन्न हो चुका था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आप समझ सकते हैं, उसके बाद, दुबारा मैं मगहर कैसे से जा सकती थी।</div><div itemprop="articleBody">मृदुला गर्ग</div><div><br /></div></div>
<div style="text-align: right;">
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br />
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-57818403785644804372023-10-13T17:57:00.001+05:302023-10-13T17:57:26.885+05:30अनामिका व गीताश्री के साथ मगहर ~ केतन यादव | Maghar with Anamika and Geeta Shree ~ Ketan Yadav<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>नए, उभरते लेखकों को पढ़ने का अपना एक अलग मज़ा है। केतन यादव युवा लेखक हैं और अनामिकाजी व गीताश्री के साथ अपनी मगहर यात्रा के संस्मरण को कुछ रोमांचक ढंग से बयान कर रहे हैं। पढ़िए। ~ सं० </div><div><br /></div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiC7bf_MZCFwI7_O2VUPSMcOLmzGdPxEVsu8JMHS3Bce9Or9JCKtil8UO-VHJuDNAiIV8lKjl_uFm7vKjbP6McgaJeMEtewON9O_iCC0w3x84ZgI5o2g09GHBXmicy7eN_d87_CkY2F30FjhzwMyXbrTi46cZ4hzpvqBPYPcjjXbNBlnpxLaqoFQWbkvvA8/s903/Maghar%20with%20Anamika%20and%20Geeta%20Shree%20~%20Ketan%20Yadav.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiC7bf_MZCFwI7_O2VUPSMcOLmzGdPxEVsu8JMHS3Bce9Or9JCKtil8UO-VHJuDNAiIV8lKjl_uFm7vKjbP6McgaJeMEtewON9O_iCC0w3x84ZgI5o2g09GHBXmicy7eN_d87_CkY2F30FjhzwMyXbrTi46cZ4hzpvqBPYPcjjXbNBlnpxLaqoFQWbkvvA8/s16000/Maghar%20with%20Anamika%20and%20Geeta%20Shree%20~%20Ketan%20Yadav.jpg" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h1 itemprop="headline">मगहर में अमरदेसवा की खोज़ </h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">
यात्रा-संस्मरण ~ केतन यादव</h2><div><div itemprop="articleBody" style="font-size: 24px; font-weight: 700;"><span style="font-size: 11px; font-weight: normal;">बी कॉम, हिंदी से एमए एवं नेट / वागर्थ , जानकीपुल, इंद्रधनुष कृतिबहुमत , जनसंदेश टाइम्स , समकाल पत्रिका , समकालीन जनमत, हिंदुस्तान, अमर उजाला आदि पत्रिकाओं, समाचार पत्रों एवं डिजिटल माध्यमों पर कविताएँ प्रकाशित। संपर्क - 208, दिलेजाकपुर, निकट डॉ एस पी अग्रवाल, गोरखपुर -273001 उत्तर प्रदेश / ईमेल - yadavketan61@gmail.com / मो . 8840450668</span></div></div>
<blockquote><div 11px="" font-size:="">हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि। <br />अब घर जालौं तासुका, जे चले हमारे साथि।। </div></blockquote>
<div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इस साल जब जनवरी, 2023 के शुरुआती दिन थे; गोरखपुर लिटरेरी फेस्टिवल में जाना हुआ था। मेरा तो गृह जनपद है गोरखपुर, पर मैं भी इलाहाबाद से एक दिन पहले ही पहुँचा था। वरिष्ठ कथाकार गीताश्री ने मुझसे पहले ही मगहर ट्रिप की बात कही थी। अगले दिन सुबह-सुबह जब हम गुपचुप होटल से निकल ही रहे थे कि यह प्लान प्रिय कवि अनामिका जी को पता चला तो वे भी रोक नहीं पाईं। सुबह के आठ तीस हो रहे थे और हमें बारह बजे उद्घाटन सत्र के पहले वापस लौटना भी था। फिर क्या था हम तीनों अपनी ‘अथाह घुमक्कड़ जिज्ञासा ’ लिए चल दिए। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हमारे दिल्ली के मेहमान कह रहे थे कि यहाँ ठंड वहाँ से ज्यादा है। गोरखपुर नेपाल का तराई मैदानी भू-भाग है लिहाजा मौसम में नमी और अधिक रहती है। ठंडी हवाएँ कान खड़े कर दे रही थीं और पूरा शहर कोहरे में डूबा हुआ था। गाड़ी के आते ही हम बिना देर किए झट से निकल लिए। विडंबना की बात यह थी कि मैं गोरखपुर का होकर भी मगहर पहली बार जा रहा था। इसलिए वहाँ जो कुछ भी हमने महसूस किया वह हम तीनों के लिए नया अनुभव था। कार के शीशे कोहरे के धुंध में शीत की बूँदों से ढ़क जा रहे थे। ड्राइवर वाले भईया ने शारदा सिन्हा के गाने गाड़ी में ऑन कर रखे थे। उनके पास लोकगीतों का बहुत प्यारा कलेक्शन था। ‘ बलम कलकत्ता ’ और ‘ संईया भइलें डुमरी के फुलवा ’ के मादक गीतों के बोल पर हम बैठे-बैठे झूम रहे थे। वैसे “बलम कलकत्ता” की लेखिका गीताश्री भी साथ ही थीं। गोरखपुर और मुजफ्फरपुर की लोक संस्कृति बहुत से बिंदुओं पर एक हो जाती है। ये गीत भी हमें जोड़ रहे थे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मगहर की पगडंडियाँ चीड़, सागौन और विशेषतः आम के पेड़ों से भरी हुई थीं। हमारी गाड़ी कबीर के शांतिवन के सन्नाटे को चीरते हुए आगे बढ़ रही थी। कुहासे में पेड़ की झुरमुटों में लुकाए हुए पक्षी बीच-बीच में बोलकर मानो हमारा अभिवादन कर रहे थे। अनामिका शीशे से बाहर झाँकते हुए दृश्य-दर-दृश्य खोते जा रही थीं। गीताश्री गूगल से सर्च करके मगहर से जुड़ी कई ऐसी बातें बता रही थीं जो हमने कभी नहीं सुनी थी। हम सब शायद मन ही मन सोच रहे थे कि कबीर काशी छोड़कर मगहर क्यूँ आए थे? मगहर को क्यूँ चुना था अपने अंतिम समय के लिए? वह स्थान जो सबके लिए उपेक्षित था। वह स्थान जिसके सामने से गुजरने पर बड़े से बड़े कुलशीलों की पवित्रता भ्रष्ट हो जाती थी। जिसके सामने से लोग मुँह और नाक कपड़े से दबाए गुजरते थे। जहाँ समाज के सबसे पिछड़ी जाति का शव फूँका जाता था। जहाँ सदियों से केवल कूड़ा-कचरा फेंका जाता रहा है। इतनी सारी वर्जनाओं के बाद भी इस पगडंडी के तार बुद्ध से जुड़े हैं। पता नहीं यह बात कबीर जानते भी थे या नहीं। जो भी हो कबीर का वहाँ बसना एक बहुत बड़ी क्रांति थी। एक सच्चे लेखक का भी यही काम है, जो समाज में हाशिए पर हो उसका हाथ मजबूती से पकड़ना। गीताश्री की कहानियों उपन्यासों में भी ऐसे पर्याप्त नायक नायिका हैं और अनामिका जी की कविताओं में भी अति सामान्य, मध्यवर्गीय, निम्नवर्गीय स्त्रियां मौजूद रहती है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjquf9KHkHFEzzPfjv9u2mF_HTzLE2YtTXG8aHYEKTAUdpeEjiYGhOCxmKtt4ku8w7m2kdBECGRxZ9vQNjxUmTAoqfF06Ndj9zcveTEV1KUxFy82eXDbK49-2R0YxXKb_voVGxQtXUcMpVbdDborHZrn2qIR7eUwygA27z8hUqENYWoeD_j3QsZBLhTPwxS/s500/copyright_Bharat_Tiwari_IMG_9052.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="375" data-original-width="500" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjquf9KHkHFEzzPfjv9u2mF_HTzLE2YtTXG8aHYEKTAUdpeEjiYGhOCxmKtt4ku8w7m2kdBECGRxZ9vQNjxUmTAoqfF06Ndj9zcveTEV1KUxFy82eXDbK49-2R0YxXKb_voVGxQtXUcMpVbdDborHZrn2qIR7eUwygA27z8hUqENYWoeD_j3QsZBLhTPwxS/s16000/copyright_Bharat_Tiwari_IMG_9052.jpg" /></a></div><br /><div itemprop="articleBody" style="text-align: center;"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कई मोड़ से होते हुए अंतत: हम जब कबीर के दरवाजे पहुँचे तो मानो चारों तरफ सूफी संगीत एक रोमानी वातावरण लिए बज रहा था। आमी नदी का किनारा, जंगल के पेड़ों के मध्य का वह दिव्य स्थान, मेले के खाजे और मिठाइयों की दूकानें, खूब सारा कोहरा और बहुत सारी ठंड। जाड़ा इतना था कि वहाँ केवल स्थानीय दो-चार श्रद्धालु ही दिख रहे थे। कार से बाहर उतरते ही कवि अनामिका एक विहंगम लोक में पाँव धर चुकी थीं। आस-पास के दिव्य वातावरण को वे अपने आँखों के सहारे अपने भीतर उतार रही थीं। चकित नजरों से गीताश्री एक-एक करके आश्रम के चारों दिशाओं की ओर मुड़ कर देख रही थीं। मानो कथाकार को भविष्य का कोई भूला भटका पात्र दिखाई दे दिया हो। जिसका पीछा करते करते मुजफ्फरपुर की कथाकुमारी नोएडा से मगहर आ गई हों। ‘लाली देखन मैं चली मैं भी हो गई लाल’ वाली आँखों से मैं उस वातावरण और वातावरण में इन दोनों साहित्य साधिकाओं को पुलकते देख रहा था। ‘जित देखूँ तित लाल’ वाली स्थिति थी चारों तरफ। अपने लंबे डग भरते हुए हम सबसे पहले सामने खड़ी कबीर की विशाल प्रतिमा के सामने पहुँचे और फिर वहाँ कुछ देर ठहर कर हम कबीर की समाधि की ओर बढ़ चले। यह अद्भुत समाधि स्थल मगहर में ही हो सकता था। एक ओर कबीर का मजार दूसरी ओर समाधि और मंदिर।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बाहर सीढ़ियों पर जूते उतार कर हम मजार के भीतर प्रवेश किए। कबीर साहब कब्र में पाँव पसारे लेटे हुए थे... नहीं नहीं वो तो फूल बन गये थे। अमन का फूल, सद्भाव का फूल। कब्र से माथा टेक हम समाधि की ओर बढ़ चले। कबीर के कब्र से समाधि तक के चबूतरे को नापते हुए मन ही मन मैं सोच रहा था कि आज कबीर की कितनी आवश्यकता है। </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: center;">माला पहिरे टोपी पहिरे छाप-तिलक अनुमाना</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: center;">साखी सब्दै गावत भूले आतम खबर नहीं जाना</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: center;">साधो, देखो जग बौराना</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiK025vc75dhRfFvGGaZVPuaW-DXuWC5eJkcILfYxMcXNZvspGIrJBtTZiB5jr1GPv22B3QwuvjXqhqFZzfL3eUjV7L5wktHtML6DTbbsw3mWxpC8o01y1OJJmbKQQeJlhOShb2rajfdxYoGcnUTcdZsuI-6pKzMyJetxXu55XvaBcML6ptnQ9kzbqYGLwD/s500/copyright_Bharat_Tiwari_IMG_9072.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="500" data-original-width="375" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiK025vc75dhRfFvGGaZVPuaW-DXuWC5eJkcILfYxMcXNZvspGIrJBtTZiB5jr1GPv22B3QwuvjXqhqFZzfL3eUjV7L5wktHtML6DTbbsw3mWxpC8o01y1OJJmbKQQeJlhOShb2rajfdxYoGcnUTcdZsuI-6pKzMyJetxXu55XvaBcML6ptnQ9kzbqYGLwD/s16000/copyright_Bharat_Tiwari_IMG_9072.jpg" /></a></div><br /><div itemprop="articleBody" style="text-align: center;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: center;"><br /></div><div itemprop="articleBody">इस बौराए जग में हम सब पुरखा कबीर का होना ढूँढ़ रहे थे। समाधि के सामने चबूतरे के बाहर एक गहरा कुआँ था। ऊपर से लोहे के क्षण से ढका हुआ। कुएँ के ऊपर धुँध था जैसे मन के ऊपर। अनामिका जब समाधि के सामने कबीर की मूर्ति देखीं तो भाव विह्वल हो चुकी थीं। गीताश्री एकटक उन्हें देख रही थीं। गीताश्री मठ की दीवारों को इस तरह से स्पर्श कर रही थीं जैसे अमरदेसवा का स्पर्श पा लिया हो। अनूठी कथाकार गीताश्री उस अलौकिकता की मांसल अनुभूति कर रही थीं। एक चुलबुली लड़की उनके भीतर हमेशा रहती है। यह अनुभूति उनके चेहरे पर आए रोमांच में घटित हो रही थी। समाधि के बाहर श्वेत वस्त्रधारी कबीरपंथी कबीर साहेब की बंदगी कर रहे थे। उनकी बानी किसी मंत्र की तरह उचार रहे थे। हमारे चारों ओर कबीर की साखी, सबद, रमैनी के दोहे और पद घूम रहे थे। बचपन से कबीर को अबतक जितना पढ़ा था वे सारे निर्गुण बिना सितार तानपूरे के आस-पास सुनाई दे रहे थे। समाधि को चूमकर अनामिका कबीर के पास ही बैठ गयीं। मानो बहुत से प्रश्न भीतर घुमड़ रहे थे। उनकी आँखें झर-झर-झर बह रही थीं। गीताश्री चौखट के रास्ते कबीर का चेहरा देख रही थीं। मानो उनसे बतिया रही हों। न धूनी थी न कोई चिमटा था फिर भी मन रमा हुआ था। दृश्य से क्षणभर भी विलग हुए बिना हम एक-एक क्षण को पूरी तरह जी रहे थे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बाहर निकले तो समाधि स्थल की परिक्रमा करते हुए मठ की दीवारों पर चारों तरफ कबीर की बानियों को उकेरे हुए देखा। अनामिका जी बोल पड़ी कि यह तो बहुत चयनित दोहे हैं। यह सब देखते-पढ़ते कबीर के ध्यान वाले छोटे गुफा की ओर बढ़े। साथ में जो कबीरपंथी महंत थे, गीताश्री लगातार उनसे जानकारियाँ जुटा रही थीं। उनकी बातों को फेसबुक लाइव करते हुए अपने फॉलोवर्स और वर्चुअल मित्रों को भी समृद्ध कर रही थीं। गीताश्री एक सतत अन्वेषक हैं। उनके भीतर वह गैर अकादमिक शोधार्थी बैठा हुआ है जिसके संस्कार उन्होंने अपने पत्रकारिता काल की साधना से अर्जित किया है। मैं मन ही मन सोच रहा था कि “राजनटनी” और “आम्बपाली” (उपन्यास) को रचते हुए गीताश्री ऐसे ही खोजबीन कर रही होंगी। जरूर यह सब उनकी कोई भविष्य की कहानी या उपन्यास में जुड़ेगा। कबीर की समाधि के बगल में बहुत से चबूतरे हैं और पुराने पेड़ हैं। वहाँ एक पतली-सी काली नदी बहती है जिसका नाम आमी है। आमी भी पूरी तरह कोहरे में ढकी हुई थी। धुंध के बीच नदी में पड़ी एक पुरानी नाव दिख रही थी। मुझे पता था आमी के लिए कितने आंदोलन हुए हैं। जिस नदी के तट बुद्ध ने अपने राजशाही वस्त्र छोड़े थे अपने केश उतारे थे जिसके किनारे कबीर अपने शिष्यों के साथ धूनी रमाए थे। आमी के किनारे बहुत सारे आम के पेड़ हुआ करते थे, उनसे आम लटक कर नदी में प्रायः गिर जाते थे। जिस कारण नदी का पानी मीठा रहता था और उसे आमी कह के बुलाया जाता था। उसका हाल बेहाल हो चुका था। कितनी सारी लोक मान्यताएं, लोक मिथक जुड़े हुए हैं आमी से। उस अंचल के कितने सारे लोकगीतों में आमी शामिल रही है। उस पवित्र आमी के तट पर बैठकर हम तीनों सुस्ताए और बहुत सारी तस्वीरें लीं। उस पल को हर तरीके से संजो लेने की उत्कंठा थी। सफेद कोहरे में लिपटा हुआ मगहर मानों कबीर की ‘झीनी-झीनी सी चदरिया' ओढ़कर बैठा हुआ हो। ठंडी बहती हवा कानों के पीछे साएँ-साएँ का आवाज़ कर रही थी। कबीरपंथी साधू हमें विदा करके पुन: अपने आसन अपने पाठ की ओर लौट गये थे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हम अभी भी अनहलक की अनुभूति में थे। कबीर ने मगहर में ही अमरदेसवा बसा लिया था। कबीर की बानियों का शरण ही उस लोक से साक्षात्कार था। अनामिका जी ने कबीर के पदों का भाष्य भी लिया। हम तीनों गाड़ी में बैठे और आश्रम के मुख्यद्वार पर गोरखपुर का प्रसिद्ध बड़ा वाला खाजा (खजली) लिए। ड्राइवर भईया ने पुन: गाड़ी में लोकगीतों की मोहक श्रृंखला चला दी थी। हमने जो महसूस किया शायद उसे ‘सात समुंदर की मसि’ करने के बाद लिख भी लिया जाए लेकिन कुछ न कुछ अधूरा रह जाएगा। जो कुछ शेष बचा रहेगा, अकथ रह जाएगा वही कबीर के अमरदेसवा की सच्ची अनुभूति होगी। गाड़ी धीरे-धीरे वहां की पगडंडियों को पीछे छोड़ रही थी पर हमारा मन उस मगहर में ही अटका रहा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अब तक मन मगहर–सा अहसास तारी है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div></div>
<div style="text-align: right;">
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br /></div>
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-86486732855623599532023-09-16T13:52:00.005+05:302023-09-16T13:55:58.727+05:30चैक एण्ड मेट - कहानी: रीता दास राम | Kahani - Check and Mate - Reeta Das Ram<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>रीता दास राम के लेखन का प्रवाह अच्छी गति और भाषा के साथ बढ़ रहा है। कहानीकार को बधाई और रचना हमें भेजने का आभार, पढ़िए उनकी नई कहानी 'चैक एण्ड मेट'। ~ सं० <span><a name='more'></a></span></div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi7u6QREy5UqGqft8Q39Wvw-RiAOCbJY53k-fxwon_5zvdZOTQCGDCcwFIp5X4aaNjHpgCMqxGOenQgbKHqX9Pw_fesziDeaf_dz36taiVwSEU0GbTdlPmhJBRku_jr5Kdq3dQUT1OM4aZPw5gqDwDROZaEQjQAV_Kue4hg6LI7ekCYTMJcjYmDpIQeecla/s903/Reeta%20Das%20Ram%20check%20and%20mate.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi7u6QREy5UqGqft8Q39Wvw-RiAOCbJY53k-fxwon_5zvdZOTQCGDCcwFIp5X4aaNjHpgCMqxGOenQgbKHqX9Pw_fesziDeaf_dz36taiVwSEU0GbTdlPmhJBRku_jr5Kdq3dQUT1OM4aZPw5gqDwDROZaEQjQAV_Kue4hg6LI7ekCYTMJcjYmDpIQeecla/s16000/Reeta%20Das%20Ram%20check%20and%20mate.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Kahani - Check and Mate - Reeta Das Ram</td></tr></tbody></table><div style="text-align: center;"><br /></div><h1 itemprop="headline">
चैक एण्ड मेट</h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">~ रीता दास राम</h2><div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on"><h2 itemprop="alternativeHeadline"><div 11px="" font-size:=""></div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><span style="font-size: 11px;">कवि / लेखिका / एम.ए., एम फिल, पी.एच.डी. (हिन्दी) मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="font-size: 11px;"><div itemprop="articleBody"><span style="font-weight: normal;">प्रकाशित पुस्तक: “हिंदी उपन्यासों में मुंबई” 2023 (अनंग प्रकाशन, दिल्ली), / उपन्यास : “पच्चीकारियों के दरकते अक्स” 2023, (वैभव प्रकाशन, रायपुर) / कहानी संग्रह: “समय जो रुकता नहीं” 2021 (वैभव प्रकाशन, रायपुर) / कविता संग्रह: 1 “गीली मिट्टी के रूपाकार” 2016 (हिन्द युग्म प्रकाशन) 2. “तृष्णा” 2012 (अनंग प्रकाशन). विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित: ‘हंस’, कृति बहुमत, नया ज्ञानोदय, साहित्य सरस्वती, ‘दस्तावेज़’, ‘आजकल’, ‘वागर्थ’, ‘पाखी’, ‘शुक्रवार’, ‘निकट’, ‘लमही’ वेब-पत्रिका/ई-मैगज़ीन/ब्लॉग/पोर्टल- ‘पहचान’ 2021, ‘मृदंग’ अगस्त 2020 ई पत्रिका, ‘मिडियावाला’ पोर्टल ‘बिजूका’ ब्लॉग व वाट्सप, ‘शब्दांकन’ ई मैगजीन, ‘रचनाकार’ व ‘साहित्य रागिनी’ वेब पत्रिका, ‘नव प्रभात टाइम्स.कॉम’ एवं ‘स्टोरी मिरर’ पोर्टल, समूह आदि में कविताएँ प्रकाशित। / रेडिओ : वेब रेडिओ ‘रेडिओ सिटी (Radio City)’ के कार्यक्रम ‘ओपेन माइक’ में कई बार काव्यपाठ एवं अमृतलाल नागरजी की व्यंग्य रचना का पाठ। प्रपत्र प्रस्तुति : एस.आर.एम. यूनिवर्सिटी चेन्नई, बनारस यूनिवर्सिटी, मुंबई यूनिवर्सिटी एवं कॉलेज में इंटेरनेशनल एवं नेशनल सेमिनार में प्रपत्र प्रस्तुति एवं पत्र-पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित। / सम्मान:- 1. ‘शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान’ 2013, तृतीय स्थान ‘तृष्णा’ को उज्जैन, 2. ‘अभिव्यक्ति गौरव सम्मान’ – 2016 नागदा में ‘अभिव्यक्ति विचार मंच’ 2015-16, 3. ‘हेमंत स्मृति सम्मान’ 2017 ‘गीली मिट्टी के रूपाकार’ को ‘हेमंत फाउंडेशन’ की ओर से, 4. ‘शब्द मधुकर सम्मान-2018’ मधुकर शोध संस्थान दतिया, मध्यप्रदेश, द्वारा ‘गीली मिट्टी के रूपाकार’ को राष्ट्र स्तरीय सम्मान, 5. साहित्य के लिए ‘आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र राष्ट्रीय सम्मान’ 2019, मुंगेर, बिहार, 6. ‘हिंदी अकादमी, मुंबई’ द्वारा ‘महिला रचनाकार सम्मान’ 2021 / </span><span style="font-weight: normal;">पता</span><span style="font-weight: normal;">: 34/603, एच॰ पी॰ नगर पूर्व, वासीनाका, चेंबूर, मुंबई – 400074. /</span><span style="font-weight: normal;"> </span><span style="font-weight: normal;">मो</span><span style="font-weight: normal;">: 09619209272.</span><span style="font-weight: normal;"> </span><span style="font-weight: normal;">ई मेल</span><span style="font-weight: normal;">: reeta.r.ram@gmail.com </span></div><div><br style="font-weight: 400;" /></div></span></div></div></h2></div><br />
<div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">पूरा हफ़्ता ख़ामोश कसक जी लेने के बाद कॉल किया, यूँ ही पूछने हालचाल...जबकि वह ख़ुद अपना हाल जानना चाहता था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हे...वाट्स-अप...” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“...कॉल कैसे किया?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ऐसे ही...क्यों नहीं करना चाहिए था?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ये मैंने कब कहा?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कहा तो...। ऐसे ख़ामोश शब्दों की लिस्ट लिए फिरती हो और...” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“और क्या...?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कुछ नहीं...हम्म...और इन्हें ही नहीं पता...।” वह कहते हुए मुँह फेर लेता है और बात नहीं पहुँचती उस तक, जो फोन की दूसरी ओर है। फोन काटने के बाद ध्यान आता है कि बेचैनी बढ़ गई होगी। हाँ, उस तरफ। उस बेचैनी का वह मज़ा नहीं लेना चाहता। पर वह चुप है कुछ देर फोन को घूरता हुआ। एक संतोष-सी फिलिंग जो किसी को बेचैन देखकर होती है, क्या वाकई ये वो है या...ये कुछ और है। वह तौलता हुआ कि क्या ये सिर्फ़ पसंद है या रिश्ता है, प्यार है...!! या यूँ ही किसी से बात करने की चाह या फिर कसक बने रहने का सबब। जानते हुए कि इच्छा भीतर बनी ही नहीं टीस भी रही है और यह जिद्द भी के उसे प्यार नहीं कहा जा सकता। कोई नाम नहीं दिया जा सकता...जाने क्यों! </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कॉल आता है उधर से जहाँ शायद कुछ बिखर गया था, “क्या हुआ? भन्नाए हुए क्यों हो?”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कुछ नहीं। तुमसे बात करने की इच्छा हो रही थी। तो...” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“इतनी-सी बात...सीधे-सीधे बोला नहीं जाता तुमसे?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हम्म...नहीं बोला गया।...लगा, जाने क्या सोचोगी।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अच्छा।...और तुम मिस भी कर रहे हो।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ शायद” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ कि ना??”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“पता नहीं” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ??”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“नहीं” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तो चलो रख रही हूँ।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“नहीं...रुको” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“किसलिए?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“बात करनी है।...ऐसी भी क्या बात है? हड़बड़ी में हो?!” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हूँ तो।...पर लगा तुम मिस कर रहे हो। बेचैन हो। उदास हो। इसलिए तुम्हें समय देने का विचार था, पर अब तुम ठीक हो तो...। काम में लगूँ।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अच्छा तो तुमसे बात करने के लिए...मुझे तुम्हें मिस करना होगा?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मैंने ऐसा नहीं कहा।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कहने का मतलब तो यही है...और पूछती हो ऐसा नहीं कहा।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मेरी ख़ामोशी बहुत पढ़ने लगे हो...क्या बात है?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्यों नहीं पढ़ना चाहिए?...कोई गुनाह है?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ना” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्या ना?”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कोई गुनाह नहीं” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“फिर” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“फिर क्या?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कुछ नहीं...”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“इत्ती-सी बात कह नहीं सकते! ...तुमसे बात करना अच्छा लगता है इसलिए फोन कर रहा हूँ।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हर कुछ बताना ज़रूरी है क्या?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“नहीं...बिलकुल नहीं...मैं तो अंतर्यामी हूँ...है ना...तुम्हारे मन की बात पढ़ लूँगी...” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“वैसे क्या...क्या कुछ पढ़ा?...कहो तो...” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“यही...कि...तुम्हें मुझसे बात करना अच्छा लगता है” कह कर लोमा हँस दी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कुछ अच्छा-वच्छा नहीं। अरे यार थोड़ा सा बात भर कर लेने से क्या कुछ सोचने लगी हो।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“सिर्फ़...मुझसे ही बातें!...क्यों करना है?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ यार...। सही तो कह रही हो...तुमसे ही क्यों...!!” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“आ गए ना पॉइंट पर। अब रखो।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अरे...क्यों?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“सनत! ...अच्छा बताओ तो खामखां बिफर क्यों रहे थे। अच्छा, अब समझी।...ख़ुद पर ही ना...!!” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“लोमा!! कुछ भी कहती हो...कहाँ बिफर रहा हूँ!! अच्छे से तो बात कर रहा हूँ!!” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ओह! अच्छा!...तब तो ठीक है न। अभी मुझे काम है। बाद में बात...।” और फोन कट जाता है। सनत गहरे सोच में तो था ही जिज्ञासु भी हो गया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मेरे ही दिल की बात...ज़बान पर ऐसे लानी थी!! इससे तो अच्छा चुप रहती। बात ही नहीं करती। पता नहीं क्या समझती है ख़ुद को। मुझे प्यार का एहसास कराया और चुप हो गई। मेरी बेचैनी का उसे अंदाज़ा नहीं?...होगा भी कैसे? और क्यों भला!!... और ये मुझे क्या हुआ है। बार-बार उसका ख़्याल। बात करने का इंतिज़ार। अरे तो क्या?। इतना भी क्या है। कुछ दिन ही शहर घूमने का साथ था। यूँ ही बात करने की इच्छा हुईं। बस। हाँ बस। चल यार...बाहर चलते हैं, और सनत बुदबुदाता कैफ़े चला गया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आधे घंटे में दो कॉफी पी। बिना किसी के इंतिज़ार के...। वाकई। देर बाद लोमा का फोन आया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“सॉरी सनत...” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“फोन क्यों काटा?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कहा ना सॉरी” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“बुरी हो।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“यार!! बच्चे हैं। भूख लगी थी उन्हें। खाना पकाना था। और भी कई काम। तुम नहीं समझोगे।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ओके। ओके। समझ गया। आई एम... आई एम सॉरी...रियली। रियली वेरी सॉरी यार... ” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ये अच्छा है। आज हम सॉरी सॉरी गेम खेलते हैं।” खिलखिला दी लोमा। हँसी जैसे छन कर आ रही थी, सुनता रह गया सनत। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“......” कुछ बोल नहीं पाया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अच्छा तो तुम अब मेरी हँसी सुन रहे हो...।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्या बोल रही हो!...तुम्हें कैसे पता चल जाता है?...कैसे अंदाज़ा लगाया।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“चलता है ना पता।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हम्म...बहुत हो गया। हाँ .. ” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अच्छा अच्छा...अब बकवास बंद। बोलो कैसे याद किया?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“बस यूँ ही। कहा तो कितनी बार जानना चाहोगी। बात करने का मन कर रहा था...बताया तो।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“वो तो दिख रहा है...लेकिन तनाव में क्यों लगे? परेशान से।...क्या सोच रहे हो?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तनाव नहीं।...बस...सोच रहा था ऐसा क्यों?...” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अच्छा । सोचो तो अगर मैं पुरुष होती...!!” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तो क्या??” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ...वही तो...सोचो। तब भी...क्या ऐसा फ़ील करते!! मतलब ऐसे ही फोन करने में ख़ुद को उतावला महसूस करते?...सोच कर बताना।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“....शायद नहीं। आराम से खा-पीकर इत्मीनान से फोन करता।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्यों?...ऐसा क्यों। सोचो।...ये प्रश्न मैं तुमसे नहीं।...तुम ख़ुद से कर रहे हो?...ओके...” और लोमा ने फोन कट कर दिया। सोचने को छोड़ देना ज़रूरी था सनत को...। कम बौखलाया सनत इस बार। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सोचता रहा वह खाते, पीते, उठते, बैठते। वह कर रहा है यह सब। आख़िर क्यों!! किसलिए। दिमागी उधेड़बुन। और इस सब के बीच फोन करना भूल गया पत्नी को। नहीं वह भुला नहीं। उसने फोन नहीं किया जानते हुए कि वह रोज़ सुबह पत्नी को फोन करता है। बच्ची से बात करता है। ये अलग बात है कि आज शनिवार है। बच्ची का सुबह का स्कूल है और वह नहीं मिलेगी। वह दोपहर का इंतिज़ार कर रहा है हमेशा की तरह। नहीं भुला वह कुछ भी नहीं...। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सिगरेट निकालकर पीने के लिए उसने समय लिया। सोचने के लिए भी कि सिगरेट पीना है या अभी नहीं। पीना कितना ज़रूरी है...पीना है भी या नहीं। नहीं तो क्यों नहीं...। वह तो रोज़ ही पीता है। इतना सोचने का...आज समय क्यों ले रहा है। और वह सोचने लगा लोमा के बारे में। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लोमा ने जैसे उसके हर पल को ठहरा दिया था। सिगरेट किनारे रख वह बेड पर लेट गया। देखने लगा पंखे की ओर...कुछ सोचता हुआ। ऊपर पंखा अपनी पूरी तन्मयता से घूम रहा है। बटन बंद कर देने पर नहीं घूमेगा। इस बात में क्या जिज्ञासा हो सकती है...!! कुछ नहीं। पर सनत पंखे को घूर रहा है सोचते हुए जैसे अपने बीते जीवन को देख रहा हो। एक-एक रील...जो घूम रही थी उसके और लोमा के बीच। वह खुश है। बहुत खुश। लोमा के बारे में सोचकर। लोमा को सोचकर। पत्नी घर परिवार बच्चे सब है उसके निजी जीवन में। पर वह लोमा को सोच रहा है। क्यों। तो क्या!! वह पहला शख्स है जो ऐसा कर रहा है। पत्नी के होते किसी और के बारे में सोच रहा है। नहीं। नहीं ना...। कई करते हैं ऐसा। कई कर चुके हैं। फिर प्रॉब्लेम क्या है। क्या ज़रूरी है? कितना ज़रूरी है? सोचता रहा सनत खुली आँखों से घूमते पंखे को घूरता हुआ घंटों। वह तय करना चाहता था कितना, क्यों, किसलिए, क्या है ज़रूरत। ज़रूरत है भी या नहीं, सब कुछ...। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लोमा एक साफ़ दिमाग इंसान, सीमित बोलने वाली और बहुत कुछ ऐसा जिसका सोचना ज़रूरी ना हो तो उससे मुक्ति दिलाने वाली। प्यारी।...प्यारी कहना ज़रूरी नहीं। क्यों नहीं।...सुलझी हुईं...लड़की। लड़की कहना भी ज़रूरी नहीं। क्योंकि वह औरत है। दो बच्चों की माँ। और वह उसके बारे में सोच रहा है तब से जब से उससे दूर हुआ है। क्या फ़र्क पड़ जाता है लड़की हो, औरत हो, दो बच्चों की माँ हो उम्र में बड़ी हो या नहीं हो। वह सोच रहा है। और यह भी कि यह सोचना भी कितना मुनासिब है। नहीं सोचने से क्या फ़र्क पड़ जाएगा? नहीं बात करने से क्या कम हो जाएगा? और उसने सिगरेट निकाल ली। पीने के लिए। पीने लगा। एक। दो। तीन। चार। नहीं। अब नहीं। उसे लोमा चाहिए। बस बात करने के लिए। बात करने से क्या फ़र्क पड़ जाएगा। कोई मिलने थोड़े ही जा रहा हूँ। वह कहाँ, मैं कहाँ। कुछ दिनों की मुलाक़ात थी बस...और ये क्या हो गया मुझे। सोचता रह गया सनत। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दिल में आया एक प्यारी-सी नींद ले लें। लेकिन नहीं, उठा। फ्रेश हुआ। नाश्ता तो दो कॉफी की भेंट चढ़ चुका था। उसने खाने का ऑर्डर अभी से दे दिया। खाना आने में अभी तो समय है। आज सुबह-सुबह दुबारा कैसे नींद लेने की इच्छा हो रही है। आश्चर्य। याद आया रात काफी देर तक वह जागता रहा था। सोने की कोशिश करता फिर बार-बार बीती ट्रिप के बारे में सोचने लगता। यह अच्छी ट्रेकिंग ट्रिप होती। पर ट्रिप पूरी करने आगे नहीं जा पाए हम। कुछ अड़चने और सभी ने वापस लौटना सही समझा। ऑनलाइन बुकिंग से पच्चीस लोगों की ट्रिप थी लेकिन कैंसल हो गई। दो-तीन दिन दिल्ली में ही इंतिज़ार किया था सबने और लौट गए। वरना पिछली बार चंबा और उसके पहले धर्मशाला की यात्रा, इस बार भी मजा आ जाता। खैर। कोई बात नहीं अगली बार फिर कहीं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इसी असफल ट्रिप में मिली लोमा। कुछ दिन का साथ। मतलब दिल्ली में बिताए कुछ दिन। वह पहली बार ही आई थी। शायद ट्रिप के कैसल होने ने उसे पस्त कर दिया हो अब। शायद अब कभी जाने की सोचे ही ना। मुझे क्या फरक पड़ता है। आए या ना आए। लेकिन उससे मिलना हुआ। अब लगता है जैसे डेस्टिनी थी। जाने क्या-क्या सोचने लगा हूँ। हाँ वह अच्छी लगी। बहुत अच्छी। उसके अच्छे होने का एहसास...आज ज्यादा हो रहा है। अब। अब जबकि वह एक कहानी है बस। बीत गई सो बात गई वाली। क्या वाकई? उसने सवाल करते हुए ख़ुद को निहारा आईने में। आईने ने बढ़े हुए शेव की उसकी तस्वीर दिखा दी। हाथ अनायास ही बढ़ी हुईं दाढ़ी पर गए। होंठ को गोल करते हुए हल्की सीटी के साथ उसने दाढ़ी को सहलाया और उँगलियाँ माथे पर ले जाकर बालों में घुसा दी। चेहरा बाई और दाएं करते हुए बारीकी से चेहरे की परतों में आई कमियों को तलाशने लगा। अचानक फोन बज उठा और उसने लपक कर उठाया। कान तक ले जाते-जाते फोन में पत्नी के नाम पर नजर पड़ी। आवाज सुनाई दी...</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“पापा!! कब आ रहे हो? जल्दी आओ ना। मेरे लिए गाड़ी लाना मत भूलना। रिमोट वाली कार। मेरी सारी सहेलियों के पास है रिमोट वाली गाड़ी और गुड़िया। पता है पापा टीचर ने आज हमें ‘ऐसे’ लिखने कहा। टीचर कहती है, मम्मी पर तो ‘ऐसे’ कई बार लिख चुके हैं सभी। तुम सब कल पापा पर ‘ऐसे’ लिखकर लाना।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ, मेरा बच्चा। माय डार्लिंग। ज़रूर लिखो। खूब अच्छे से लिखना। आकर देखूँगा। ठीक है। अच्छा बेटा मम्मी कहाँ है?”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मम्मी किचन में हैं। शांति बाई आई है ना। उससे बात कर रही है। और खाना बना रही है। आप कल पक्का आ रहे हो ना पापा?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ बेटा। ज़रूर आऊँगा।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मेरा गिफ्ट ज़रूर लाना पापा?” फोन बिना काटे रख दिया गया सोफ़े पर...। कविता और मेड की बातें सुनाई देती रही और टीवी पर आते कार्टून चैनल की आवाज। सनत बेटी के चेहरे को अपने मोबाइल की स्क्रीन में देखने लगा। बेटी और पत्नी की तस्वीर। साथ में। जैसे उसकी अमानत। जब भी उदास होता इस तस्वीर को देखने लगता। वे दोनों उसकी जीवन का हिस्सा। उनके बगैर वह अधूरा। बेमतलब। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">डोर बैल बजी। स्वीगी वाला खाना लाया होगा। सनत ने बेमन से खाना खाया जैसे कोई ड्यूटी कर रहा हो। कल उसे घर जाना है पूना। मुंबई से पूना 4 घंटे का रास्ता। पत्नी और बिटिया उसकी निगाहों के सामने घूम गए। हर बार वह दुगने उत्साह से जाता है और आते वक्त दुखी भी होता है। आज वह खुशी कहाँ गुम हुईं जा रही है। क्या वह बदल गया है। क्या वह वह नहीं रहा जो अब तक था। ऐसा भी क्या हुआ है। क्या बदल गया है। वह सोचता रह गया। खाना कब खत्म हुआ, उसे याद नहीं। क्या कोई भूल हुईं उससे। नहीं तो। फिर क्या हुआ। ख़ुद को खोजता रहा ख़ुद में और सो गया सनत एक लंबी नींद जो उसके लिए ज़रूरी थी एक भरपूर रात जागने के बाद। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उठने पर लगा फायनल करना होगा। कुछ तो। ऐसे नहीं चलेगा। कुछ फैसले लेने होते है। क्या लोमा भी उसके बारे में सोचती होगी। सोचती होगी भी या नहीं। उसने सोचना बंद कर दिया। अब वह बात करके ही फैसला लेगा। लोमा को बिना सोचे समझे फोन लगा बैठा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्या कर रही हो?”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“होम वर्क करा रही थी बच्चों को” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“डिस्टर्ब किया?”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“नहीं। बोलो।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मैं मैं...बहुत अकवर्ड फ़ील कर रहा हूँ। तुम भी क्या सोच रही होगी।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“सुन रही हूँ।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मैं तुमसे बात कर रहा हूँ। ना जानते हुए कि तुम्हारे पति...” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“नहीं है।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कहीं गए होंगे” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अब नहीं रहते हम साथ” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ओह...एम सॉरी। मुझे पता नहीं था।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“पता चल भी जाने से स्थिति नहीं बदलती सनत। आगे बोलो।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मैं जो कर रहा हूँ करना चाहता भी हूँ। पर सोच भी रहा हूँ कि क्यों कर रहा हूँ”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हम्म...प्रॉब्लेम क्या है क्लियर बोलो।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“वही तो सोच नहीं पा रहा हूँ। आख़िर ऐसा फ़ील क्यों कर रहा हूँ।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“इसका जवाब तुम्हें ही खोजना है।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“येस”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तो खोजिए...”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तुमसे मिलने का मन है।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“नहीं मिल सकती।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्यों...?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्योंकि...तुम अपनी पत्नी से बेइंतहा प्यार करते हो।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तुम्हें कैसे पता चला?”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“और तुम लोमा के बारे में भी सोचने लगे हो। दुविधा में हो। यह बात तुम्हें समझ नहीं आ रही है कि लोमा से कैसे...क्या...क्यूं...कब...है ना?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“एकजेक्टली। मेरा मतलब तुमसे प्यार हो गया है। बिलकुल यही फ़ील कर रहा हूँ।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“दोस्ती में पनपती मोहब्बत का मतलब यह नहीं कि बर्बाद हो जाना। बदनाम हो जाना। दो-तीन दिन की बातचीत को आप प्यार कहते हो कोई फरक नहीं पड़ता। बुरा तब लगेगा जब इसे तुम अपनी पत्नी के रिश्ते से तौलोगे?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तुम करती हो मुझसे प्यार?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्या फ़र्क पड़ता है डियर। करती हूँ या नहीं करती।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“....“ ख़ामोश था सनत। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“इसके अंजाम क्या तुम जानते हो? देख चुकी हूँ मैं। पति की जीवन में किसी के एंट्री की सजा भुगत रही है मेरी फैमिली। जिंदगियाँ बर्बाद हो जाती है। चार साल से अकेली रह रही हूँ। बच्चों और पेरेंट्स के साथ ने संभाला हुआ है मुझे। जब तुम्हारी जिंदगी में सब कुछ अच्छा चल रहा है सनत तो हमारी दोस्ती की बिसात पर जिंदगी के रिश्तों से शतरंज ना खेलो। बहुत तकलीफ होती है। जब एक-एक कर प्यादे मरते हैं। हम खुली आँखों से देखते भर रह जाते हैं और कोई नहीं बचता। हम किसी को बचा नहीं पाते। सब एक खेल की तरह चलता चला जाता है। बीतता जाता है और एक दिन हम सामना करते हैं ‘चैक एण्ड मेट’ का। एक ना एक को तो हारना ही होता है। बहुत दुखदाई होता है जब दोनों तरफ अपने ही दाँव पर लगे हो। जीत भी जीत की तरह नहीं लगती। दोनों ओर से हार ही महसूस होती है। पाया पाया जैसा नहीं लगता और खोना तो जीवन ही बर्बाद कर देता है। किसी के लिए कोई सम्मान नहीं बचा रह जाता उस वक्त। जानते हुए भी हम खेलते हैं शतरंज करते हुए अपने अपनों को जख्मी शायद यही नियति है सोचते हुए। जबकि हमें सोचना है नियति के अनेक विस्तार को...जिसमें रिश्तों के टूटने की झन्नाहट भी हो, सीलती हुईं रिश्तों में पैबंद भी, फैसलों में होती खाईयों की मौजूदगी भी। पर कहाँ सोच पाता है कोई। ठोकर ही हमें सिखाती है तब तक देर हो चुकी होती है। मुझे गलत ना समझना सनत। पर इस तरह से भी सोच कर देखना ज़रूर। वैसे हर कोई अपने फैसले ख़ुद लेने के लिए स्वतंत्र है।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“समझता हूँ। थैंक्स लोमा। रखता हूँ। कल पूना जाना है पैकिंग भी करनी है।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कब वापस लौटोगे?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कुछ कह नहीं सकता। शायद इस बार कुछ लंबा रुकूँ।” बाय कहकर सनत ने फोन रख दिया और कल की तैयारी में जुट गया सोचते हुए कि कहाँ से खिलौने खरीदने हैं। कहाँ से कविता के पसंद की साड़ी लेनी है। लेकिन मन...मन ने पुनः टोका, “और लोमा? दोस्त या मोहब्बत”। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मुस्कुरा कर रह गया सनत। सोचते हुए कि नहीं जानता। फिर भी अच्छी थी। दोस्त हो या मोहब्बत...निभा गई। </div></div><div style="text-align: right;">
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-80828955205892168832023-09-14T11:24:00.004+05:302023-09-14T11:29:07.840+05:30स्मृतिआँगन: वो मसीहा मोहब्बत के मारों का है ~ गीताश्री | Dhirendra Asthana in GeetaShri's SmritiAangan<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div dir="ltr" trbidi="on"><span style="color: #666666;">मुझे हमेशा लगता रहा है कि हम जितना दूसरों के अनुभवों को समझकर जानकार बनते हैं, उतनी आसानी से और किसी तरह नहीं। खुश हूँ कि गीताश्री ने अपनी यादों को हम तक पहुंचाना शुरू किया है, जिसकी पहली कड़ी में वे संपादक साहित्यकार धीरेंद्र अस्थाना को लेकर आई हैं। </span></div><div dir="ltr" trbidi="on"><span style="color: #666666;">हिन्दी दिवस की बधाई के साथ गीताश्री के स्मृतिआँगन में स्वागत है।~ सं० <span><a name='more'></a></span></span></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><div style="text-align: justify;"><br /></div><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgKa9R6rQc-k71XDueSnGl2YKXi23SIkY4YKC8H41hmJY-97JGJduVtjHo9U3-b1OTIQPJHdIast2IGSopEEXS6aKHnE0TqRUZpM1Ualu2-aLiCOeHLxjxfjeSxdEN11vUjke15QCzdGD1_x2qYRjWblKAdbEsUbBSP7IFCGbV8vakGME7l08KwKGA2sQDo/s903/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A8%20%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%86%E0%A4%81%E0%A4%97%E0%A4%A8%20%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82%20%E0%A4%A7%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%20%E0%A4%85%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgKa9R6rQc-k71XDueSnGl2YKXi23SIkY4YKC8H41hmJY-97JGJduVtjHo9U3-b1OTIQPJHdIast2IGSopEEXS6aKHnE0TqRUZpM1Ualu2-aLiCOeHLxjxfjeSxdEN11vUjke15QCzdGD1_x2qYRjWblKAdbEsUbBSP7IFCGbV8vakGME7l08KwKGA2sQDo/s16000/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A8%20%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%86%E0%A4%81%E0%A4%97%E0%A4%A8%20%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82%20%E0%A4%A7%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%20%E0%A4%85%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Dhirendra Asthana in GeetaShri's SmritiAangan</td></tr></tbody></table><br /><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on"><blockquote>स्कर्ट और टॉप पहनने वाली ललिता ने एक आदमी का कालर पकड़ा हुआ था और वो आदमी गिड़गिड़ा रहा था, बहन जी छोड़ दो, गलती हो गई। भीड़ अपने काम में जुटी थी— आदमी पर लात, घूंसे, चांटे बरसा रही थी। मुझे देख ललिता गरजी, साला कह रहा था, चलो चलिए। चल, अब पुलिस चौकी चल। </blockquote><br /><br /><h1 itemprop="headline" style="text-align: left;"><span style="text-align: justify;">गीताश्री के स्मृतिआँगन में धीरेंद्र अस्थाना </span></h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">
वो मसीहा मोहब्बत के मारों का है...</h2>
<div 11px="" font-size:="">~ गीताश्री</div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पता नहीं कहाँ पढ़ा था लेकिन मेरी नोटबुक में वो पेज आज भी मौजूद है जिस पर लिखा है —“मेरी तमाम कोशिशें फ़िज़ूल और प्रतिबद्धताएँ संदिग्ध ठहराई जा चुकी है। इस संसार में एक छोटे आदमी की अकेले पड़ जाने कि यह विराट पीड़ा है जिसे मैं अपनी आँख से देखने और महसूस करने पर मैं इस मुल्क के एक बड़े वर्ग समूह की छाती में कलपता पाता हूँ मैं पहले ही कह चुका हूँ कि मैं इन लोगों के बीच खड़ा हो जिनके हक़ छीन लिए गए हैं।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">साहित्य को लेकर मेरी समझ तब थोड़ी बननी शुरू हुई थी और मैं किसी भुक्खड़ की तरह टूट कर पुरानी चीजें ढूँढ कर पढ़ना चाहती थी। संगति भी थी ऐसे लेखकों की जो मुझे पठनीय सामग्री मुहैया कराते थे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उसी दौरान की बात है। लेखन प्रक्रिया की समझ बन रही थी कि ये पंक्तियाँ पढ़ने को मिलीं। कहने में गुरेज़ नहीं कि मेरे कथा-गुरु राजेन्द्र यादव ने कहीं से खोज कर दी और कहा — धीरेंद्र को पढ़ ले … पत्रकारिता से ये भी जुड़े हैं। साहित्य और पत्रकारिता के बीच संतुलन सीख सकेगी और एक समझ भी विकसित होगी कि पत्रकारिता में स्थापित होने के बावजूद वो कौन सी खला है जो इस बला को लेखन की तरफ़ मोड़ रही है।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वे ठहाका लगाते थे और मैं इन पंक्तियों से जूझने लगती थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जबकि ये सच मैं इन्हें बता नहीं पाई कि लेखन से जुड़ने से पहले उनके संपादकत्व में ख़ूब छपी हूँ।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैंने बाद में उन्हें बताया — </div><div itemprop="articleBody">“याद है मुझे। मैं चीजें सँभाल कर रखती हूँ।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आज जो संपादक नामक संस्था ख़त्म हो गई है और लेखन लगभग बेक़ाबू हो चला है। ऐसे समय में मुझे याद आता है वो दौर जब आप संपादक के सामने बैठे हों, वो आपको कुरेद कर पूछते हैं – “ इन दिनों क्या किया? कहाँ घूम कर आई? कुछ नया और अलग सा लाई हो?”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“जी …”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कुछ ख़ास नहीं… वेब दुनिया के काम से पुणे गई थी। पंडित भीमसेन जोशी का इंटरव्यू करने…”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“वाह ! हमें दे सकती हो ? कुछ exclusive हो तो?”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हमने तो वेब दुनिया के लिए किया, उन्हें दे दिया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कुछ देर वो चुप रहे। देह कुर्सी पर लगातार हिल रही थी। छोटा सा केबिन और सामने मैं बैठी थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उनके हाथ में कोई कॉपी थी, पेन थी, कोई मैटर पढ़ रहे थे, एडिट भी कर रहे होंगे, ऐसा मेरा अनुमान था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मेरे पास उनकी पत्रिका को देने के लिए कुछ नहीं था और मैं उनसे असाइनमेंट माँगने पहुँची थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जबकि होना ये चाहिए कि कुछ आयडिया लेकर मैं पहुँचती वहाँ, उन्हें बताती और उनमें से एक चुन कर वे मुझे काम पर लगाते। मैं यात्रा से लौटी थी और बस कायनेटिक होंडा चलाती हुई उनके ऑफिस पहुँच गई थी। वजह थी… मैं उनसे मिलने और बात करने में ज़्यादा रुचि ले रही थी। मेरे भीतर जो रूखा-सूखा पत्रकार था, उसे ऐसी संगतियों और गपशप में भी आनंद आता था। कुछ न मिले तो भी कुछ लेकर हम लौटते हैं जब ऐसे किसी व्यक्ति के समक्ष बैठते हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मुझे बहुत सुख मिला जब बिना आयडिया के उन तक काम माँगने पहुँची मुझे उन्होंने जज नहीं किया। बल्कि मुझे कुरेदने लगे… भीमसेन जोशी पर बातें करने लगे। उनकी गायकी पर। फिर अचानक मेरा अनुभव पूछा… “तुम्हें कैसा लगा मिल कर…?”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“इंटरव्यू छोड़ो… अपना इंप्रेशन बताओ…”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लिविंग लीजेंड से मिलने का जादू वो पूछ रहे थे और मैं जैसे भरी बैठी थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैंने उन्हें बताना शुरु किया कि कैसे भीमसेन जोशी के घर में हमारा स्वागत हुआ… किस तरह पंडित जी और उनके परिवार ने व्यवहार किया। मेरे साथ तब आज की प्रख्यात सिने लेखिका अनिता पाध्ये भी थीं। और रिकार्डिंग के लिए दो लड़के भी थे। पंडित जी ने उन्हें रोक दिया था, वो अंदर न आ सके थे। वीडियो रिकार्डिंग से पंडित जी ने सख़्ती से मना किया और हमारे बहुत आग्रह पर सिर्फ़ पूरी बातचीत टेप रिकार्डर में टेप करवाने को राज़ी हुए।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वीडियो के लिए उन्होंने खुल कर पैसों की डिमांड की जो हम उन्हें दे नहीं सकते थे। उन्हें हमने बहुत समझाया कि यह वेबसाइट के लिए है, दूरदर्शन के लिए नहीं। पंडित जी ने बताया कि वे दूरदर्शन से पैसा लेते हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हम बहुत आग्रह किए, न माने। अनिता इस पूरी बातचीत को को-ऑर्डिनेट कर रही थीं। हम मुंबई से बाई रोड यात्रा करके पूणे पहुँचे थे। पंडित जी ने इतना निराश किया कि बातचीत का उत्साह जाता रहा। मेरा मन उचट गया और उनके घर एक घंटे बैठे, पानी पीकर निकले।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">महान लोगों से व्यक्तिगत तौर पर मिलने का मेरा उत्साह हमेशा के लिए मर गया और वो फिर ज़िंदा न हो सका। मेरा मन होता है, घोषित महान लोगों के दरवाज़े पर तख्ती टांग दूँ कि इधर भूल कर भी न आना, बहुत ठेस पहुँचेगी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं अपने इस संकल्प पर आज भी क़ायम हूँ। मुहब्बत होगी तो किसी साधारण व्यक्ति के दरवाज़े पर खड़ी हो जाऊँगी …</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आप महानता बोध से भरे हुए हैं तो दूर से सलाम।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ये सारी बातें मैं रोष से भर कर बोले जा रही थी… और बोलती अगर जो वो न रोकते।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वो मतलब वरिष्ठ साहित्यकार —संपादक धीरेंद्र अस्थाना।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मेरे लिए वे पहले पत्रकार फिर साहित्यकार रहे और आज भी मैं उनके पत्रकारीय रुप की प्रशंसक हूँ। इस पर आगे बात होगी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">फ़िलहाल महानता पर बातें।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">धीरेंद्रजी ने मुझे बीच में ही रोक दिया…” रुको … मैं समझ गया… पूरा मत सुनाओ…”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“इंटरव्यू तुम वेबदुनिया को दे दो... मुझे तुम अपना यह वृतांत दो। पंडित भीमसेन जोशी से मिलना और महानता के मिथ का टूटना… तुम्हारे कोमल मन पर इसका प्रभाव और उनका रुखा व्यवहार …! मैं चाहता हूँ, यह पक्ष भी सामने आए। “</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं वहाँ से ये काम लेकर लौटी और लगभग हाथ का लिखा आठ पृष्ठों का आलेख लेकर उन्हें देने गई।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उस दिन उनके चेहरे पर कुछ तनाव था, खुल कर कुछ कहा नहीं, तब शायद निकटता कम थी या, उन्होंने सोचा होगा कि किसी फ्रीलांसर से क्या बात करना। वो ऑफिशियल मसला रहा होगा। उन्होंने मेरे सामने ही आलेख पढ़ा और उन्हें अच्छा लगा कि मैंने उनके सुझाए सारे पहलुओं पर खुल कर लिख दिया था। मुझे कभी भी किसी की महानता आक्रांत नहीं करती न दबाती है। मेरे प्रोफ़ेशन ने मुझे हमेशा महानता के बोझ तले दबने से बचाए रखा। हम महान लोगों के सामने स्थिर और सम पर रहने की कोशिश करते हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उस आलेख को कंपोज़ करने के लिए किसी को आवाज़ लगाई। मैं उन्हें सौंप कर उठने लगी तो मुझे एक किताब पकड़ाई –- “इसका रिव्यू कर देना।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पतला-सा उपन्यास था, जयंती (जयंती रंगनाथन) नामक लेखिका का। जो बाद में मेरी अभिन्न मित्र बनीं, उसकी वजह यह समीक्षा भी रही। मैं उनसे और उनके लेखन से परिचित नहीं थी। उपन्यास पढ़ा और छोटी-सी समीक्षा लिख कर दे आई। तब हमें शब्द संख्या पृष्ठ पर जोड़ना पड़ता था। आज हम कंप्यूटर पर शब्द संख्या चेक करते हैं। आज आसानी है। तब कहा जाता था, पाँच सौ, हज़ार शब्द से ज़्यादा मत लिखना।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हम पेज पर शब्द काउंट करते और बड़ा होता तो ख़ुद से संपादित करके भेजते। ज़्यादा बड़ा हो तो वैसे ही भेज देते कि कॉपी एडिटर ठीक कर ले। यह कितना बड़ा अन्याय था, यह तब समझ में आया जब मैं ख़ुद कॉपी एडिटर बनी। तीन हज़ार शब्दों की कॉपी को तीन सौ शब्दों में करने की तकलीफ़ कोई क्या जाने।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">तो मैं उस उपन्यास की समीक्षा उन्हें लिख कर दे आई। वह जल्दी छप गई। आलेख छपने में देरी हो रही थी और मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। तब हमें संपादक को फ़ोन करते बहुत हिचक होती थी। इससे बेहतर मिल कर बात करना।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">और फिर… मैंने आलेख को भुला दिया। नौकरी लग गई, काम में डूब गई। तभी कुछ दिन बात पता चला कि वह पत्रिका “ जागरण उदय” बंद हो गई।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक बढ़िया पत्रिका का बंद होना, दुखद था। तभी मुझे ध्यान आया कि उस दिन आलेख देते समय वे तनाव में क्यों थे। वे मुझसे कुछ कह क्यों नहीं पाए। आलेख का असाइनमेंट देते समय वे सहज थे, लेते समय वे असहज। वे मुझे मना भी नहीं कर पा रहे थे और बता भी नहीं रहे थे कि पत्रिका कुछ अंकों की मेहमान है, शायद न छाप सकूँ।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वे चाहते थे कि आख़िरी अंक में भी छपे। उतना स्पेस न मिला होगा और वो आलेख रह गया छपने से। जिसे मैंने बड़े मन से लिखा था। जो छपता तो कई मिथ टूटते। तब पंडितजी जीवित थे। मैंने सोचा था कि पत्रिका का वह अंक उनके पते पर भिजवाऊँगी ताकि वे पढ़ें कि दूर से चल कर आई दो पत्रकारों को अपने घर से पानी पिलाकर विदा कर देना कितना निर्मम होता है। इंटरव्यू के लिए पैसे माँगना एक श्रमजीवी पत्रकार से कितना दुखद होता है। हम तो अपना काम कर रहे थे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हमने उन्हें गाने को तो नहीं कहा था, सिर्फ़ बात ही तो करनी थी…!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मोहभंग ऐसे ही होता है। वास्तव में मोहभंग हमारी भावनाओं का खून कर देता है। लेख नहीं छपा, उसकी कॉपी वापस नहीं मिली, लेकिन उसे लिखते हुए मेरी शुद्धि हो गई। मुझे धीरेंद्रजी ने हमेशा के लिए बचा लिया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैंने महानता के मक़बरे पर चिराग़ जलाना बंद कर दिया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">धीरेंद्रजी ने मुझे मुक्ति दिलाई। पत्रकारिता का एक पाठ पढ़ा मैंने जो साहित्य संसार में भी काम आ रहा है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><b>जो रचेगा वही बचेगा </b></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उनके इस सलोगन की चर्चा तब ज़ोरों से शुरु हुई थी जब उन्होंने मुंबई में सबरंग का संपादन करते हुए एक कॉलम शुरु किया था —</div><div itemprop="articleBody">“जो रचेगा वो बचेगा “</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लेखकों / पत्रकारों को लेखन की तरफ़ मोड़ने वाला यह ब्रम्ह वाक्य मुंबई से होता हुआ दिल्ली तक पहुँचा और सबके कंठ में बस गया। उस वक्त भारी संख्या में पत्रकारों ने साहित्य की तरफ़ रुख़ किया। उनकी दबी हुई लेखनी, काव्य प्रतिभाएँ, उनका किस्सागो बाहर आने लगा। वह दौर रचनात्मकता के उभार का दौर था, आज की तरह विस्फोट का दौर नहीं। इस कॉलम ने खोये-सोये अरमान जगाए। अपनी रचनाओं के आलोक में जगमगाने लगे थे लोग। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ख़ुद चाहे कम रचे, बहुतेरे लोगों से लिखवाया। दूसरों से लिखवाने का उनका सिलसिला दिल्ली-मुंबई हर शहर में जारी रहा… एक संपादक / कॉपी एडिटर / फ़ीचर एडिटर की सारी ज़िंदगी दूसरों को आयडिया देकर लिखवाने में, उसकी कॉपी ठीक करने में, संपादन करने में, सुंदर मानीखेज हेडिंग लगा कर छापने में खप जाती है। अखबारी जीवन बड़ा शुष्क होता है जहां अपना लेखन रुष्ट हो जाता है। अपनी प्रतिभा दूसरों को चमकाने में लग जाती है। जाने कितने बड़े लोगों की कॉपी जाँचते हुए / बाँचते हुए एक संपादक / पत्रकार काम करता जाता है। उसके सीने में लेखन की आग दबी-सी रह जाती है। इनके साथ भी यही हुआ, इनके तमाम दोस्त गवाह होंगे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैंने राजेन्द्र यादव को कई बार इन पर झुंझलाते देखा है। एकाध बार फ़ोन पर झिड़कते भी। फ़ोन रखने पर बताते कि कहानी नहीं दे रहा … देखो तो… </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उनके मुख से प्यार भरी गाली फूल-सी झड़ जाती। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इस तरह उनका एक चरित्र मेरे सामने बनता रहा। जो दूसरों को प्रेरित करता है वो ख़ुद अमल क्यों नहीं करता जबकि उनका ब्रम्ह वाक्य हमारे दिमाग़ों में घुसने लगा था। हम उसी दिशा में सोचने लगे थे कि बचे रहने के लिए रचना होगा। और फिर एक दिन पत्रकार रहते हमने ऊँची छलांग लगा दी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">तब इसके भीतर की सच्चाई, छल छद्म मालूम न थे। ये भी पता न था कि रचने की क़ीमत किस तरह चुकाई जाती है और यह बहुत ही निर्मम प्रक्रिया है। बचने के चक्कर में रचते-रचते एक दिन लगा, मैं कहीं ख़त्म हो रही हूँ। इतना झोंकना उचित नहीं। धीरेंद्रजी ने इतना झोंकने को नहीं कहा था कि सबकुछ छोड़ कर लेखन के पीछे पड़ जाओ। वो ख़ुद ही नौकरी की लंबी पारी खेलते रहे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैंने कुछ ज़्यादा ही गंभीरता से लिया था और जिसकी वजह से बहुत कुछ छूट गया। सबकुछ लुटा कर होश में आए तो क्या किया…</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अब कोफ्त होकर ठीक उलट कहती हूँ — “हम बचेगा तो रचेगा !”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उनसे सीखने को और भी बहुत कुछ है। हर दिन, हर बात में वे कुछ सीख दे जाते हैं। उनसे जितने भी संवाद होते हैं, उन्हें सँभाल कर रखती हूँ, मन उलझे, कुछ न सूझे तो संवाद पढ़ लिया करती हूँ। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अभी कुछ संशय था… कहीं जाने आने को लेकर। मैं चाहती हूँ, वो भी एक आयोजन में शिरकत करें। वो लगातार आयोजकों को मना करते जाते हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैंने पूछा तो उनका लिखित जवाब आया — </div><div itemprop="articleBody">“मैं कामू काफ्का सार्त्र का शिष्य रहा हूं, अध्ययन के स्तर पर इसलिए लेखन के सिवा किसी बात को महत्व नहीं दे पाता!”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गहरे आदर से भर गई हूँ। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">काफ़्का का एक कथन याद आया जब वो स्वीकारते हैं —“ मैं हर समय अपनी क़ैद अपने अंदर लिए रहता हूँ।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">या </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“एक किस्सागो क़िस्सा कहने की कला के बारे में कुछ नहीं बता सकता। वह क़िस्सा कहता है, या चुप है। उसकी दुनिया या तो उसके अंदर धड़कती है या ख़ामोश हो जाती है।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">धीरेंद्रजी को मैंने हमेशा ऐसा ही पाया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ये बात सीखने लायक़ है। लेकिन मैं नहीं सीखूँगी … क्योंकि हमारे स्वभाव और सोच भिन्न हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इन दिनों जब मैं उन्हें बहुत क़रीब से जानने लगी हूँ— तब समझने लगी हूँ। अपने दोस्तों के लिए वे अलग हो सकते हैं, मेरे लिए वो वैसे ही हैं, जैसे ग़ुस्ताद जैनुक के लिए काफ़्का। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बहुत लंबे साथ के बावजूद ग़ुस्ताद उन्हें समझ नहीं पाया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं भी समझने के दौर में हूँ। बस संगति नहीं मिली। जब परिवार का हिस्सा बनी तो शहरों की दूरियाँ आड़े आ गई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><b>मैं अपने द्वीप में रहता हूँ </b></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यह सच है, दुनिया में रहते हुए अलग दुनिया के निवासी हैं। अपने बारे में उनकी यह राय सही है और मेरी भी यही राय बनी है कि वे अपने अलग द्वीप में रहते हैं। एक शब्द में कहें तो वीतरागी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इसीलिए उनका हाल-चाल जानना भी कई बार मुश्किल हो जाता है। काफ़्का की चर्चा से याद आयी वो घटना जब वे फेफड़े के संक्रमण से जूझ रहे थे। तब मुझे उनका हाल बता रहे थे, मित्र पंकज कौरव। मैं कभी पंकज को तो कभी फ़िरोज़ को फ़ोन लगाती। बहुत डरी रहती थी उन दिनों। एक बार बात कराई पंकज ने तो उनकी आवाज़ सुन कर बहुत रोना आया था। दुआ के लिए मेरे हाथ उठे रहते थे। जब तक वो ठीक होकर वे घर नहीं आए, मुझे कल नहीं पड़ा। हॉस्पिटल में संक्रमण से जूझते हुए वे मुझे जब भी याद आते हैं, सिहरा देते हैं। बाद में मैंने उनसे हॉस्पिटल के अनुभव पर एक कहानी के शिल्प में रहस्यमय संस्मरण लिखवाया। उसे पढ़ कर और सिहर उठे हम। मेरे संपादन में एक किताब आई है — वो क्या था (शिवना प्रकाशन) उसमें शामिल है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मेरा डर स्वाभाविक था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">काफ़्का भी फेफड़ों की बीमारी से जूझते रहे हैं। वे शर्मीले, घरघुस्सू, विनम्र और अच्छे थे। लेकिन उन्होंने जो किताबें लिखी, वे क्रूर, दर्द से भरी हुई, उन्होंने एक ऐसी दुनिया देखी जो अदृश्य दैत्यों से भरी हुई थी और जो असहाय मनुष्यों के खिलाफ लड़ते हैं और उन्हें नष्ट कर डालते हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">धीरेंद्र अस्थाना के दो उपन्यास मैंने पढ़े हैं और कई कहानियाँ पढ़ी हैं। जितनी पढ़ीं, सब याद है। ऐसा कम होता है कि किसी लेखक की सारी रचना स्मृति में बची रहे। न मैं उनके उपन्यास “ देश निकाला” (2009) के किरदारों को भूल पा रही हूँ न “गुजर क्यों नहीं जाता“ के मार्मिक कथानक को। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">देश निकाला के नायक गौतम सिन्हा भी अपने लेखक की तरह ही एकांत प्रेमी हैं और महानगर से दूर एक शांत इलाक़े में रिहायश बनाता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इस उपन्यास में गोवा अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म फ़ेस्टिवल का ज़िक्र आता है जहां नायक कोरियन फ़िल्म देख कर बाहर निकलता है और एक बार में जाकर बैठ जाता है। मुझे याद है, उस बरस हमलोग गोवा में फ़िल्म समारोह साथ कवर कर रहे थे, अपने-अपने अख़बार और पत्रिका के लिए। मैं तो हर साल जाती थी, जब तक नौकरी में रही। जब से गोवा में शुरु हुआ तब से। धीरेंद्रजी पहली बार आए थे, उनके साथ मेरे मित्र प्रदीप तिवारी भी आए थे जिनकी बाद में बीमारी से मृत्यु हो गई। उस बरस हम तीनों साथ-साथ ही रिपोर्टिंग कर रहे थे। साथ ही फ़िल्में देखते, समारोह कैंपस के पीछे एक कोंकणी रेस्तराँ में लंच करते और शाम को मीडिया सेंटर में बैठ कर काम करते। मुझे रोज़ नहीं लिखना पड़ता था लेकिन धीरेंद्रजी अख़बार में रोज़ रिपोर्ट भेजते थे। उन दिनों वे अपने अख़बार में हर सप्ताह फ़िल्म समीक्षा लिखते थे। मुंबई में रहने के कारण वे हम दिल्ली वालों से पहले फ़िल्म देखते और लिखते थे। बेहिचक लिख रही हूँ कि उनकी समीक्षा पढ़ कर ही फ़िल्म देखने के लिए तैयार होती थी। उनकी इतनी तटस्थ, स्पष्ट और सुलझी हुई समीक्षा होती थी कि या तो दिलचस्पी जागती या एकदम ध्वस्त हो जाती थी। साहित्य और रिपोर्टिंग से परे यह अलग लेखन और रुप था उनका। जब गोवा में मिले तब वे उस वक्त पूरी तरह फ़िल्म समीक्षक नज़र आए जिसे अकेला फ़िल्म देखने में मज़ा नहीं आता था। वे हम सबके साथ ही रहते थे। हमारी एक टोली बन गई थी जो सुबह से शाम तक फ़िल्में देखती और समारोह के रात्रि भोज में शामिल होती। वे सुंदर दिन थे। हम दोनों को प्रदीप भी जोड़ता था। प्रदीप सिर्फ़ फ़िल्म देखने आए थे। हम तीनों उनके साथ बैठ कर देखी हुई फ़िल्म पर चर्चा करते। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“गुजर क्यों नहीं जाता“ उपन्यास में दिल्ली के दुख-दर्द की दास्तानें हैं जो कलेजा चीर कर निकलती हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यक़ीन नहीं आता कि तकलीफ़ें इस तरह भी आती हैं। दुख-दर्द की भट्ठी में तप कर बनते हैं धीरेंद्र अस्थाना जैसे लेखक जिनकी आँखें ताप की तायी हुई लगती हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मानो उन आँखों को कभी नींद आती न हो। बहादुर को भी नींद नहीं आती थी। धीरेंद्रजी की आँखें बाहर की तरफ़ निकलती दिखाई देती हैं … बेधक आंखें। उनके भाव पढ़ पाना आसान नहीं कि वे कितना बाहर देखती हैं कितनी भीतर। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">क्या पता था कि इन आँखों में एक दिन इन आँखों में मेरे लिए इतना स्नेह होगा कि वे मेरे बाप बन जाएँगे। उम्र का फ़ासला ज़्यादा नहीं होगा मगर बाप बन बैठे हैं और ललिता अम्मा ! </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मुंबई जाऊँ तो उनके घर पर जाना वैसे ही है जैसे मायके में। वैसे ही स्वागत और विदाई। वे सारी तस्वीरें गवाह हैं। अब वो मेरा भी एक घर है जहां बेधड़क कभी भी उठ कर ज़ाया जा सकता है। उनसे कुछ भी बातें की जा सकती हैं। दुनिया, समाज और साहित्य की सारी बातें, शिकायतें सब। वे धैर्यपूर्वक सुनते हैं और समझाते हैं —“मुग़ालते में मत रहा करो।“</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यही नहीं। हाल में मेरी एक कहानी पढ़ने के बाद उनका मैसेज आया —</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“उम्र भर यही मानते रहे कि गंदा आदमी अच्छा लेखक नहीं हो सकता।</div><div itemprop="articleBody">पता चला हम मूर्ख हैं।</div><div itemprop="articleBody">अगर व्यक्ति अच्छा नहीं है तो लेखक अच्छा हो ही नहीं सकता।</div><div itemprop="articleBody">ऐसा मैं मानता और यकीन करना चाहता हूं।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उनकी बातों से मुझे यक़ीन हो गया है कि इसीलिए वे अपने बनाए द्वीप पर रहते हैं। शायद इसीलिए वे बाहर कम निकलते हैं ताकि बौद्धिक मोहभंग से बचे रहे। जैसे काफ़्का ने ख़ुद को बचाने के लिए घरघुस्सू बना लिया था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><b>तुम रुकोगी नहीं वैशाली</b></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बहुत कम लोगों को पता होगा कि वे कविता भी लिखते हैं। अक्सर कहानीकार अपनी कविताएँ छुपा लेते हैं। उन्हें साइड में रखते हैं कि कहीं उनकी कहानियों पर कविताएँ हावी न हो जाए। उनकी कविताएँ भी उतनी ही दमदार होती हैं और वे जानते हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मेरे हाथ लगी है, उनकी कुछ कविताएँ। और मैं चकित हूँ कि उन्होंने इसे दबाया क्यों? न दबाया होता तो “निरुपमा दत्त ” (कुमार विकल की कविता) और “चेतना पारीक” (ज्ञानेन्द्रपति की प्रसिद्ध कविता में व्यक्त एक नाम) की तरह एक और रहस्यमयी स्त्री चर्चित होती काव्य जगत में - वैशाली ! काव्य -प्रेमी वैशाली को उचित स्थान देते। यकीनन ! </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वैशाली नाम पढ़ कर मैं चौंक गई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक पाठ और सीखा रहे हैं वो कि कहानीकारों को अपनी कविताएँ नहीं दबानी -छुपानी चाहिए। यह कविता के साथ अन्याय है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इस दौर में जब नयी पीढ़ी एक साथ कविता, कहानी, उपन्यास में सक्रिय है। उनकी पहचान गड्डमड्ड हो रही, फिर भी जोखिम उठा रहे। आख़िर रचना को दबाए क्यों या बीच राह में छोड़े क्यों ? </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">साथ चल सकती है तो चलनी चाहिए। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक कविता के कुछ अंश मुझे याद है जो 1988 में लिखी गई थी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">1</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अब जबकि </div><div itemprop="articleBody">उँगलियों से फिसल रहा है जीवन </div><div itemprop="articleBody">और शरीर </div><div itemprop="articleBody">शिथिल पड़ रहा है </div><div itemprop="articleBody">आओ …</div><div itemprop="articleBody">अपन प्रेम करें वैशाली ! </div><div itemprop="articleBody">एक अशक्त </div><div itemprop="articleBody">और थके हुए समय में </div><div itemprop="articleBody">छलरहित होता है प्रेम </div><div itemprop="articleBody">और </div><div itemprop="articleBody">ख़त्म होते जीवन को </div><div itemprop="articleBody">अथ में बदल देता है ! </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">2</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आँखों में जुनून </div><div itemprop="articleBody">और आँखों में हाहाकार लिए </div><div itemprop="articleBody">तुम एक गाँव से दूसरे गाँव </div><div itemprop="articleBody">और </div><div itemprop="articleBody">एक शहर से दूसरे शहर </div><div itemprop="articleBody">कब तक </div><div itemprop="articleBody">आती जाती रहोगी वैशाली ! </div><div itemprop="articleBody">शहर अगर कठिन है </div><div itemprop="articleBody">तो गाँव </div><div itemprop="articleBody">असंभव </div><div itemprop="articleBody">असंभव रास्तों पर चलकर </div><div itemprop="articleBody">तुम जीवन को </div><div itemprop="articleBody">कठिन क्यों कर रही हो वैशाली ! </div><div itemprop="articleBody">जरा-सा रुको </div><div itemprop="articleBody">वैशाली </div><div itemprop="articleBody">इस थका देने वाले सफ़र में </div><div itemprop="articleBody">कोई तो होगा </div><div itemprop="articleBody">जो तुमसे </div><div itemprop="articleBody">अपना अर्थ जानना चाहे </div><div itemprop="articleBody">तुम्हारे होने को महसूस करता हुआ </div><div itemprop="articleBody">रुकोगी नहीं वैशाली ! </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><b>दंत-कथाओं के नायक</b></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वे एक साथ सहज और दुरुह दोनों हैं। अपने भीतर रहते हुए भी उन्हें बाहर सबका ख़्याल रहता है। सहजता इतनी कि उन्हें पता चले कि किसी गलत व्यक्ति को अनजाने में सपोर्ट कर दिया है तो तुरंत पीछे हट कर अपनी अनभिज्ञता स्वीकार लेते हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उनमें बड़े लेखक वाला महानता बोध अब तक नहीं आया जबकि उनके बाद की पीढ़ी में कई सितारे घोषित कर चुके ख़ुद को। सहजता से सबसे मिलना, सबके बुलावे यानी व्यक्तिगत आग्रह पर जाना। सबको पढ़ना और यथासंभव लिखना। कौन वरिष्ठ करते हैं? किसे वक्त है या मिज़ाज है कि परवर्ती पीढ़ी को पढ़े? </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ऐसे में कुछ ही वरिष्ठ नज़र आते हैं जो नियमित पढ़ रहे हैं और टिप्पणी कर रहे। उन्हें जैसी किताब लगती है, कहानी जैसी लगती है, वो बेहिचक लिखते हैं। कई बार खुल कर आलोचना कर देते हैं, बिना इसकी परवाह किए कि सामने वाला कितना क़रीब या दूर है। इस मामले में वे संबंध नहीं निभाते, वे रचना के साथ संबंध देखते हैं। कई किताबों पर उन्हें तल्ख़ होते देखा है, कई कहानियों पर फ़िदा होकर लिखते देखा है। उनका यह साहस अनूठा है। न बिगाड़ का डर न दबाव की फ़िक्र। जैसी लगेगी, वैसी लिखेंगे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ख़ुद कम लिखते हैं और जब लिखते हैं तो कई दिन तक साहित्य संसार हिला रहता है। उनका विरोधी भी दबी ज़ुबान में कहता है- “कहानी कैसे लिखी जाती है, इनसे क्यों नहीं सीखते ?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">तब मुझे मनोज रुपड़ा के एक इंटरव्यू का वो हिस्सा याद आता है जिसमें वे अपने कथा जीवन पर धीरेंद्र अस्थाना के प्रभाव को खुल कर स्वीकारते हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैंने कई आलोचकों और कथाकारों में उनकी कहानियों को लेकर प्रशंसा भाव देखा है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं तो उनके स्वभाव और कथा के जादू में बहुत पहले से हूँ लेकिन उसके बहुत पहले से उनकी पत्रकारिता पर रीझी हुई हूँ। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वे न सिर्फ़ अपने लेखन के चकित करते हैं बल्कि उन दंत कथाओं से भी हमें रिझाते हैं जो हमने टुकड़ों में सुनी है। कुछ उनके चाहने वालों से तो कुछ ख़ुद उनसे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दंत कथाओं में वे एक नायक की तरह नज़र आते हैं जिसके लिए एक पहाड़ी लड़की सबकुछ छोड़ कर उससे प्रेम कर बैठती है और उसकी जीवन संगिनी बन जाती है। जो आज तक निर्वाह करती है और यह लड़की उनकी कहानियों, उपन्यासों में भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होती है। यही उनके जीवन और कथा की नायिका है, स्त्री सशक्तिकरण का प्रतीक और प्रेम में डूबी हुई, नायक के जीवन को सहेजती, सँभालती हुई। उसके क़िस्सों का गवाह और भागीदार भी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सही समझे … यही अपनी चुलबुली, मस्त मौला, हरदिल अज़ीज़ ललिता जी। यानी मेरी ललिताम्मा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अपना बनाना और नेह लुटाना भी एक कला होती तो नि:संदेह ललिता जी उसकी मास्टर होती। अन्यथा अपनी धुन में रहने वाले, अपने भीतर रमने वाले अपने जैसा एक लेखक को संभालना, झेलना आसान नहीं होता।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">क्योंकि वे जितने दुरुह हैं उतने ही सहज भी। ऐसे में सामंजस्य आसान भी है, नहीं भी है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जब भी स्त्री-पुरुष संबंधों, उनकी जटिलताओं और दांपत्य के बिखराव पर बात करते हैं हम तो वे हैरत से भर कर कहते हैं -– “यार, कैसे लोग इतने शत्रु हो जाते हैं, एक दूसरे के। मैं और ललिता तो आज तक उसी भाव में जीते हैं। तमाम बहसों और मतभेदों के बावजूद हमारा प्रेम अब भी वैसा ही है, पता नहीं लोग कैसे हैं जो अपने दांपत्य को सँभाल नहीं पाते।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उन्हें हैरानी यह भी होती है कि पुरुष अब भी नहीं बदले, जबकि स्त्रियाँ बहुत बदल चुकी हैं। जहां भी संबंधों में गैरबराबरी का भाव होगा, वहाँ दुश्वारियाँ और बिखराव पैदा होंगे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ललिता जी शुरु से साहसी महिला रही हैं और इन्होंने उस साहस का सम्मान किया। वे बदले हुए पुरुष थे, जैसा किसी शिक्षित, जागरुक स्त्री के लिए काम्य पुरुष होता है। ज़ाहिर है, इनके संबंधों में टिपिकल पति पत्नी वाली जड़ता कभी न आएगी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उन्होंने एक क़िस्सा सुनाया था — सुनिए — </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक वाकया दरियागंज में गोलचा सिनेमाघर के पास हुआ। हम रात छह से नौ का शो देखकर निकले थे। ललिता को वहीं इंतजार करने को बोल मैं कुछ पीछे सिगरेट लेने चला गया। लौटा तो ललिता वहां नहीं थी, मैं घबरा गया। बदहवास मैं दौड़ता हुआ पहले आगे गया फिर पीछे आया। वह मोबाइल फोन तो दूर लैंडलाइन फोन का भी आम और सहज जमाना नहीं था। मैं बुरी तरह घबराया हुआ था। सोचिए, हमारी शादी को कुल पांच महीने हुए थे और अभी तक हम ठीक से सैटल भी नहीं हुए थे। हमारे पास न तो कोई बैंक अकाउंट था, न राशन कार्ड, न मैरिज सर्टिफिकेट और न ही कोई आई कार्ड। नवंबर की दिल्ली वाली सर्दियों में मैं पसीने पसीने था। तभी सड़क के उस पार, राजकमल प्रकाशन के बंद शटर के सामने मुझे कुछ शोर और लोगों का हुजूम नज़र आया। मैं सड़क पार कर अपने दफ्तर के बाहर पहुंचा तो मेरे होश उड़ गए। सन् 1978 का समय था। स्कर्ट और टॉप पहनने वाली ललिता ने एक आदमी का कालर पकड़ा हुआ था और वो आदमी गिड़गिड़ा रहा था, बहन जी छोड़ दो, गलती हो गई। भीड़ अपने काम में जुटी थी— आदमी पर लात, घूंसे, चांटे बरसा रही थी। मुझे देख ललिता गरजी, साला कह रहा था, चलो चलिए। चल, अब पुलिस चौकी चल। मामले को रफा-दफा कर हम आदमी को छोड़ गेस्ट हाउस पहुंचे तो मैंने राहत की सांस ली। आज भी ललिता को छेड़ना होता है तो मैं कहता हूं- “चलो, चलिए।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ऐसी बहादुर स्त्री का प्रेमी कोई शेरदिल ही होगा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मुझे यकीन हो चला है कि जिसे जीवन में जितना प्रेम मिलेगा, वो उतना ही औरों पर लुटाएगा। बस आपको उस प्रेम के लिए निस्वार्थ पात्रता अर्जित करनी पड़ती है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हम जैसे कितने मोहब्बत के मारो के वो मसीहा बने बैठे हैं। हम मुंबई जाते हैं तो कुछ देर सुस्ता लेते हैं उस छांव में। वैसे हम जैसों को उस घर में ये पता करना मुश्किल है कि ललिता जी और धीरेंद्रजी में से कौन हमें ज्यादा स्नेह करता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">चलो, चलते हैं वहां जहां घर छोटा और दिल समंदर है। </div><div><br /></div></div></div>
<div style="text-align: right;">
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br />
<br /></div>
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-60102273326180048852023-09-04T17:33:00.004+05:302023-09-04T17:33:42.909+05:30कहानी: खिड़की! विजयश्री तनवीर की भाषा और तकनीकी उम्दा हैं | Vijayshree Tanveer Hindi Kahani Khidki<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div><div itemprop="articleBody">बहुत अच्छी कहानी है खिड़की! विजयश्री तनवीर की भाषा और तकनीकी उम्दा हैं। ~ सं० <span><a name='more'></a></span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div></div><blockquote><div itemprop="articleBody">इस समय सुबोध मनचंदा पत्नी राधिका के साथ अपनी टैरेस पर भीग रहा था। मलमल का शफ़्फ़ाक़ सफ़ेद कुरता उसके बदन पर चिपका हुआ था। चालीस पार की राधिका मनचंदा उम्र के साथ निखर रही है। उसके अंग प्रत्यंग में पारा भरा है। उन्हें भीगते देखकर मेरा मन उम्र की ढलान पर ख़्वाहिशों की दुर्गम चढ़ाई चढ़ने लगा। मैं अपनी ज़िंदगी के पन्नों को बहुत पीछे तक पलटकर देखने लगी और याद करने लगी कि क्या मैं और शेखर कभी इत्तफ़ाकन भी इस तरह भीगे हैं? उन्हें बारिश अच्छी नहीं लगती या मेरी तरह उन्होंने भी जो चाहा वो कभी किया नहीं। अंतर्मुखी होना एक घाटे का सौदा है। </div></blockquote><p> </p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhESLHM-TKOxw3ZarH0oBvVbSNOT4rKf2T5N_6SftUEezNHbTO1Kt-xVA8EAgeRo4f7dptf_U2Wao3HsA3hxxZ0Oy40zewhr0ZowmHQDebAKmiCXzq9G9P-5kWKmYwd9LSXzeyYHVTdruQS7h6bzO4zFtZySFL6LFTlhf-vWswS9CVvgretEFfMUBgdZTiB/s903/Vijayshree%20Tanveer%20Hindi%20Kahani%20Khidki.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhESLHM-TKOxw3ZarH0oBvVbSNOT4rKf2T5N_6SftUEezNHbTO1Kt-xVA8EAgeRo4f7dptf_U2Wao3HsA3hxxZ0Oy40zewhr0ZowmHQDebAKmiCXzq9G9P-5kWKmYwd9LSXzeyYHVTdruQS7h6bzO4zFtZySFL6LFTlhf-vWswS9CVvgretEFfMUBgdZTiB/s16000/Vijayshree%20Tanveer%20Hindi%20Kahani%20Khidki.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Vijayshree Tanveer Hindi Kahani Khidki</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h1 itemprop="headline">
खिड़की</h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">
विजयश्री तनवीर</h2>
<div 11px="" font-size:=""><span style="font-size: 11px;">एम. ए .हिंदी व समाजशास्त्र / मास कम्युनिकेशन (जामिया) / कुछ समय अमर उजाला में पत्रकारिता से जुड़ी रही। / प्रकाशित किताबें—तपती रेत पर (कविता संग्रह), अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार (कहानी संग्रह) / सिस्टर लिसा की रान पर रुकी हुई रात (कहानी संग्रह) / हंस, तद्भव, आजकल, वागर्थ, पाखी, जैसी लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, आलेख प्रकाशित।/ कहानी 'गांठ' हंस कथा सम्मान से सम्मानित। </span></div>
<br />
<div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">बारिशों के दिन की आर्द्र हवा जब मुझे छूकर गुज़रती है तब धूमिल-सा कुछ याद आता है। मैं उस धुंधलके को साफ़ करने के लिए अपने मन को यादों के अन्धे कुएँ में उतार देती हूँ मगर उस धुंधलेपन से निस्तार नहीं मिलता। इस समय मैं खिड़की पर खड़ी पूरी कोशिशों से उस धुंधलके को पौंछने में मशगूल थी। शून्य के तश्त पर घुमड़ते बादल किसी भी समय बरस पड़ने की चेतावनी दे रहे हैं। हवा के झोंको में रूमान भरी नरमाई थी इसी से माहौल में एक ख़ुशगवार ठंडक बनी हुई थी। मैंने काँच वाली खिड़की के दोनों पल्ले पूरे खोल दिए और कुछ इस तरह ख़ुद को हवाओं के हवाले कर दिया कि खुराफ़ाती झोंके मुझसे छेड़छाड़ करने लगे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बहुत देर की चुप्पी के बाद निचले कमरे से अंतरा की आवाज़ें आने लगी थीं। साथ पढ़ने वाली पूर्वा उसे लिवाने आ गयी होगी। उसकी आंखें बिल्लौरी हैं। मैं जब भी उसे देखती हूँ तो सोचने लगती हूँ कि वो आंखें अंधेरे में बिल्ली की शैतानी आंखों के मानिंद चमकती होंगी। अपनी आंखों के उलट वो शर्मीली बिहारी लड़की बोलने के क़ायदे की वजह से मुझे अच्छी लगती है। मगर वो बहुत कम और संभलकर बोलती है। उसके आचरण में संजीदगी है। अंतरा कभी भी कहीं भी कुछ भी तपाक से कह देती है। कल रात डिनर के वक़्त उसने शेखर से कहा था </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"पापा यू आर गैटिंग फ़ैट डे बाई डे...माय कैमेस्ट्री सर इज़ फ़ोर्टी क्रॉस्ड बट डैडली अमेज़िंग।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैंने देखा था कहते हुए उसकी आँखों में अजीब-सी दर्प भरी चमक थी। वो आगे भी कुछ कहती मगर मेरी आँखें देखकर शांत हो गयी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पूर्वा के लिए इस उम्र में घर की आत्मीयता और सुरक्षा से दूर रहना किसी चुनौती से कम न होगा। अंतरा के मुकाबले पूर्वा बहुत जिम्मेदार और सयानी लगती है। अंतरा अपने रोज़ के छोटे बड़े कामों के लिए अब भी मेरा मुँह ताकती है। स्कूल का आख़िरी साल है। फिर उसे भी किसी अजनबी शहर की निर्मम भीड़ में निकलना होगा। उसे पूर्वा की तरह होना चाहिए। आत्मनिर्भर और सलीक़ामंद। मुझे यक़ीन था कि आज भी उसने अपना गीला तौलिया रस्सी पर पसारने के बजाय कमरे में कुर्सी की पुश्त पर फैला दिया होगा। उतारे हुए कपड़े गुसलखाने में या बिस्तर पर उलटे पड़े होंगे। रोज़ की तरह धोने के समय मुझे ही सीधे करने होंगे। रात की ओढ़ी चादर पलंग से लटककर फ़र्श को चूम रही होगी। हो सकता है कई बार टोकने के बाद भी कंघी में बालों का गुच्छा फंसा होगा। मैं सीढ़ियां उतरने की सोच रही थी कि अंतरा ने थोड़ी ऊँची आवाज़ में कहा</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मम्माssss कैमेस्ट्री सर एक्स्ट्रा क्लास लेंगे ...आने में देर होगी।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैंने कहा "छतरी लेती जाना। बारिश का कुछ ठीक नहीं।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं कुछ और बातें कहना चाहती थी यह कि वापसी में पोस्ट-ऑफिस वाली सड़क से मत लौटना। शाम पड़े ही सुनसान हो जाता है ...बारिश हो तो रिक्शा ले लेना। मगर नीचे से कोई आहट न पाकर चुप्पी लगा गयी। वैसे भी कहने न कहने के कोई अर्थ नहीं। अंतरा के लिए ये रोज़ की परिचित हिदायतें हैं। शेखर कहते हैं मैं क्यों उसे बड़ा नहीं होने देती। क्यों ये चिंताओं का ज़ख़ीरा उठाए फिरती हूँ। वो नए दौर की लड़की है। मैं पूर्वा को देखकर भी क्यों नहीं समझती। क्या उसकी माँ किसी और मिट्टी की बनी है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैंने पूरे घर पर एक उचटती हुई निगाह डाली। तमाम बिखरी हुई चीज़े मेरे इंतज़ार में थीं। मगर मेरी पूरी देह में अलसपन भरा था। ज़ुकाम से लस्त आंखें भारी हो रही थीं। रिचार्ज होने की गरज़ से मैं तेज़ अदरक और चटख मीठे वाली चाय प्याले में ऊपर तक भरकर दोबारा खिड़की पर आ खड़ी हुई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पता नहीं खिड़की पर यूँ खड़े रहना मुझे कब से अच्छा लगता है। शायद तब मैं पाँच छह बरस की थी। ननिहाल में तिमंजिले पर कई खिड़कियों वाला एक कमरा था। जिसमें सामने की ओर था लकड़ी की शहतीरों पर टिका जालीदार बारजा। बारजे का फ़र्श सुर्ख़ था। उसके ठीक बीच में आठ पत्तियों वाला सफ़ेद फूल था। मैं उस सुर्ख़ फ़र्श पर खेलना चाहती थी। लेकिन खस्ताहाल हो चुके बारजे पर खड़ा होने की खास मनाही थी। उन दिनों माँ पेट से थी। वो खिड़की पर मेरा पुराना स्वेटर उधेड़कर ऊन का गोला बनाते हुए जाने क्या ताकती थी और मैं उनकी टांगों से चिपटी यह देखती थी कि माँ यूँ खोई-खोई-सी क्या ताकती है। पटसन के खरहरे खटोले पर पड़ी नानी पत्थर हो चुकी माँ को अपनी कर्बज़दा आंखों से देखकर मुर्दा आवाज़ में किसी को कोसने भेजा करती थी "उसकी बाट मत देख लाड़ो ...वो डंकिनी उसे नई छोड़ेगी।" नानी की वो मुर्दा आवाज़ अब भी मेरे चारों तरफ़ नक़्श बनाती गूंजती है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बारिश तेज़ हो गयी थी। फुहारे खिड़की के कांच से टकराकर मुझे भिगोने लगी थीं। मैंने खिड़की को आधा भिड़ा दिया। पड़पड़ाता पानी कांच पर तेज़ी से फिसलने लगा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मेरे कमरे की यह खिड़की दसियों साल से खाली पड़े एक प्लॉट में खुलती है। तक़रीबन चार सौ गज़ विवादित ज़मीन का यह टुकड़ा चौमासों में एक सब्ज़ बग़ीचा बन जाता है। इस सब्ज़े में गुलमोहर और अमलतास के दो पेड़ एक दूसरे के इतने क़रीब खड़े हैं कि आपस में गुँथी उनकी शाखें किसी प्रेमी जोड़े की तरह आलिंगन करती हुई-सी लगती हैं। उन पर जड़े लाल-पीले फूलों के गुच्छों को देखकर कई बार यह भेद करना मुश्किल होता है कि कौन से फूल किस पेड़ की मिल्कियत हैं। बची हुई बाक़ी जगह पर गुलाबी गुलों वाले बेहया के झाड़ों ने अपने पाँव पसार दिए हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ये खाली प्लॉट मेरा साल भर का कैलेंडर है। जहां मैं सारे मौसमों को आते-जाते देखती हूँ। खिड़की पर खड़े होने का मेरा कोई ठीक वक़्त नहीं। वो दिसंबर की आधी रात भी हो सकती है और जून की टीक दोपहरी भी। यह खिड़की और खाली प्लॉट उम्र के इस सबसे उबाऊ दौर के मेरे साथी है। मैं अक्सर दुआ करती हूँ कि तनाज़े वाली इस ज़मीन का फ़ैसला कभी न हो। और यह खिड़की हमेशा यूँ ही खुली रहे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इस खुशनुमा सब्ज़े के पार डेड-एन्ड पर मेरे सपनों का घर है। सफ़ेद इटालियन संगमरमर से जड़ा 'मनचंदा हाउस'। जिसकी खिड़की ठीक मेरी खिड़की की सीध में प्लॉट के दूसरे छोर पर खुलती है। कभी-कभी मुझे अपने आप पर संदेह होता है कि मेरी ज्यादा दिलचस्पी खाली प्लॉट में है या इस खिड़की में ! वो खिड़की प्रायः खुली रहती है। बस कभी कभार जब शाम के सूरज की रोशनी नारंगी होने लगती है तब उस पर एक झीना परदा होता है। मैं अक्सर उस खिड़की में आलिंगनबद्ध होते ...खिलखिलाते ...चुहल करते दुनिया के सबसे खूबसूरत चालीस पार के जोड़े को झाँकती हूँ। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मनचंदा हाउस की ऊपरी मंज़िल पर कई खिड़कियों वाला और सामने की ओर छज्जे वाला एक कमरा है जो मुझे वक़्त बेवक़्त ननिहाल की याद दिलाता है। सड़क की ओर खुलने वाले इस छज्जे पर गमले तरतीब से एक कतार में लगे हैं। लचकदार बेलों ने छज्जे को ढांप रखा है। स्टेनलेस स्टील की दमकती रेलिंग वाली घुमावदार सीढ़ियां इस कमरे को जाती हैं। उन्हीं सीढ़ियों पर बैठकर मनचंदा जाड़ों में नरम धूप सेंकता हुआ अख़बार पढ़ता है। और आर पार दिखते प्याले में राधिका ग्रीन टी के घूँट भरती है। बिल्लौरी आंखों वाली पूर्वा इसी मनचंदा हाउस में किराएदार है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इस समय सुबोध मनचंदा पत्नी राधिका के साथ अपनी टैरेस पर भीग रहा था। मलमल का शफ़्फ़ाक़ सफ़ेद कुरता उसके बदन पर चिपका हुआ था। चालीस पार की राधिका मनचंदा उम्र के साथ निखर रही है। उसके अंग प्रत्यंग में पारा भरा है। उन्हें भीगते देखकर मेरा मन उम्र की ढलान पर ख़्वाहिशों की दुर्गम चढ़ाई चढ़ने लगा। मैं अपनी ज़िंदगी के पन्नों को बहुत पीछे तक पलटकर देखने लगी और याद करने लगी कि क्या मैं और शेखर कभी इत्तफ़ाकन भी इस तरह भीगे हैं? उन्हें बारिश अच्छी नहीं लगती या मेरी तरह उन्होंने भी जो चाहा वो कभी किया नहीं। अंतर्मुखी होना एक घाटे का सौदा है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">भीगने के बारे में सोचते ही मैं एक दूसरी चिंता में घिर गई। संक्रमण वाले इस मौसम में गुंजन भीग गया होगा। कल से लगातार छींक रहा था। फिर भी सवेरे ही खेलने निकल गया। मैं हिम्मत बटोरकर काम निबटाने को सीढ़ियां उतरने लगी कि कॉल-बैल बज उठी। गुंजन ही था। बैल लगातार बज रही थी। उसे ज़रा भी सब्र नहीं। जब तक दरवाज़ा न खुल जाए वो बटन से हाथ नहीं उठाता। वो पूरा भीग गया था। अंदर दाखिल होते ही खिन्नता से फ़र्श पर अपना बल्ला पटककर वो बड़बड़ाया "डैम रेन... सारा खेल बिगाड़ दिया।" दिन भर धूप ताप में रहकर उसका गोरा रंग ताम्बई हो गया है। क्रिकेट किट के भीतर उसके ग्लव्स और पैड्स भीग गए थे। उसने पंखे के तले फ़र्श पर उन्हें फैलाते हुए मलाल से कहा "आज हम जीत जाते मगर ये मनहूस बारिश ..." मायूसी की एक गहरी छाया उसके चेहरे पर पड़ी और पल भर में उतर गई। उसके जूते और लोअर के पाँयचे कीचड़ में सने थे। वो तौलिया लेकर बाथरूम में घुस गया। मैं उसके कमरे की बिखरी चीज़ों को सँवारने लगी। वो अच्छा खेलता है और सिर्फ़ खेलने के लिए नहीं खेलता। उसे यक़ीन है वो एक दिन अच्छा बल्लेबाज़ बनेगा। उसके कमरे की दीवार पर उसकी पसंद के खिलाड़ियों का कोलाज है। वो दिन भर खेल सकता है मगर किताबें उसे थोड़ी देर में थका देती हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गुंजन के पलंग के नीचे कप के तले में दूध जम गया था। जुराबें जूतों में ठुसी थीं उनसे बास उठ रही थी। गुंजन को इससे फर्क़ नहीं पड़ता। मैं न देखूँ तो वो महीनों एक जोड़ा जुराबें पहनता रहे। मैं स्टडी टेबल पर रखी उसकी स्क्रैप बुक को पलटने लगी। उसमें उसके बचपन की तस्वीरें थीं.. क्रिकेट अकादमी से जीते हुए खेलों के ब्यौरे थे ...उसके प्रिय खिलाड़ी थे और मैं यह देखकर चौंक गयी कि एक पूरे पन्ने पर रूसी मॉडल नतालिया वोदियानोव की उत्तेजक तस्वीर थी। मैंने स्क्रैप बुक को वैसे ही रख दिया जैसे वो रखी थी। मैं नहीं चाहती थी कि गुंजन यह बात जान ले कि मैंने उसके बारे में कुछ छिपी हुई बात जान ली है। वो नहाते हुए बाथरूम से कोई अंग्रेज़ी गाना गुनगुना रहा था। मेरा मन अजीब हो रहा था। क्या गुंजन बड़ा हो गया ! मुझे याद आया एक रात मेरे अचानक आ जाने पर वो झेंप गया था और घबराहट में मोबाइल को तकिए के नीचे रखकर कुछ भी ऊट-पटांग बोलने लगा था। मैं बेचैन होने लगी। क्या उस वक़्त गुंजन कोई गेम खेल रहा था या कुछ और...</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आजकल उसे सीना चौड़ा करने वाली स्प्रिंग्स और डम्बलों की आज़माइश की ख़ब्त चढ़ी है। वो ख़ुद को देर तक आईने में देखता है। यही वो उम्र है जब लड़के लड़कियों पर नज़रें गड़ाने लगते हैं और लड़कियां यह ताड़ने लगती हैं कि कौन उन पर नज़रें गड़ाए है। मेरे अंदर एक हूक-सी उठी। अभी उसे चूमते, पुचकारते, कलेजे से लगाते जी नहीं भरा और वो बस छह ही महीने में बांस की तरह बढ़ गया। मुझे घुटनों पर रेंगता, हुंकारे भरता गुंजन याद आने लगा और याद आने लगीं माथे पर झालर वाली उसकी ऊनी टोपी और नन्ही जुराबें। उसी में तो मेरे जीवन का सारा राग और संगीत बसा है। मेरा मन उसे छाती से लगाने को मचलने लगा था। वो मुझसे चार बालिश्त ऊँचा है। उसके भरे-भरे गुलाबी होंठों के ऊपर महीन बालों की हलकी रेखा दिखने लगी है। उसकी आवाज़ में अचानक ही भारीपन उतर आया है। मुझे लगा बच्चों को कभी बड़ा नहीं होना चाहिए। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गुंजन कब नहाकर आया मुझे पता ही नहीं चला। पता चला जब रसोई से कटोरदान खखोड़ने की आवाज़ आने लगी। वो पूछ रहा था, </div><div itemprop="articleBody">“बहुत भूख लगी है, क्या बना है? "</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">फिर कढ़ाही में झाँककर बुरा-सा मुँह बनाते हुए बोला,</div><div itemprop="articleBody">"मैं टिंडा-विन्डा नहीं खाउंगा।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैंने कहा "कल तेरी पसंद का बना दूंगी।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वो रूखी डबलरोटी चबाने लगा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"तो आज भूखा रहूँ? " </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मेरे अंदर ममता उमड़ रही थी। मैं उसके लिए सैंडविच बनाने में जुट गई तो वो लाड़ से अपना भार मेरे कंधों पर डालकर झूल गया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"आप कितनी अच्छी हो। अगले हफ़्ते सीरीज है... हरियाणा जाना है।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मैं क्या बताऊँ पापा से पूछना।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"एक घन्टे का लेक्चर सुनने से अच्छा है न जाओ।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सहसा जैसे उसे कुछ याद आया "पता है अर्जुन भैया अंडर नाइंटीन खेलने वाले हैं... मिसेज़ मनचंदा ने फ़ेवर किया है।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"कौन अर्जुन ...पूर्वा का भाई! वो खेलता है? मेरी आँखों में एक दुबला-पतला लड़का साकार हो उठा। उसकी दोनों बाजुओं पर कुहनियों तक गोदने खुदे थे। मैंने कई बार उसे पूर्वा के साथ सब्ज़ी की ठेलियों पर और नज़दीक के किराने की दुकान पर देखा था। उसकी आँखें बिल्कुल पूर्वा जैसी थीं ...सैटेनिक ब्राउन। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मिसेज़ मनचंदा की इतनी पहुँच है! मुझे अचरज हुआ। गुंजन ने हुलसकर कहा "और क्या। वो चाहेंगी तो मुझे अंडर सिक्सटीन खिलवा देंगी...अर्जुन भैया के साथ जाकर मैं उनसे बात करुंगा”। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं उसकी सोच पर मुस्कराने लगी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"मैंने उसे आश्वस्त करने को कहा "ज़रूर करना मगर अपनी क़ाबिलियत पर भरोसा रखो। किसी के चाहने से तुम आखिर कब तक खेल पाओगे।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उसने इस बात पर कुछ न कहा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: center;">**********</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मुझे कोई ठीक अंदाज़ा न था कि क्या वक़्त हुआ था। मगर बाहर तेज़ी से पानी बरसने की आवाज़ अब भी आ रही थी। शायद डेढ़-दो के आस-पास का समय होगा। अचानक नींद उचट गयी थी। कोई बुरा सपना देखा था कि मेरी पलकों के कोर गीले थे। पंखा धीमी गति से अपनी धुरी पर घूम रहा था। मैंने उलट-पलटकर सोने की कोशिश की लेकिन नींद आंखों से कुछ इस तरह दूर थी जैसे मैं अपनी तमाम नींदे सो चुकी हूँ। शेखर जिस करवट सोए थे अभी तक उसी करवट थे। लगातार घर से बाहर रहना उन्हें थका देता है। मैं उनके खर्राटे गिनने लगी। एक ...चार... छः ...नौ ...और फिर ख़ुद ही अपनी बेहूदा हरकत पर शर्मिन्दा हो गयी। सोते वक्त गुंजन को बुख़ार था। मैं सोच रही थी एक बार फिर देख लूँ। सीढ़ियों के बाद पहला कमरा अंतरा का पड़ता है। वो पढ़ते-पढ़ते किताब पर सिर रखे औंधी सो गई थी। उसके सिर पर अपेक्षाओं का भारी बोझ है। मैंने किताब उठाकर किनारे रख दी। और बत्ती बुझा दी। अपने कमरे में गुंजन सिकुड़ा पड़ा था। सिरहाने उसका मोबाइल और इयरफ़ोन पड़े थे। मैंने पंखा धीमा करके उसे एक और चादर ओढ़ा दी। उसे नामालूम-सा बुख़ार था। फ़्लू का पहला दिन था। दो दिन और वो ऐसे ही बेहाल रहेगा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इस समय मुझे आराम मिलने की बस एक ही जगह थी। मैं बिना आहट किए खिड़की पर खड़ी हो गयी। मुझे हैरानी हुई कि प्लॉट के पार वाली खिड़की में रौशनी रंग बदल रही है। यानि रात के इस वक़्त मनचंदा का टीवी ऑन था। मुझे जाने क्यों अच्छा लगा कि मेरे साथ और कोई भी है जो जाग रहा है। मैं सोचने लगी कि राधिका मनचंदा इस समय किस अवस्था में होगी। मुझे इंतज़ार था कि थोड़ी देर में मनचंदा अपनी कमीज़ के बटन बंद करता हुआ अपनी खिड़की पर दिखाई देगा। वो खिड़की की दहलीज़ पर अपनी कुहनियां टिकाकर सिगरेट फूंकेगा और फिर उसके कमरे में अंधेरा पसर जाएगा। मैंने एकाएक महसूस किया कि मुझे हर वक़्त मनचंदा का इंतज़ार रहता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">प्लॉट के घटाटोप अंधेरे में पत्तों पर पड़-पड़ गिरती बारिश की आवाज़ भयावह लग रही थी। मुझे हौल होने लगा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मनचंदा के कमरे में रंगीन रौशनियां बुझ गयी थीं। अब सामने की खिड़की पर घुप्प अंधेरा था वो दोनों सो गए होंगे। उन्हें क्यों जागना चाहिए। इतनी रात गए जागने का कोई औचित्य न था। मगर एकाएक ही अंधेरे को तोड़ता हुआ आदमकद रेफ़्रिजरेटर का दरवाज़ा खुला और उसकी धीमी रौशनी में मैंने देखा सिर से पाँव तलक नंगा मनचंदा गट-गट पानी पी रहा है। मेरे अंदर अजीब सनसनाहट होने लगी। मेरे पैरों में चींटियां-सी रेंगने लगी कि मैं क्या अधर्म कर रही हूँ... मुझे क्या हो गया है। मैं आधी रात किसी मर्द के अंतरंग पलों को देखने का पाप कर रही हूँ। लेकिन मेरे पाँव फ़र्श पर मानो चिपक गए थे। मैं इंच भर भी नहीं हिली। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"सोती क्यों नहीं? "शेखर की आवाज़ से मेरा जिस्म सूखे पत्ते की तरह काँपने लगा। जैसे उन्होंने मुझे चोरी करते पकड़ लिया हो। मेरे मुँह से बोल न फूटा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वो टॉयलेट के निमित्त उठे थे। और फिर करवट बदलकर सोने लगे थे। इससे पेशतर कि मैं पलटती मेरे होश उड़ गए। मुझे और भी कुछ देखना बाक़ी था। मैंने देखा एक निर्वस्त्र जनाना साया मनचंदा से लिपट गया। वह राधिका मनचंदा नहीं थी। वह राधिका मनचंदा बिल्कुल भी नहीं थी। मैंने फ़्रिज की मद्धिम रोशनी में भी उसे पहचान लिया था। वह इस वक़्त बिल्कुल शर्मीली नहीं लग रही थी। और ...अंधेरे में उसकी आंखें नहीं चमकती थीं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं किसी तरह बिस्तर तक पहुँची। मुझे लगा कि शेखर को झिंझोड़कर जगा दूँ। और उनसे सब कह डालूं। मुझे ऐसी घुटन हो रही थी कि अगर कुछ देर और चुप रही तो मेरा दिल डूब जाएगा। मगर मेरी आवाज़ रुद्ध हो गयी थी। मुझे जान पड़ रहा था कि अंतरा पर कोई आसन्न खतरा मंडरा रहा है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">फ़ोर्टी क्रॉस्ड... डैडली अमेज़िंग...</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मेरे सामने अनदेखा-सा एक आदमी धीरे-धीरे एक बड़े मकड़े की शक़्ल अख़्तियार करने लगा। उसने अपनी आठों भुजाओं में अंतरा को जकड़ लिया था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अगली सुबह शीशे के सामने गुनगुनाकर सँवरती हुई अंतरा सहम गयी थी। मैंने कड़ी आवाज़ में उसे कहा "आज से एक्स्ट्रा क्लास में नहीं जाना।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यह अप्रत्याशित निर्देश था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"क्यों नहीं? "उसका चेहरे पर कई रंग आकर ठहर गए। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“स्कूल से सीधा घर आना।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ये बिना बात का तालिबानी फ़रमान किसलिए ...वैसे सीधे घर नहीं आएगा मम्मा थोड़ा मुड़ना पड़ता है। " </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अंतरा की बेफ़िक्री ने मुझे तसल्ली बख्श दी थी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">फिर भी मैं हफ़्तों एक आतंक के साए में रही। मैं आँखें बंद करती तो वो दृश्य मेरे अंदर मवाद की तरह बहने लगता।। कभी लगता वो मेरी उम्र का एक लम्हा था कभी लगता उस लम्हें की उम्र सौ साल है। मैंने रात को खिड़की पर खड़ा होना बंद कर दिया था। मैंने सोच रखा था कि किसी दिन मैं बरसात की उस नंगी रात का ज़िक्र राधिका मनचंदा से ज़रूर करूंगी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: center;">*******</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">चौमासे बीत गए थे। महीनों बाद मैं रात के वक़्त आज खिड़की पर खड़ी हुई थी। शेखर दो दिनों के लिए सूरत गए थे। चढ़ते चांद की रात थी। चाँदनी का एक टुकड़ा खिड़की के काँच पर रेंग रहा था। पतझड़ के बाद हवाओं में सिहरन उतरने लगी थी। प्लॉट में गुलमोहर और अमलतास के सुर्ख़ और पीले फूलों ने उनका संग छोड़ दिया था। सड़क पर पूरी तरह सन्नाटा था। बस स्ट्रीट लाइटों पर पतंगे मंडरा रहे थे। गश्त पर निकले चौकीदार की विशल और लाठी फटकारने की आवाज़ कानों को खरोंचती हुई निकल रही थी। चौकीदार के लाठी फटकारने पर मनचंदा के फाटक पर बंधा अमेरिकन एस्किमो भौंकने लगता और फिर अगली फटकार आने तक चुप्पी साध लेता। मनचंदा की खिड़की पर गाढ़ा अंधेरा था। वहां किसी के जागते रहने का कोई लक्षण नहीं था। मेरे मन में सवाल उठ कि क्या बत्ती बुझाने से पहले अब भी मनचंदा खिड़की पर आकर सिगरेट फूँकता होगा!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं अपनी सोचों की रौ में बह रही थी कि अंधेरे में डूबे मनचंदा के कमरे की बत्ती भक्क से जली और अगले ही पल बुझ गयी। मगर उस एक पल में मुझ पर सैकड़ों बिजलियां टूट पड़ी। मुझमें और कुछ देख पाने की सामर्थ्य बाक़ी नहीं थी। मैंने जो देखा था वो मेरे लिए अविश्वसनीय और अकल्पनीय था। मैंने देखा दो दुबली बाजुएं राधिका मनचंदा की नग्न छातियों के गिर्द लिपटी हुई हैं। मुझे उस दुबली बाहों वाले का चेहरा देखने की कोई तलब न थी। मेरा दिल डूब रहा था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं निष्प्राण कदमों से सीढ़ियां उतरती हुई गुंजन के कमरे में जा पहुँची। वो गहरी नींद में था। उसके होंठों पर बड़ी प्यारी मुस्कान थी जैसे कोई मीठा सपना देख रहा हो। मेरी आँखों से अविरल गिरते आँसू गुंजन की ओढ़ी हुई चादर में जज़्ब होने लगे। मुझे लगा वो नवजात शिशु बन जाए और मैं उसे फिर अपने गर्भ में छिपा लूँ। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दो दिनों के बाद शेखर, अंतरा और गुंजन ने यक़ीन न कर पाने वाली आंखों से देखा जब राजमिस्त्री ने फीते से नाप जोख करते हुए पूछा "एक रोशनदान की जगह छोड़ दूं।" मैंने गहरी सांस छोड़ी जो एक अर्से से रुकी हुई थी और बिना एक पल सोचे कहा "नहीं... एक सुराख़ भी नहीं।”</div></div><div style="text-align: right;">
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-10889003661593692842023-09-02T14:55:00.002+05:302023-09-02T14:55:24.575+05:30टॉल्स्टॉय की अन्ना केरेनिना | Anna Karenina of Leo Tolstoy<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>रवींद्र कालिया संपादित ‘नया ज्ञानोदय’ का प्रेम महाविशेषांक (नवंबर, 2009) के पुनर्प्रकाशन (जिसमें पहले ममता कालिया की कहानी निर्मोही आ चुकी है) में अब विजयमोहन सिंह का ‘अन्ना केरेनिना - टॉल्स्टॉय’ का पुनर्पाठ, गीताश्री की महत्वपूर्ण टिप्पणी के साथ पढ़ें। ~ सं० <span><a name='more'></a></span></div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgOsSR8GPJie7wl7X-sVg-IYNqGBiYBc_mZ6hk0_jiC9cF8SyqKgEoVVVMpDZA9tMqn4z5QF697kytd5caw_nTl_LJrbLSgvxNPSiYZhaCPVTvYxu_6TJJ2lr-12RLcubV2y5wXTLQMDDZUuzzE9Sg9VBO0R2luEXbGM6f14Z1g9E00Hb5-lM2-aAomLAGg/s903/Anna%20Karenina%20of%20Leo%20Tolstoy.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgOsSR8GPJie7wl7X-sVg-IYNqGBiYBc_mZ6hk0_jiC9cF8SyqKgEoVVVMpDZA9tMqn4z5QF697kytd5caw_nTl_LJrbLSgvxNPSiYZhaCPVTvYxu_6TJJ2lr-12RLcubV2y5wXTLQMDDZUuzzE9Sg9VBO0R2luEXbGM6f14Z1g9E00Hb5-lM2-aAomLAGg/s16000/Anna%20Karenina%20of%20Leo%20Tolstoy.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Anna Karenina of Leo Tolstoy</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h1 itemprop="headline"><b>अन्ना केरेनिना</b></h1><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><b>~ गीताश्री </b></div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">विश्व प्रसिद्ध स्त्री पात्र “अन्ना केरेनिना” के चरित्र को लेकर जितना असमंजस उसके लेखक लियो टॉल्स्टॉय को रहा होगा, उतना किसी भी युग में किसी सहृदय पाठक-आलोचक को शायद ही रहा है। चाहे देशकाल की दुहाई दी जाए और तथाकथित भद्र रुसी समाज की “फॉल्स नैतिकता” का हवाला देकर अन्ना के चरित्र को, उसकी मनोदशा को गढ़ा गया हो और उसे अंतिम परिणति तक पहुंचाया गया हो। उसे ऐसे गढ़ा गया कि अन्ना को मर जाना चाहिए। उसने जो राह पकड़ी, वैवाहिक मर्यादा का उल्लंघन किया तो उसकी सजा मौत से कम नहीं। बेवफाई को लेकर स्त्री-पुरुष के लिए अलग मानक गढ़ने वाले संसार में अन्ना के लिए कोई रास्ता कहां बचता है। उससे जीवित बचे रहने का अधिकार छिन जाता है। स्त्री पात्र का चरित्र इतना जटिल बना दिया जाता है कि वह विक्षिप्तता के आवेग में स्वयं ही मृत्यु का रास्ता चुन लेती है। अपनी मौत की दोषी वह खुद करार दी जाती है, समाज और परिवार को बरी रखा जाता है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgxdQFxkhWdAVG1DGjUMmi4yl9CPnoJQnQZdHitfUce327iCWnodRHs47DnD2LWjNdhuF3VLixa87obwXwpZoctdq5BZxeIgrRCUroQaAbh030XGC-OUg24GI5_1Bh1wEwIDlNl7b7cLmCzsa4klVPQFDIJKVRpTwj8pnKMg4JnDFufUi6eDRpgQLNbqEmt/s1077/%E0%A4%9F%E0%A5%89%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%89%E0%A4%AF-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A4%BE.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="730" data-original-width="1077" height="434" 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मित्र को लिखे पत्र में यह खुल कर स्वीकारा कि उन्हें अंत तक पता नहीं कि अन्ना का क्या हश्र होने जा रहा है। जब लेखक स्वयं अपने गढ़े गए चरित्रों को लेकर आश्वस्त नहीं होता तो उसे इसी तरह छोड़ देता है कि वह अपना अंत खुद चुन ले। ऐसा अंत जो लेखक के लिए आसान और पलायनवादी रास्ता हो और नैतिकतावादी समाज के लिए उचित।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यह आलेख गहराई से उन सवालों की पड़ताल करता है, टकराता है जो पाठकों के मन में उठता रहता है कि क्या एक अन्ना जैसी स्त्रियों के लिए मुक्ति का रास्ता सिर्फ मृत्यु है। आभिजात्य समाज की ऊब से भरी स्त्रियां क्या सिर्फ अपनी ऊब मिटाने के लिए विवाहेतर संबंधों में फंसती हैं। आभिजात्य वर्ग की विवाहित स्त्रियों पर खुश रहने का, सुखी दिखने का दबाव इतना ज्यादा क्यों होता है। निरंतर संशयग्रस्त अन्ना किसी निर्णय तक क्यों नहीं पहुंचती।</div><div itemprop="articleBody">इस आलेख में इन तमाम सवालों की सूक्ष्मता से पड़ताल की गई है और साथ ही ये आलेख कथित भद्रलोक का मुखौटा उतारते हुए, प्रेम की भयंकर त्रासद-कथा पर पुनर्विचार और पुनर्पाठ करने को उकसाता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><h1>विजयमोहन सिंह </h1><div itemprop="articleBody"><b>अन्ना केरेनिना </b></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पहले भी कहा जा चुका है कि अन्ना केरेनिना उपन्यास को चरित्र रचना और संरचना को लेकर टॉल्स्टॉय शुरू से ही गहरे असमंजस में थे। इसीलिए उसके प्रारूप में उन्होंने अनेक परिवर्तन किये जिनका जिक्र भी किया जा चुका है : संरचना सम्बन्धी अपनी उलझन को तो उन्होंने उसे क्रमशः जटिलतर बनाते हुए दूर कर दिया, किन्तु अन्ना केरेनिना के चरित्र को लेकर उनका असमंजस अन्त तक बना रहा। वे अपनी नायिका को लेकर अन्त तक आश्वस्त नहीं हो पाये। बाद में उन्होने अपने एक मित्र को लिखा भी कि मुझे अन्त तक पता नहीं था कि अन्ना केरेनिना का क्या हश्र होने जा रहा है। सबकुछ स्वतः और अपने आप होता गया। दरअसल टॉल्स्टॉय का रचनाकार उनके सभी निश्चयों को लिखने के क्रम में बदलता गया। यह पूरी ‘ प्रेम कहानी’ ही जैसे ‘डिक्टेटैड’ है मानो कोई ‘अदृश्य शक्ति’ उन्हें वहीं ले जाने के लिए प्रेरित कर रही थी जहां वह पहुंची। ‘ रचनात्मकता’ के इसी पक्ष पर विचार करते हुए ज्यां-पाल सार्त्र ने लिखा था कि किसी उपन्यास के चरित्र तब जीवन्त और सशक्त बनते हैं जब वे अपने लेखक को आंख बचाकर और कलम से फिसलकर अपना स्वरूप स्वयं निर्मित कर पाते हैं। अन्ना केरेनिना के साथ ठीक यही घटित होता है : वह स्वयं अपने निर्णयों के बारे में स्पष्ट नहीं है। सीधे तौर पर तो वह अपने पति से घृणा करती है और ब्रांस्की से प्रेम करती है। फिर अचानक एक क्षण विशेष में उसे लगता है कि उसका लक्ष्य प्रेम नहीं है, बल्कि स्वतन्त्रता है। अस्तित्ववादी शब्दावली में कहें तो वह प्रेम का नहीं, स्वतन्त्रता का ‘वरण’ करना चाहती है। बाद में समीक्षकों ने टॉल्स्टॉय की अनेक रचनाओं में अस्तित्ववाद के बीज तथा संकेत पाये हैं। उपन्यास में एक स्थल पर अन्ना केरेनिना यह निर्णय लेती है कि वह न तो अपने पति के साथ रहेगी और न अपने प्रेमी के साथ, बल्कि अपने आठ वर्षीय बेटे को साथ लेकर स्वतन्त्र रहेगी। लेकिन कहाँ और कैसे? यह ‘कहाँ’ और ‘कैसे ‘ का प्रश्न ही उसके निर्णय को ध्वस्त कर देता है। अतः ‘ स्वतन्त्रता’ के इस प्रश्न को यहीं स्थगित कर दिया जाता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘ऊब’ या ‘बोरडम’ के प्रश्न को अन्ना केरेनिना में भी उठाया गया है। एक समारोह में अन्ना की एक सहेली उससे कहती है, ‘तुम जीवन का आनन्द ले रही हो, तुम सुखी हो पर में हमेशा ऊबी रहती हूं।’ अन्ना आश्चर्य से कहती है, ‘तुम ऊबी रहती हो? तुम जिसे पूरे पीटर्सबर्ग की महिलाओं में सबसे जीवन्त और प्रसन्न माना जाता है?’ उसकी सहेली कहती है, ‘हमारे जैसी महिलाओं के लिए कुछ भी आनंददायक नहीं है। है तो केवल ऊब, ऊब और केवल ऊब। सबकुछ भयानक रूप से बोरिंग है।’ वह फिर अन्ना से पूछती है कि तुम ऊब से बचने के लिए क्या करती हो? तुम हमेशा उत्फुल्ल दिखती हो। तुम सुखी या दुखी हो सकती हो, लेकिन कभी ऊब नहीं सकती। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अन्ना केरेनिना के बारे में यह धारणा विडम्बनात्मक है, पर शायद सच है, वह ऊबी हुई नहीं है। पर दुखी है, बेहद दुखी। एक आन्तरिक यातना में जीती हुई। दुखी मनुष्य कभी ऊब नहीं सकता। ऊबने के लिए बहुत फुरसत चाहिए। दरअसल अन्ना केरेनिना एक बहुत मुश्किल किस्म की औरत है। कोई चाहे तो उसे ग्रन्थियों से भरा चरित्र कह सकता है। ब्रांस्की केवल उससे प्रेम ही नहीं करना चाहता, वह उससे विवाह करना चाहता है, उससे बच्चे पेंदा करना चाहता है। इस प्रेम के परिणाम स्वरूप एक बच्ची तो तभी पैदा हो जाती है, जब वह अपने पति के घर में है। अब ब्रांस्की चाहता है कि वह अपने पति से तलाक ले ले और उसके साथ रहे। किन्तु अन्ना को यह स्वीकार नहीं है। अपने पति से तलाक वह अन्त तक नहीं लेती। अन्ना का पति कैरेनिन इसके लिए तैयार है, वह इसके लिए एक नामी-गिरामी वकील से बात भी कर लेता है। पर अन्ना तैयार नहीं है। वह प्रेम के लिए विवाह से विद्रोह करना चाहती है। वह मन ही मन विवाह को बन्धन मानती है और एक मुक्त जीवन जीना चाहती है। एक विवाह से तलाक लेकर वह दूसरे विवाह के बन्धन में नहीं बंधना चाहती। वह विवाह को बन्धन ही नहीं गुलामी भी मानती है। ब्रांस्की से पैदा हुई बच्ची के बाद वह और बच्चे पैदा करने लायक भी नहीं रह गयी थी। उसके डॉक्टर ने उसे यह बताया था। पर इस रहस्य को वह अपने तक ही सीमित रखती है। शायद उसे भी वह मुक्ति मानती है। पर क्या वह कभी मुक्त हो पाती है? </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बकौल ग़ालिब, ‘मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाये क्यों?’ शायद वह इसी ‘मुक्ति’ के लिए बनी है। सम्भवतः यही टॉल्सटॉय का मैसेज भी है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अन्ना केरेनिना लगातार संशयग्रस्त रहती है। अपने प्रेम को लेकर भी वह आश्वस्त नहीं है। वह अपनी मित्र और भाई की पत्नी डली से ब्रांस्की के वारे में कहती है, ‘वह मेरा पति नहीं है : ही विल लव मी ऐज़ लांग लव लास्ट्स।’ यानी वह जानती है कि इस प्रेम को कभी-न-कभी खत्म होना ही है। यही प्रेम से मोहभंग है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">निरन्तर संशयग्रस्त रहने के कारण अन्ना केरेनिना कभी सुखी नहीं रह पाती। वह नींद के लिए अफीम का सेवन करती है। भारतीय शास्त्रों में कहा गया है कि संशयग्रस्त व्यक्ति का विनाश हो जाता है। अन्ना केरेनिना का ‘विनाश’ सुनिश्चित है। वह हमेशा क्षुब्ध तथा असन्तुष्ट रहती है। टॉल्सटॉय उसे सहानुभूति देकर भी पूरी तरह उसके पक्षधर नहीं हो पाये हैं। उनकी सामन्त वर्ग से घृणा यहाँ भी परोक्ष रूप से झलक ही जाती है क्योंकि यदि तटस्थ होकर अन्ना केरेनिना के स्वभाव का विश्लेषण करें तो लगता है कि वह एक संभ्रांत वर्ग को ऐसी बिगड़ैल युवती है जो ‘पैमपर्ड’ है। वह कभी सुखी और सन्तुष्ट हो ही नहीं सकती। वह चाहती है कि उसकी प्रत्येक इच्छा की पूर्ति हो। ऐसे व्यक्ति को नियति हमेशा अभिशप्त होती है। उसकी आत्महत्या ‘त्रासदी’ नहीं है, वह उस वर्ग के व्यक्ति के प्रेम की तार्किक परिणति है। यद्यपि सम्भवतः टॉल्सटॉय इस निहितार्थ के प्रति स्वयं ‘कांसस’ न रहे हों, किन्तु अन्ना के चरित्र विश्लेषण से यह छुपा हुआ निहितार्थ झलक ज़रूर जाता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">टॉल्सटॉय इस उपन्यास को एक प्रेम कहानी तक सीमित नहीं रखना चाहते थे। वे उसके प्रेम के माध्यम से अपने समय और उस वर्ग को चित्रित करना चाहते थे जिसको प्रतिनिधि अन्ना तो है ही, वे स्वयं भी थे और जिसकी कथा अन्ना की कथा के समानान्तर लेविन और किटी की उस कथा के रूप में पूरे उपन्यास में चलती रहती है जो अन्ना की प्रेम कहानी की एंटी थिसिस है। उपन्यास का अन्त भी लेविन और किटी की कथा से ही होता है। समीक्षकों के अनुसार लेविन के माध्यम से टॉल्सटॉय स्वयं अपनी कहानी कहते हूँ— अपने प्रेम, परिवार और जीवन सम्बन्धी दृष्टिकोण की कहानी। किन्तु यहाँ हमारा मकसद प्रेम के इस दूसरे पक्ष का विश्लेषण नहीं है। वह एक पृथक विश्लेषण की मांग करता है। अतः वह फिर कभी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उपन्यास के दूसरे भाग में हम अन्ना को ‘नयी ज़िंदगी’ के विश्लेषण से उस ‘जन्नत की हक़ीक़त’ को समझ सकते है जो वस्तुतः अन्ना के ‘प्रेम को हक़ीक़त’ है। तीन महीने तक अन्ना और ब्रांस्की यूरोप में घूमते रहते है। इसे उनका ‘हनीमून ट्रिप’ भी कह सकते हैं। वे वहाँ के महँगे होटलों के शानदार कमरों में ठहरते हूँ और वहां के सम्भ्रान्त वर्ग के लोगों को दावतें देते है जिनमें लजीज व्यंजन और महंगी शराब परोसी जाती है। पूरे शहर के लोग जान जाते है कि वहां रूस का कोई बड़ा जागीरदार ठहरा हुआ है। इटली में ब्रांस्की वहाँ के महान चित्रकारों के चित्र से प्रेरित होकर स्वयं पेंटिंग करना शुरू कर देता है जो उसका पुराना शौक है। वह वहां के समकालीन चित्रकारों से भी मिलता है और उनसे चित्रकला को विशेषताओं के बारे में लम्बी-लम्बी बहसें करता है। स्पष्टतः अन्ना को दावतें तथा संगीत समारोह तो पसन्द आते हैं किन्तु चित्रकला में उसको कोई दिलचस्पी नहीं है। वह उनकी लम्बी बहसों से बोर हो जाती है। फिर भी उसके सामने एक नई जगमगाती हुई दुनिया है जो रूस से अधिक सम्पन्न, सुरुचिपूर्ण और विकसित है। अपनी ‘मुक्ति’ के इस पहले चरण में अन्ना एक अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव करती है। वह भूल जाती है कि अपने पति से विलग होकर उसने उसे कितना बड़ा दुख दिया है। ‘‘उनका दाम्पत्य दो डूब रहे व्यक्तियों की तरह था जिनमें से एक अपने को छुड़ाकर बच जाता है और दूसरा डूब जाता है।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">किन्तु एक दुख उसे इस ‘ सुख के स्वर्ग’ में भी सालता रहता है और वह है अपने बेटे की याद जिसे वह छोड़कर चली आई है। उसको लेकर अन्ना के मन में अपराध बोध है। बह सोचती है कि मुझे सुखी होने का कोई अधिकार नहीं है। वह दुखी होना चाहती है पर नहीं हो पाती। इस नयी ज़िंदगी और नयी दुनिया के सुख से वह इतनी आप्लावित है कि दुखी होने का अभिनय भी नहीं कर पाती। ब्रांस्की को वह जितना अधिक जानती जाती है, उतना ही अपने प्रति उसके प्यार से अभिभूत होती जाती है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लेकिन दूसरी और ब्रांस्की यद्यपि वह सबकुछ प्राप्त कर चुका है जो प्राप्त करना चाहता था, उतनी प्रसन्नता और सुख का अनुभव नहीं कर पाता जितना उसे करना चाहिए था। उसके जीवन में एक मूलभूत रिक्तता बनी रहती है जिसे वह समझ नहीं पाता। सुख के इस अम्बार में ‘कहीं रेत का कोई कण रह गया है जो किरकिराता रहता है’ उसे अपने मुक्त और कुँवारे जीवन की याद आती रहती है जब वह देर रात तक मौज मस्ती में डूबा रहता था बिना किसी जिम्मेदारी के और बिना किसी बाध्यता के। अब उसकी कोई निजी मित्र मंडली नहीं रही। अब उसको दिनचर्या के केन्द्र में बस अन्ना ही अन्ना है। अतः वह जल्दी ही कोई ‘ डाईवर्जन’ ढूंढने लगा। अपने पुराने शौक पेंटिंग को ओर तो वह लौट ही चुका था, अब आसपास की राजनीति में भी दिलचस्पी लेने गया। बाक़ी बचे समय में वह किताबें पढ़ता रहता। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यूरोप से लौटकर वे पीटर्सबर्ग जाते है। वहाँ भी वे एक शानदार होटल में ठहरते है। लेकिन अन्ना का असली मकसद वहाँ अपने बेटे से मिलना था। केरेनिन इसको अनुमति नहीं देता। अतः अन्ना उसको अनुपस्थित में छुपकर बेटे से मिलती है और उससे लिपटकर कहती है, “तुम अपने पिता को प्यार करो। वे एक भले व्यक्ति है। में अभागन हूं और मैंने एक बड़ी गलती की है। जब तुम बड़े हो जाओगे तब तुम खुद यह समझ सकोगे।“ तभी अचानक केरेनिन आ जाता है। अन्ना उसे देखते ही तेजी से बाहर निकलती है। केरेनिन बिना कुछ कहे सिर झुका कर उसका अभिवादन करता है और अन्दर चला जाता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बेटे से मिलने के बाद जब वह वापस लौटती है तो महसूस करती है कि इस मुलाक़ात ने उसे बुरी तरह झकझोर दिया है। उसे सबकुछ बेमानी लगने लगता है। इसके अलावा पीटर्सबर्ग के भद्र समाज में जिस तरह उसे अपमानित और लांछित होना पड़ता है, उससे वह बुरी तरह टूट जाती है। यद्यपि इस तथाकथित भद्र समाज के पुरुष और स्त्रियाँ सब नितान्त भ्रष्ट, एय्याश और पाखंडी हैं , पर उन्हें अन्ना का यह मुक्त जीवन स्वीकार्य नहीं है। स्वयं केरेनिन अब एक काउंटेस लिडिया इवानोवा की गिरफ़्त में है। इस काउंटेस के वारे में टॉल्सटॉय लिखते है ‘‘काउंटेस लिडिया इवानोवा का बहुत पहले से ही अपने पति से कोई प्रेम सम्बन्ध नहीं रह गया था, पर वह हमेशा किसी-न- किसी से प्यार करती रहती थी। उसके बारे में मशहूर था कि वह एक साथ कई लोगों से प्यार करती रहती थी। इनमें मर्द और औरतें दोनों होते थे। वह हमेशा किसी प्रभावशाली व्यक्ति को ही अपने प्रेम का शिकार बनाती थी। उनमें अधिकांश राजघरानों के राजकुमार और राजकुमारियां होती थीं।” अब केरेनिन की बारी थी। इस काउंटेस ने केरेनिन सहित उसके पूरे घर के रखरखाव को जिम्मेदारी ले ली थी। केरेनिन बिना उसको राय के कोई निर्णय नहीं लेता था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ऐसे ही ‘ भद्र समाज’ से अन्ना बहिष्कृत थी। इसके वाद ब्रांस्की अपने पैतृक जायदाद की देखभाल के लिए अन्ना के साथ अपने गाँव चला जाता है। वहाँ महलनुमा भव्य घर और पर्याप्त सम्पत्ति है। ब्रांस्की उस घर का नये सिरे से निर्माण करवाता है और उसे उन दिनों यूरोप में प्रचलित आधुनिकतम उपकरणों से सुसज्जित कर दिया जाता है। इन सबके पीछे उसका मकसद है कि अन्ना यहाँ हर तरह से सुखी और सन्तुष्ट रहे। किन्तु सुख और सन्तोष मानो अन्ना की नियति में ही न हो। कुछ दिनों के बाद ही अन्ना का मन वहाँ से भी उचटने लगता है। ब्रांस्की को सरकारी तथा जायदाद से जुड़े मामलों को सुलझाने के लिए बीच-बीच में शहर जाना पड़ता है, जहाँ वह अकसर कई दिनों तक रह जाता है। अन्ना गाँव के उस विशाल वीरान घर में अकेली ऊबती रहती है। हालांकि सही मायने में वह घर वीरान नहीं है : उसमें दास-दासियों का अच्छा-खासा हजूम है, जिनके कारण अन्ना को कभी अकेली नहीं रहना पड़ता। शानदार बग्घियों में वह कहीं भी घूम-फिर सकती है। पर उसके प्राण केवल ब्रांस्की में अटके रहते हैं। ब्रांस्की का बार-बार शहर आना-जाना और वहां कभी-कभी हफ़्तों रुक जाना उसे खटकने लगता है। कहा गया है कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है : अन्ना को लगता है कि ब्रांस्की वहाँ किसी दूसरी स्त्री को प्यार करने लगा है और धीरे-धीरे उससे ऊबता जा रहा है। यह नाकाबिले बर्दाश्त है और जैसा कि कहा जा चुका है कि वह बेहद शंकालु और ‘हिस्टिरीकल’ होती जाती है। वह ब्रांस्की से बेवजह तथा बेबात झगड़ पड़ती है। तब काफ़ी बकझक के बाद यह झगड़ा ‘बिस्तर’ पर जाकर खत्म होता है। पर यह समझौता और शान्ति भी बहुत देर तक कायम नहीं रहती। इस झगड़े की पुनरावृत्तियां होने लगती हैं और इस तथाकथित ‘दाम्पत्य जीवन’ में ज़हर घुलने लगता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उपन्यास में यद्यपि लेविन और किटी की समानान्तर प्रेम कथा को लोगों ने टॉल्सटॉय के अपने दाम्पत्य जीवन का प्रतिरूप माना है किन्तु अन्ना केरेनिना और ब्रांस्की की प्रेम कथा में भी कहीं-कहीं टॉल्सटॉय के जीवन तथा जीवन सम्बन्धी दृष्टिकोण को छवि दिख जाती है। शायद प्रत्येक महान उपन्यास के महत्त्वपूर्ण चरित्र में लेखक के व्यक्तित्व का अलग-अलग हिस्सा विभाजित होकर अन्तर्निहित रहता है। अतः कोई भी बड़ा कथाकार किसी एक चरित्र में अपने को पूरी तरह स्थापित कर अपना प्रतिरूप नहीं गढ़ता। जो कथाकार ऐसा करते है, वे उस चरित्र तथा पूरी कृति को कमज़ोर ही बनाते हैं : हिन्दी की कालजयी उपन्यास कहलाने वाले ‘शेखर : एक जीवनी’ में यह कमज़ोरी देखी जा सकती है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ब्रांस्की और अन्ना केरेनिना के दाम्पत्य में टॉल्सटॉय के अपने दाम्पत्य को छवि इन पंक्तियों में देखी जा सकती है : ‘‘पति तथा पत्नी के बीच सन्तुलन के लिए आवश्यक है कि या तो उनके सम्बन्धों में पूरी तरह ‘एकतानता’ (हारमोनी) हो या पूरी तरह मतभेद (डिस्कॉर्ड) हो। ऐसा न होने पर कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय लेना असम्भव हो जाता है। अनेक दम्पती वर्षों तक ऐसी ही अनिर्णय की स्थिति में जीते चले जाते हैं।” टॉल्सटॉय के अपने दाम्पत्य जीवन को जानने वाले लोग उपरोक्त पंक्तियों में उसकी झलक पा सकते हैं । अन्ना और ब्रांस्की का दाम्पत्य भी काफी दिनों तक ऐसी ही डगमगाती स्थिति में घिसटता रहता है : अन्ना सोचती है कि ज़रूर कोई दूसरी औरत ब्रांस्की और उसके बीच आ गयी है तभी उसका प्यार अन्ना के प्रति घटता जा रहा है। किन्तु अन्ना के पास उसका कोई प्रमाण नहीं है। वह प्रमाण की तलाश करती रहती है। उस दिन मास्को में (जहां वे कुछ दिनों के लिए गए थे) एक ‘बैचलर पार्टी’ से ब्रांस्की दिन भर नहीं लौटा । वह रात को दस बजे लौटा। अन्ना अकेली बैठी कुढ़ती रहती है। उसका अकेलापन उदासी और गुस्सा बढ़ता जाता है। जब लौटकर ब्रांस्की बताता है कि पार्टी शानदार थी और उसके बाद वे लोग बोटिंग के लिए गये थे जहाँ एक महिला टीचर ने उन लोगों को तैरना सिखलाने के लिए खुद तैर कर प्रदर्शन किया : अन्ना चिल्लाकर पूछती है, ‘‘ क्या वह तुम लोगों के सामने तैरती रही?” फिर उनकी बातों में बदमजगी बढ़ती जाती है। ब्रांस्की भी चीख कर कहता है, ‘‘ तुम क्यों मेरे धैर्य की परीक्षा लेना चाहती हो? यह असहनीय है!” लेकिन इस झगड़े का अन्त भी हमेशा की तरह बिस्तर में जाकर होता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पर यह समझौता भी क्षणिक साबित होता है और अगले दिन ब्रांस्की की माँ को लेकर अन्ना उससे लड़ पड़ती है। वह कहती है कि तुम्हारी माँ एक हदयहीन महिला है : मैं उन्हें पसन्द नहीं करती। ब्रांस्की चिड़कर कहता है, ‘ तुम्हें मेरी मां के प्रति अनादरपूर्ण शब्दों का व्यवहार नहीं करना चाहिए।’ उत्तर में अन्ना उसको और घृणा से देखती हुई कहती है, “तुम्हें अपनी माँ से प्यार नहीं है। ‘प्यार’ तुम्हारे लिए एक खोखला शब्द है— केवल शब्द, शब्द, शब्द (वर्डस, वर्डस, वर्डस- देखें, शेक्सपियर का नाटक हैमलेट)।“ आपको याद होगा कि प्यार को लेकर ऐसे ही शब्द अन्ना ने अपने पति के लिए भी व्यक्त किये थे, जैसे वह मानती हो कि उसके अलावा कोई प्यार कर ही नहीं सकता। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अन्ततः अन्ना समझने लगती है कि केवल ‘मृत्यु’ ही उसके प्रति ब्रांस्की के प्यार को वापस ला सकती है। उसे सज़ा देना जरूरी है। इसी में उसकी जीत है। कुछ भी नहीं बचा है, केवल प्रतिशोध ही इसका एकमात्र विकल्प है। और यह प्रतिशोध केवल मर कर ही लिया जा सकता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हम देखते हैं कि यहाँ अन्ना केरेनिना की प्रेम कहानी भी एक वृत्त बनाती हुई ‘वर्थर’ वाले प्रतिशोध के आसपास लौट रही है, जहां उसको आत्महत्या ही उसकी परांगमुखी प्रेमिका से उसका प्रतिशोध है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अन्ना की यह ‘प्रेम कहानी’ रेलवे स्टेशन से शुरू होकर रेलवे स्टेशन पर ही खत्म होती है। रेलवे स्टेशन उपन्यास में बड़े प्रतीकात्मक ढंग से प्रयुक्त हुआ है। सभी जानते है, और यह जानना बेहद दिलचस्प तथा आश्चर्यजनक है कि स्वयं टॉल्सटॉय के जीवन का अन्त भी रेलवे स्टेशन पर ही हुआ था। ‘अन्ना केरेनिना’ में रेलवे स्टेशन बार-बार आता है, हर बार नये सन्दर्भ में और नई अर्थवत्ता के साथ, जैसे वह जीवन का ही प्रतीक हो। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अन्त तक आते-आते अन्ना को जीवन पूरी तरह निरर्थक लगने लगता है— अर्थहीन और ऐबसर्ड । अन्त में जब वह अपने इस जीवन को समाप्त कर देने के लिए रेलवे स्टेशन की और जा रही है— तो उस वक्त की उसकी मनःस्थिति का जो चित्रण टॉल्सटॉय ने किया है, वह उपन्यास का सबसे महत्त्वपूर्ण अंश है। एक तरह से उपन्यास के रहस्य को खोलता हुआ। अन्ना सोच रही है— ‘‘मैं जहां से चली थी वहीं वापस आ गयी हूं। किसी ने, शायद याशिन ने कहा था कि प्रेम नहीं बल्कि घृणा हम सबको बाँधकर रखती है।’ बग्घी में बैठकर स्टेशन जाती हुई अन्ना के सामने उसका पूरा जीवन परत-दर-परत खुलता जाता है। ‘सब व्यर्थ है। तुम अपने आपसे भाग कर कहीं नहीं जा सकते।’ अचानक एक तेज रोशनी में अन्ना के सामने ब्रांस्की के साथ अपना सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है : ‘ब्रांस्की ने मुझमें क्या देखा था? वह मुझसे क्या पाना चाहता था? शायद वह प्यार नहीं था। वह दर्प था। वह मुझे जीतना चाहता था। अब वह विजेता है। वह जो कुछ पाना चाहता था, पा चुका। अब उसे मेरी कोई ज़रूरत नहीं है। प्रारम्भ में उसके प्रेम को अभिव्यक्ति एक वफादार कुत्ते की तरह थी जो हर वक्त अपने मालिक के सामने दुम हिलाता रहता है। अब सबकुछ समाप्त हो चुका है। अब उसे प्रेम या दर्प भी नहीं है। अब केवल उसे अपने किये पर शर्म है। अब मैं उसके लिए एक बोझ बन गयी हूं। काउंट ब्रांस्की और मैं अपने प्रेम में कभी अपनी अपेक्षाओं के अनुरूप सुख नहीं प्राप्त कर सके।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ब्रांस्की और अपने सम्बन्धों का विश्लेषण करते हुए जैसे अन्ना के सामने ‘ जीवन का अर्थ’ आलोकित हो गया। उसे लगा यही ‘नर्क (हैल) है— (हैल इज़् अदर पिपुल— ज्यां-पाल सार्त्र)। मानवीय सम्बन्ध ही नर्क है। “प्रेम जहाँ खत्म हो जाता है, वहीं से घृणा शुरू होती है!” अन्ना बग्घी से बाहर देखती है। “एक पुलिसवाला एक शराबी को पकड़ कर ले जा रहा है। ये पहाड़ियां, ये घर, ये तमाम घर और इनमें रहने वाले लोग! ये सभी एक-दूसरे से नफरत करते हैं। क्या इसीलिए हम हमेशा अपने को और दूसरों को पीड़ित करते रहते है? यह भीख मांगने वाली अपने बच्चे के साथ जा रही है। एक बच्चा हंसता हुआ स्कूल जा रहा है। क्या यह सर्जइ (उसका बेटा) है?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">प्लेटफार्म पर वह एक गन्दे, बूढ़े और बदहाल आदमी को देखती है । उसका चेहरा उसे परिचित लगता है। क्या यह वही बूढ़ा नहीं है जो उसके दुःस्वप्नों में अकसर आता रहा है? क्या उसका प्रेम एक दुःस्वप्न था जो यहाँ भी उसका पीछा कर रहा है? </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अचानक उसे याद आता है जब प्लेटफार्म पर वह पहली वार ब्रांस्की से मिली थी और एक ‘ वाचमेन’ ट्रेन के नीचे कटकर मर गया था। सामने से एक ट्रेन आ रही है धीरे-धीरे। उसका पहला डिब्बा उसके सामने से गुजर गया। दूसरा डिब्बा सामने आते ही उसके पीछे की जंजीरोवाली खाली जगह में वह आंखें बन्द कर कूद पड़ी। उसने उठने की कोशिश की पर एक भारी चीज़ उसके सिर से टकराई और वह गिर पड़ी। जिस मोमबत्ती को रोशनी में वह एक किताब (जीवन को किताब) पढ़ रही थी उस मोमबत्ती की रोशनी तेज होकर फड़फड़ाई और बुझ गयी! </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यह अन्ना केरेनिना का अन्त है। पर उपन्यास यहां खत्म नहीं होता, आगे बढ़ जाता है लेविन और किटी के जीवन की और। ब्रांस्की वापस फ़ौज में भर्ती हो जाता है। ‘प्रेम’ खत्म हो जाता है पर ‘जीवन’ चलता रहता है- ‘ लव एन्ड्स बट लाइफ गोज़ ऑन’!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div></div>
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(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br />
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-45821383934229062022023-08-09T11:18:00.002+05:302023-09-02T13:57:42.593+05:30बिहार में कविता के पांच अलहदा स्त्री-स्वर -गीताश्री | Bihar me Kavita ke Paanch Alhada stri-svar - GeetaShree<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>साहित्यकार गीताश्री ने बिहार की पाँच कवयित्रियों - उपासना झा, नताशा, निवेदिता, सौम्या सुमन और पूनम सिंह की कविता पर यह आलेख लिखकर बहुत ज़रूरी काम किया है। कविता की समीक्षा/आलोचना की बातों के बीच उन्होंने कुछ मानी-ख़ेज़ बातें भी कही हैं, मसलन – <span><a name='more'></a></span></div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee; font-size: 120%;">सदी के बदलते ही चिंताएं बदलीं। देश और समाज बदला। आज देश के राजनीतिक हालात और धार्मिक उन्माद जिस तरह समाज को संचालित कर रहे हैं, उससे कवियों का देश से मोहभंग हुआ है। सुंदर समाज का स्वप्न दिखा कर जब-जब कोई व्यवस्था विफल होती है तब तब कवियों की आस्था हिलती है। ख़ासकर प्रगतिशील मूल्यों से जुड़ी स्त्री कवियों को भी स्वप्नभंग की त्रासदी से गुज़रना पड़ा है। इक्कीसवीं शताब्दी वैसे भी स्वप्नभंग की शताब्दी साबित होने वाली है। पिछले कुछ समय में स्त्री कविता का स्वर भी बदला है और उनकी लड़ाई दोहरी हो गई। वे पितृसत्ता से पहले लड़ती रहीं और उसके बाद वे देश, समाज के बिगड़ते हालात को लेकर कविता के जरिये प्रतिरोध जताना शुरु किया। कविता हो या कोई साहित्य की कोई विधा, वह जनतांत्रिक मूल्यों से जुड़ी होती है। उसका क्षय जब-जब होगा, कविता का सुर बदलेगा। स्त्री कविता भी जनता के दमन और शोषण के विरुद्ध अपना मुंह खोलेगी।</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;"><br /></span></div><div itemprop="articleBody">कथाकार, समीक्षक, पत्रकार, आलोचक, मित्र गीताश्री से उम्मीद और गुज़ारिश है कि वह यह काम निरंतर करती रहें। ~ सं० </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtiRKvpj-wcI3Vfl4JXBlYDZNDKNx43TadFqo5uBlYyBpQW0I0tKdZu62SSTsXJawuS7pirsb9p2jH0K4JZ9uAxV1tRGN8X8wuOJd2ccQWC_wLAtN4aWhR8iQd4VXG818bfhvvLXu1e_x8Tk1sfZZYN14cvhpgSECvif41j5_WtexkycigqXBbzQjpjquM/s903/Bihar%20me%20Kavita%20ke%20Paanch%20Alhada%20stri-svar%20-%20GeetaShree.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtiRKvpj-wcI3Vfl4JXBlYDZNDKNx43TadFqo5uBlYyBpQW0I0tKdZu62SSTsXJawuS7pirsb9p2jH0K4JZ9uAxV1tRGN8X8wuOJd2ccQWC_wLAtN4aWhR8iQd4VXG818bfhvvLXu1e_x8Tk1sfZZYN14cvhpgSECvif41j5_WtexkycigqXBbzQjpjquM/s16000/Bihar%20me%20Kavita%20ke%20Paanch%20Alhada%20stri-svar%20-%20GeetaShree.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Bihar me Kavita ke Paanch Alhada stri-svar - GeetaShree</td></tr></tbody></table><br /><div itemprop="articleBody" style="text-align: center;"><br /></div><h1>बिहार में कविता के पांच अलहदा स्त्री-स्वर</h1><h2>-गीताश्री</h2><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इस समय बिहार में कई पीढ़ियां एक साथ काव्य संसार में सक्रिय हैं और उन्होंने बिहार में रहते हुए राष्ट्रीय फलक पर अपनी पहचान बनाई है। एक समय में, एक जैसे समाज में जीते-रचते हुए अलग-अलग पीढ़ी की स्त्री कवियों के अलहदा स्वर हैं। यूं तो बिहार के बाहर बसने वाली स्त्री कवियों ने भी अपनी पहचान बनाई है जिनकी गूंज दूर तक सुनाई देती है। लेकिन यह विरल संयोग है कि छोटे-छोटे शहरों में रहते हुए भी उनकी कविताओं की धमक देश भर में सुनाई दे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इक्कीसवीं सदी की स्त्री कविता का जब भी मूल्यांकन किया जाएगा, इनकी कविताओं के बिना बात पूरी न होगी। क्योंकि आज की स्त्री, 18वीं और 19वीं शताब्दी की गूंगी गुड़िया नहीं है। उसे देश काल चिंतित करता है। वह सभ्यता का छल छद्म समझती है, धर्म और संस्कृति के आतंक को पहचानती है। उसकी चिंता के केंद्र में देह और देश दोनों की सुरक्षा है। सिर्फ़ देह को देश बनाकर उसे सीमित कर देने की साज़िशों के ख़िलाफ़ इनकी कविताएं एक सचेतन नागरिक का प्रतिरोध-पत्र तैयार करती हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यह सर्वविदित है कि स्त्री लेखन में प्रतिरोध की ये आवाज़ बीसवीं शताब्दी के आखिरी वर्षों में बहुत तेज हुई। स्त्री कविता ने सबसे पहले हुंकार भरी। हिंदी-पट्टी में अचानक से ऐसी स्त्री कवियों की फौज आई जिनकी कविताओं में प्रतिरोध का स्वर बेहद मुखर था। वे एक तरह से पितृसत्ता को ललकार रही थीं। और उनसे खुद को बख्श (याद करें अनामिका की कविता, हे परमपिताओं, परमपुरुषों, बख्शो, अब हमें बख्शों) देने की बात कर रही थीं। वे अपनी डोर अपने हाथ में लेने की बात कर रही थीं। उनकी कविताओं से विलाप और गिड़गिड़ाहट के भाव विलुप्त हो गए थे। सबने उसे भौचक्का होकर पढ़ा, सुना उस आवाज़ को। उस आवाज़ में सदियों की गुलामी की पीड़ा की जगह मुक्ति का गान था। उस आवाज़ की सही-सही शिनाख्त की गई इक्कीसवीं सदी के इस दौर में। जहां स्त्री-कविता एक आंदोलन की तरह उमड़ती दिखाई देती है। जो सिर्फ पितृसत्ता से टकराव ही नहीं मोल ले रही, बल्कि जमीन पर उतर कर एक्टिविज्म तक करने लगी। प्रतिरोध और संघर्ष इसके मूल स्वर रहे। स्त्री कविता ने इस सदी में बड़ा काम किया कि स्त्री को काम्य बनाने वाली मनोवृत्ति का विरोध किया और वस्तु से व्यक्ति बनने की लड़ाई जीत ली। कम से कम कविता ने यह काम बखूबी किया। यह स्त्री कविता की सामूहिक जीत थी। वर्जनाओं से मुक्ति सबसे बड़ी मुक्ति होती है। उसने सारे टैबू तोड़ डाले। उसके लिए कोई प्रदेश वर्जित नहीं रहा। उसने ऐसा बेबाक परिसर चुना जहां कोई परदेदारी न थी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यही नहीं, उसने अच्छी औरत, बुरी औरत के विभाजन को नष्ट कर दिया और पाप और पुण्य की परिभाषाएं बदल कर, खुद को नैतिकता के बोझ से मुक्त कर लिया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">स्त्री-कविता मुक्त हुई। इस मुक्ति में बिहार की अनेक स्त्री-कवियों, जैसे अनामिका, सविता सिंह, सुमन केसरी जैसी वरिष्ठ कवियों की विशिष्ट भूमिका रही है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हम बात करेंगे ऐसी ही चुनिंदा पांच स्त्री कवियों की कविताओं पर जिन्होंने भीड़ में अपनी अलग पहचान बनाई और मौजूदा सदी की मानकों पर खरी उतरीं। वे हैं — उपासना झा, नताशा, निवेदिता, सौम्या सुमन और पूनम सिंह। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><h2>उपासना झा की कविताएं मुक्ति पथ की खोज में उदास औरत का शोकपत्र हैं</h2><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">1.</div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">सुबह की जा सकती हैं कई प्रार्थनाएं</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">रात की कई धुँधली कामनाओं के बाद </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">उन प्रार्थनाओं में तुम न आओ </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">एक अधजली इच्छा रखूँगी दिए की जगह.</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">2.</div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">उस नगर की सब स्त्रियाँ चरित्रहीन थी</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">उनकी भौहें तनी रहती थी मान से</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">उनके होंठो पर तिरता नहीं था मंद हास्य</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">कोनों में नहीं दबी रहती थी मृदु भंगिमाएं</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">कंठ से खिल कर फूटता था अट्टहास</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">ग्रीवा में बाँध रखती थी लिप्सायें</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">उनके वसनों में घूमता रहता था बसंत</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">देखा नहीं कभी उन रक्तिम ऋतुओं का अंत.</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">युवा कवि उपासना झा की कविताओं को पढ़ते हुए आप उदास हो सकते हैं, उदासी के पूरे तत्व मौजूद हैं। उनकी कविताओं में उदास औरतें कैलेंडर में अपने रोने का हिसाब लिखती हैं। उपासना उस उदासी को कविता में बदल देती हैं। सामान्य पाठकों के लिए यह जटिल एवं अबूझ उदासी है। कोहरे की तरह फैलती हुई वह उदासी चौतरफा घेर लेती है। किसी शोकपत्र की तरह लगती हैं कुछ कविताएं। विमर्श की छाया इन कविताओं पर भी पड़ी है। उदासी तंज में बदलती है और स्मृतियों के सहारे मुक्ति का मार्ग ढूंढने लगती हैं। अपनी पुण्य कोशिशों में, अंततः ये कविताएं आत्मा की सबसे सुंदर प्रार्थनाओं में बदल जाती हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ऐसा क्यों...?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उपासना का त्वरित जवाब आता है—</div><blockquote><div itemprop="articleBody">हम कितनी भी बातें कर लें स्त्री-मुक्ति और स्वातंत्र्य की, असल में सब दावे झूठे हैं। आर्थिक स्तर पर जबतक स्त्रियाँ मुक्त नहीं होंगी और अपने गर्भ पर उनका अधिकार नहीं होगा तब तक उदास औरतों के शोकगीत लिखे जाते रहेंगे।</div></blockquote><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">स्त्री का दुख इतना रूमानी है कि लोकगीतों में गेय और कविताओं में काव्यात्मक होता है। कविता में यह दुःख स्वानुभूत-परानुभूत दोनों होता है। कवि संवेदनशील होता है, वह दूसरों के दुःख को भी उसी भावबोध से समझता है। स्त्री होने के नाते उपासना उन स्थितियों को बेहतर समझ सकती हैं जिससे कोई अन्य स्त्री गुज़रती है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">स्त्री के मसले को वे वैश्विक स्तर पर देखती हैं कि कैसे स्त्री-देह को युद्धस्थल में बदल दिया गया है। वह इस बात से चिंतित हैं कि आए दिन असंख्य स्त्रियाँ प्रताड़ना, बलात्कार, लैंगिक-भेदभाव की शिकार बनती हैं। उनकी देह को उनके विरुद्ध हथियार बना लिया गया है। यहां वह मानती हैं कि स्त्री की देह को किसी ऐसे मुल्क की तरह समझा गया जिसे जब चाहे लूटा जा सकता है। उपासना बताती हैं—</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><blockquote><div itemprop="articleBody">विश्व में जितने भी युद्ध होते हैं चाहे उनका जो भी परिणाम हो, युद्धस्थली बनती है स्त्रियों की देह ही। कोई जीते कोई हारे, बहुत बड़ी संख्या में स्त्रियाँ प्रभावित होती हैं। धार्मिक युद्ध और दंगों में भी यही होता है। इस्लामिक स्टेट द्वारा यजीदी औरतों को बंधक बनाना, उन्हें पशुओं की तरह बेचना और शोषण करना तो अभी की ही बात है। बांग्लादेश की मुक्ति और जापान द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध में करीब दो लाख स्त्रियों (चीनी, दक्षिण कोरियाई, इंडोनेशियन) को 'कम्फर्ट वीमेन' बनाया था।</div></blockquote><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">होटल मैनेजमेंट में स्नातक करने के बाद मीडिया में सात साल गुज़ार चुकी उपासना की कविताओं में तीन मुख्य तत्व ध्यान खींचते हैं — उदासी, स्मृतियां और जगहें। स्त्री होने के नाते स्त्रियों की तकलीफों को अतिरिक्त संवेदनशील नज़रिये से देखती हैं, कवि होने के नाते स्मृतियों की तरफ लौटती हैं, जहां सिर्फ अतीत का पुनर्पाठ या इतिहास का बखान नहीं, बल्कि सुख दुख के क्षणों में बचा कर रखा गया मुस्कान का छोटा टुकड़ा विस्मय की तरह कौंध जाता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">तीसरी चीज़ जो बेहद साफ़ और चमकीली है, वह है जगह। जगह जो शहर है, जगह जो किरदार है, जगह जहां कुछ इच्छाएं धर दी जा सकती हैं। जहां जब चाहे स्मृतियों के सहारे लौट कर जीवन का अनुभव और प्रकाश दोनों पाया जा सकता है जैसा वह अपने प्रिय कवियों प्रसाद, निराला, सिल्विया, अज्ञेय, कालिदास, नेरुदा, क़ब्बानी को पढ़ते हुए पाती हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><h2>युवा कवयित्री नताशा के लिए कविताएं पर्सनल एजेंडा नहीं है</h2><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">मुझे नीचे ही गिरना है</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">तो चाहूंगी वहां गिरना</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जहां की जमीन में खाद पानी हो</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">खुरपी कुदाल से</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जहां की मिट्टी को चोट नहीं लगती</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">मेरा नीचे गिरना भी </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">तुम तय नहीं कर सकते।</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">....</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">मृत जुगनुओं के गिरने के बाद</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">रात अपने अंगूठे के सिरे से</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">नींद को खींच माथे लगाती है</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">किसी टूट चुके वादे की मानिंद...</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">.....</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">मैं भेजूंगी </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">दिनभर की जद्दोजहद के बाद</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">निढ़ाल सी बेंच पर पड़ी हुई शाम</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">और सूखे पीले पत्तों पर राहगीरों की चहलकदमी</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">वह कानों को बेचैन करने वाला संगीत....</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बिहार की राजधानी पटना से कुछ कोस दूर एक शांत, क़स्बे मनेर में बच्चों के साथ पठन पाठन में लगी हुई एक अंतर्मुखी लड़की, नताशा अपनी कविताओं में सहज रहा करती है। जैसे लड्डूओं के बिना उस जगह की पहचान अधूरी, वैसे ही कविता के बिना उस लड़की की। बेहद स्वादिष्ट लड्डूओं के शहर में वह कविता में हर तरह के आस्वाद भरती है। जैसे लड्डू के बिना असंभव है मनेर की कल्पना वैसे ही कविता के बिना उसका जीवन असंभव। वह सोच ही नहीं सकती कि बिना कविता के वह जी भी सकती है। कविता के बिना जीवन, सोच कर ही सिहर जाती है। कोई इस कदर प्यार करे कविता से और कह उठे—</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><blockquote><div itemprop="articleBody">जैसे लोहे के पेड़ होते और पत्थरों की नदी होती। आंखों के समक्ष दृश्य होता पर दृश्य की पहचान नहीं होती। बिना पहचान के जीवन निष्प्राण होता।</div></blockquote><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कविताएं उसके बचपन से डायरियों का हिस्सा रही हैं। पहले शौक रहा फिर जीने की अनिवार्य ज़रूरत और शर्त। पहली बार 'तब से अब तक' नामक कविता 2007 में भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता द्वारा आयोजित युवा कविता पुरस्कार के लिए वागर्थ पत्रिका को भेजी। वह कविता छपी और पुरस्कृत भी हुई। बीच में लिखना तो जारी रहा लेकिन छपने में निरंतरता का अभाव रहा। फिर भी छिटपुट पत्र पत्रिकाओं में छपती रही। पिछले एक वर्ष में उसने अपने को समेटा और कविता सृजन में पुनः जुट गई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बकौल नताशा साहित्य के संस्कार उसे विरासत में अपने पिता और साहित्यिक पुरखों से मिले हैं। प्रिय कवियों में निराला ने यथार्थ को परखने का माद्दा दिया और शमशेर ने स्मृतियों से प्रेम करना सिखाया, मुक्तिबोध से क्रूरता के खिलाफ़ प्रतिरोध जताना सीखा, बाबा नागार्जुन से सीधी बात करना सीख रही है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">समकालीन कवियों में केदारनाथ सिंह और नरेश सक्सेना उसे प्रिय हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">नताशा कहती हैं—</div><blockquote><div itemprop="articleBody">केदारनाथ सिंह और नरेश सक्सेना की विरासत में मुझे नई कड़ी जोड़नी है।</div></blockquote><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कविता उसके लिए सिर्फ पर्सनल एजेंडा नहीं, सिर्फ स्त्री मुक्ति का हुंकार नहीं, निजी दुखों का उत्सव नहीं है, दुनिया को अपने हिसाब से बदलने का औज़ार है। उसके जीवन में कविता यही स्वप्न लेकर आई है।</div><div itemprop="articleBody">कविता के सवाल पर नताशा बेहद मुखर हो उठती है—</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><blockquote><div itemprop="articleBody">यह कविता के अस्तित्व को बचाए रखने वाला सवाल है। इस सवाल ने मुझे मुखरित किया है कि चाहे प्रेम हो, विद्रोह हो, सुख, दुख, उपेक्षा, धिक्कार हो, कविता ही वह माध्यम है जिससे मुझे अपनी बात कहनी है। कविता स्वांत सुखाय का मामला भर नहीं, अब तो यह हथियार है। मैं जैसी दुनिया रचना चाहती हूं, उसका औज़ार है।</div></blockquote><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इसीलिए उसकी कविताओं में ख़ास किस्म की वाचलता है जो कई बार वर्चस्ववादी सत्ता को चुनौती देने लगती है। उसके यहां प्रेम है पर अंध-समर्पण नहीं। कातरता है पर गुहार नहीं। विलाप है पर चित्कार नहीं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दरअसल नताशा की कविताएँ देश के उस नागरिक का बखान है जिसकी चेतना को समाज और परिवार ने कभी जाग्रत या विकसित नहीं होने दिया। वह नागरिक स्त्री है जिसका संसार सीमित था और जिसे बहुत से अवसरों से वंचित रखा गया। जिसके विचार भी कुंद कर दिए कि वह देश दुनिया के बारे में सोच न सके। उसके विवेक का हरण इस तरह हुआ कि वह चहारदीवारी के पार बदलती हुई दुनिया को न ठीक से देख सकती थी न उस पर बात कर सकती थी। इधर तेज़ी से दुनिया बदल रही थी। घटनाएं हो रही थीं। स्त्रियाँ उन पर रिएक्ट करने से वंचित थी। देश संभालने से ज़्यादा उसे देह संभालने का नैतिक पाठ पढ़ाया गया। देह ही देश है जिसकी सुरक्षा अपने ही मुल्क के नागरिकों से करना चाहिए। खाप पंचायतों के तालिबानी फ़रमानों और सामूहिक बलात्कारों के इस भयावह दौर में देह की सुरक्षा मूल मुद्दा बना दिया गया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">नताशा की एक लंबी, पुरस्कृत कविता ‘देश राग’ पढ़ कर स्त्री कविता के विराट वितान की शिनाख्त की जा सकती है। कविता है—</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">देश के इतिहास की यात्रा मेरे भीतर की यात्रा थी</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">कितने देश होंगे जो सभ्यताओं के मलबे में दब गये होंगे</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">कितनी नदियाँ होंगी जिनका पानी बाँध परियोजनाओं ने रोक दिया होगा</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">बारूद के हवा में घुलने से पहले</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">न जाने कितने फूलों और फलों की गंध हवा में घुल रही होगी</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">1947 के बाद का वह टुकड़ा ही अब मेरा देश है</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">चतुर्दिक बॉर्डर के भीतर</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">सीमित हवा, पानी, गीत संगीत में ढला</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">इसके भीतर की दीवारें दरक रहीं</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">कोलाहल बढ़ रहा</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">मेरे देश की आत्मा में सुराख़ करने वाली कीलें</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">हर नागरिक के सीने में चुभ रही</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">मैं समझती थी</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">मेरा जन्म लोकतंत्र के ख़ूबसूरत दौर में हुआ है</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जंजीरों में कराहती पुरखों की कराहें</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">यातनाओं की आड़ में दम तोड़ती सांसे</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">अब इतिहास के स्याह पन्नों में दर्ज है</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">कि मेरी अगली पीढ़ी</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">तारीख़ों में लिपटे युद्ध की हार – जीत</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">रटने को अभिशप्त नहीं रहेंगी । </span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">नताशा की इस दीर्घ कविता का परिवेश भारतीय होते हुए भी वैश्विक हो जाता है जब वो इसी कविता में सवाल उठाती है कि एक विश्व विख्यात चित्रकार को देश क्यों छोड़ना पड़ा? मेहदी हसन ने देश क्यों छोड़ा?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यह कविता एक चिंतित स्त्री समुदाय की प्रतिनिधि कविता है जिसमें एक नागरिक की चिंताएँ शामिल है। जो देह से परे अपना वह देश ढूँढ रही है जिसमें सांप्रदायिकता ज़हर हवा में न घुला हो। जहां किसी नागरिक को धर्म के आधार पर न परखा जाए। यह कविता लोकतांत्रिक चेतना से लैस है जो अपने समय, समाज की सही-सही शिनाख्त करती है। स्त्री चेतना समाज द्वारा बनाई चौहद्दी से बाहर आकर बहस उठाती है। यह कविता सिर्फ़ सचेतन स्त्री का आख्यान भर नहीं, इसमें अनेकानेक समसामयिक मुद्दे हैं। देश सिर्फ़ भूगोल का हिस्सा नहीं। यह कविता समसामयिक चिंताओं को छूती है। सत्ता के क्रूर चेहरे को उजागर करती है। बिना नारेबाज़ी के कविता देश के विरुद्ध की जा रही कार्यवाहियों का पर्दाफ़ाश भी करती है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><h2>प्रेम और क्रांति की कवि निवेदिता की कविताएं अवाम की पीड़ा का आख्यान हैं </h2><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">फ़ैज़ के नशेमन में डूबी प्रेम की कवि निवेदिता की कविता का दुख से गहरा रिश्ता है और उनकी कविताएं आह से ही उपजती है। जब-जब दुखों का सैलाब आता है, कविता उमड़ती है। इसका मतलब कविता का काम सिर्फ़ विलाप करना नहीं। अपने निजी दुखों का सार्वजनिक प्रकटीकरण नहीं कविता। अगर पर्सनल भी है तो वह पब्लिक के सच के साथ जुड़ जाए। छिछली भावुकता कविता का दायरा सीमित कर देती है। कविता का परिसर इतना व्यापक हो कि कवि की संवेदना विस्तार लेते हुए दुनिया के दुख से जुड़ जाए।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वो दुख ही था जो नासिरा शर्मा जैसी विलक्षण किस्सागो को कविता के क़रीब ले गया। लॉकडाउन के दौरान जब वे ग़रीबों-मजलूमों का हाल लेने निकली तो उनके भीतर से कविता फूटी। उन्होंने उस दौरान कई लंबी और मार्मिक कविताएँ लिखीं। नासिराजी की उन कविताओं में अवाम का दर्द उभर कर आता है…!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कविता परदुख कातरता से बड़ी होती है। दुख को करुणा में बदल जाना चाहिए, जिसमें स्व का लोप हो।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">निवेदिता के काव्य संसार में निजी दुख से उपजती हुई अवाम की आवाज़ें हैं…! अपने दुख में लिथराई हुई संकीर्ण कविताओं के लिए यहाँ जगह नहीं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">निवेदिता की कविताओं में “मैं ये, मेरे साथ ये अन्याय, हाय मैं छली गई… लुट गई, पिट गई” टाइप क्रंदन नहीं, एक उम्मीद है, कुछ सदिच्छाएँ हैं कि मेरे वश में कुछ होता तो दुनिया को इतना सुंदर बना देती कि जीने लायक़ बन सके। मैं मनहूस तवारीख़ को बदल सकती।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पृथ्वी को, मनुष्यता को बचा लेने की चाहत और तड़प सुमन केशरी की कविताओं में भी बहुत है। पंकज सिंह, मदन कश्यप के यहाँ भी। यही कॉमन बात निवेदिता को मदन कश्यप, सुमन केशरी की परंपरा की कवि बनाती है। जहां प्रेम और क्रांति और सदिच्छाएँ साथ-साथ चलती हैं। ये सभी प्रेम, प्रकृति, जीवन राग और संघर्ष के कवि हैं।</div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;"><br /></span></div><div itemprop="articleBody"><b><span style="background-color: white;">मदन </span>कश्यप</b> <span style="background-color: white;">जी लिखते हैं —</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">बची हुई हैं, कुछ उष्ण साँसें</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जहां से संभव हो सकता है जीवन</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">गर्म राख कुरेदो</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">तो मिल जाएगी यह अंतिम चिंगारी</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जिसमें सुलगाई जा सकती है</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">फिर से आग !</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इसी उम्मीद और चाहत का दामन पकड़े <b>सुमन केशरी</b> जी लिखती हैं—</div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">मैं बचा लेना चाहती हूँ</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">ज़मीन का एक टुकड़ा</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">ख़ालिस मिट्टी और</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">नीचे दबी धरोहरों के साथ</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">उसमें शायद बची रह जाएगी</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">बारिश की बूँदों की नमी</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">धूप की गरमाहट</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">कुछ चाँदनी !</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">निवेदिता की कविताओं में इसी संवेदना का विस्तार मिलता है। जब वे लिखती हैं —</div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">भविष्य की धरती को</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">उन तमाम दुखी रातों से बचाना चाहती हूँ</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">या</div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">मुझे सोख लो</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">मैं सूरज की लौ बन कर तुम्हारे दिल में जलना चाहती हूँ</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">तब ये कविताएँ बड़ी ताक़त बन जाती हैं। कविता का एक काम ताक़त देना भी है और संतप्त मनुष्यता पर शीतल हथेली धरना भी है। दुनिया को, समाज को अपना योगदान देने की आकांक्षा से भरी हुई कविताएँ नैराश्य से उबार लेती हैं। निवेदिता प्रेममार्गी कवि है, जिसकी क्रांति की राह भी मोहब्बत के दरवाज़े से गुज़रती है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: white;">वे लिखती हैं —</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जिसने कभी</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">पहाड़, नदियाँ, हरे-भरे पेड़ को निहारा नहीं, सिर्फ़ रौंदा है</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जो प्रेम से ख़ाली हों</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जो मोहब्बत के मायने नहीं जानते</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">मेरी आँखें उन्हें दें</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">ताकि वे भीग सके मुहब्बत में</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">और दुख को सहला दे</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कितना भी दुख हो, कितनी भी मुश्किलें, निवेदिता उम्मीद का दामन नहीं छोड़ती। न दुख में, न ख़ौफ़ में, न यातना में। अंधेरे में चिराग़ की तरह उम्मीदें टिमटिमाती हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">एक दिन हम डरना बंद कर देंगे</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">और दुनिया</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">एक हथेली पर</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">पूरी बस जाएगी</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">वहाँ अनंत आलोक फैला होगा</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">उस आलोक में हम डर से पार पा लेंगे!</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कविता निज के प्रति घातों और अन्यायों की एकतरफा दास्तान नहीं है… जिसमें अपने समय की चिंता न हो, मुठभेड़ न हो, जो अंतिम व्यक्ति के संघर्षों को सहलाए नहीं, राजनीतिक हस्तक्षेप करे, जो धूमिल की कविताओं की तरह सवाल न उठाए, मुक्तिबोध की तरह बेचैन न करे, अनामिका की तरह हिंसक समय में करुणा का उद्घोष न करे, वो क्या कविता।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><b>कुमार विकल</b> का कथन याद आता है—</div><blockquote><div itemprop="articleBody">मेरे अनुसार कविता आदमी का निजी मामला नहीं है, एक दूसरे तक पहुँचने के लिए पुल है।</div></blockquote><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">प्रगतिशील चेतना और अपने सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध कवि निवेदिता की कविताएं इस मायने में इस दौर का “जरूरी” पुल हैं। वे प्रतिरोध में भी प्रेम को जरूरी पुल बनाती हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><h2>सौम्या सुमन की कविताओं में तमाम स्त्रियों के हस्ताक्षर हैं</h2><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पटना में निवास करने वाली कवि सौम्या सुमन अब एक सुपरिचित कवि हैं जिनकी कविताएं धीर-धीरे अपना असर छोड़ती हैं। उनकी कविताओं में अनसुनेअनकहे के दरमियान प्रेम के सहज सौन्दर्य की कशिश दिखाई देगी, साथ ही दुनिया भर की तमाम स्त्रियों की प्रतिरोधक आवाजें भी हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वरिष्ठ कवि प्रभात मिलिंद से कुछ शब्द उधार लेकर कह सकते हैं कि प्रेम के विभिन्न अदृश्य आयामों की तरह सौम्या सुमन की कविताओं में भी हमें प्रेम की अमूर्तता में जिज्ञासा, विप्रलंभ, अनासक्ति, एकांतिकता, उत्तरदायित्व आदि अन्यान्न पक्षों की जियारत होती है जिन्हें घनानन्द ने ‘अति सूधो सनेह को मारग है तहं नैकु सयानप बांक नहीं’ जैसी अभिव्यक्ति के ज़रिये परिभाषित करने का प्रयास किया है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सौम्या सुमन की कविताएँ अनिवार्यतः स्त्री-संवेदनाओं की कविताएँ हैं लेकिन उतनी ही अनिवार्यतः यह आयातित विमर्श अथवा अयाचित मुक्ति की कविताएँ नहीं हैं। स्त्री होने और स्त्रीत्व के सेलिब्रेशन की प्रतिध्वनि इन कविताओं की मुखर विशेषता और संपदा है। स्त्री-कविता का अमरत्व नहीं भी तो दीर्घजीविता इन कविताओं में अवश्य तलाशी जा सकती है —</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जब तक यह जीवन है</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">मैं बार-बार</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">थाह लेती रहूंगी तुम्हारी</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">और</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">वही अंतिम प्रमाण होगा</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">हमारे बचे होने का</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सौम्या की कविताओं में अपने अस्तित्व के प्रति गहरा मोह और यकीन दिखाई देता है। इनके यहां प्रतिरोध की आवाज़ भी मोहकता में लिपटी है। वे अपनी अस्मिता के पक्ष में खड़ी होकर भी कभी अनुराग का दामन नहीं छोड़ती। उन्हें यकीन है कि तमाम झंझावातों के बावजूद स्त्री बची रहेगी। उनकी कविताएं एक दूसरे का विस्तार मालूम पड़ती हैं। जैसे युद्ध या संघर्ष के पहले जिस तरह का उदघोष किया जाता है, उनकी कविताएं वैसे ही काम करती हैं। कविताएं अपना सुर धीर-धीरे ऊंचा करती चलती हैं। ये बहुत झकझोरने वाली कविताएं नहीं हैं कि योद्धाओं की बाजुएं फड़कने लगे। ये कविताएं सीधा दिल पर वार करती हैं और वहां परिवर्तन की आकांक्षी हैं। मोहब्बत में ऐसा ही होता है। हम पहले बातों से बदलाव की आकांक्षा रखते हैं। इसीलिए उनकी कविताओं में ख़ास किस्म का आग्रह और मनुहार दिखाई पड़ता है, आतंक या वितृष्णा नहीं। ये उनकी अपनी शैली हो सकती है या स्वभावगत प्रभाव। कवि के स्वभाव का असर उसकी रचनाओं पर पड़ता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वे लिखती हैं—</div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">एक बार पढ़ कर देखना</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">उस स्त्री की अधूरी कविता</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जिसके पन्नों पर दर्ज़ हैं</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">दुनिया की</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">तमाम स्त्रियों के हस्ताक्षर</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">वह स्त्री</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जो अंधेरे से निकल</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">धूप की मुंडेर पर बैठ</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">करना चाहती है</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">सूरज और आकाश से</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">पंछियों की बातें</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जो मकड़जालों के बीच</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">साँसों में भरना चाहती है प्रेम</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">बटोरना चाहती है</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">शब्दों के लिए उजास</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">तुम पढ़ना उस स्त्री की कविता</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यहां कवि स्त्री को, स्त्री की कविता को बार-बार पढ़े जाने की मांग करती हैं। जबकि उनसे पहले <b>अनामिका </b>इस सच को कुछ इस तरह लिख चुकी हैं -– </div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">पढ़ा गया हमको </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जैसे पढ़ा जाता है काग़ज़</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">बच्चों की फटी कॉपियों का </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">चना-जोर-गरम के लिफाफे के बनने से पहले।</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इस सच के बावजूद सौम्या की कविता में पितृसत्ता से स्त्री कविता को पढ़े जाने का आग्रह है, ललकार या चुनौती नहीं। स्त्री अंत तक चाहती रहेगी कि उसे कायदे से पढ़ा जाए। उसका एक-एक अक्षर सदियों की पीड़ा का दस्तावेज है। स्त्री को समझा जाए, जैसे कोई शास्त्रीय संगीत को समझता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">स्त्री-कविता लंबे समय तक वैसे ही उपेक्षित रही है जिस तरह स्त्रियां मुख्यधारा में उपेक्षित रहीं। स्त्री लेखन आज भी मुख्यधारा की चिंता या चिंतन में नहीं समा सका है क्योंकि उसे कसने वाले, उसे समझने और स्वीकारने वाले न दिल हैं न कोई कसौटी। ये तो चुनौती है जिसने सबको चकित और असमर्थ साबित कर दिया है। स्त्री के पास अभिव्यक्ति की अपनी ही गढ़ी भाषा है जो पारंपरिक भाषा और शिल्प से मेल नहीं खाती है। स्त्री का लेखन में प्रवेश एक चमत्कारिक घटना है जो ये जानने के बावजूद कि वहां ख़तरे हैं, जोखिम हैं, रुसवाई है, उपेक्षा है, अस्वीकार है, उसमें प्रवेश करती है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सौम्या की कविता में इसका संकेत मिलता है— </div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">बस्ती के छोर पर </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जंगल के आगे</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">आगाह करती तख्तियां लगी थीं -</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">“आगे मौत है, हरगिज़ न जाएं।“</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">एक जिद्दी स्त्री </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">अपनी बेसुधी में </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">हर शाम जाती है</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">उस जंगल में दबे पांव</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इस कविता में ये यकीन है कि एक दिन तमाम दुश्वारियों, विरोधों, नकारों के बावजूद स्वीकृति का पत्र उसके पते पर आएगा ज़रूर। जिसकी दबी-दबी चाह है इनके मन में। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सौम्या के पास कविता की सौम्य भाषा है और सौम्य प्रतिरोध है। ये ज्यादा मारक और असरकारी है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><h2>तटबंधों को तोड़ कर नया मानचित्र बनाती है पूनम सिंह की कविताएं </h2><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कथा-आलोचना-कविता के क्षेत्र में समान रुप से सक्रिय पूनम सिंह आज साहित्य जगत का जाना माना नाम हैं। बिहार के एक छोटे से, सामंती मिज़ाज के एक शहर मुजफ्फरपुर में रहने वाली पूनम सिंह को तीन द्वार ने घेर रखा है। तीन द्वारे घेरे रामा...वे किसी एक द्वार पर रुकती नहीं। वे विकल जीव हैं जिनका दिल कविताओं में धड़कता है, कथा में वे सांसे लेती हैं और आलोचना में जाकर सुस्ता लेती हैं। एक और विधा है गीत लेखन, जिसमें वे पनाह लेती हैं यदा-कदा। उनकी यह आवाजाही और यह विकलता विलक्षण भी है और बाधक भी। किसी एक द्वार को ठीक से खुलने नहीं देता। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यहां हम उनके कवि रुप पर बात करेंगे। अब तक उनके चार कविता संग्रह आ चुके हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">1. ॠतुवृक्ष - 1998 | 2. लेकिन असंभव नहीं - 2002 | 3. रेजाणी पानी - 2014 | 4. उजाड़ लोकतंत्र में - 2023</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक कवि का क्रमशः विकास देखना हो तो इन संग्रहों से गुज़रना लाज़िमी होगा। स्त्री कविता के स्वप्न, आकांक्षा और संघर्षों का ख़ाका इन संग्रहों की कविताओं में ब-ख़ूबी मिलता है। नब्बे के दशक से लेकर अभी तक की काव्य-यात्रा में उनकी चिंताओं को पकड़ा जा सकता है। समय के साथ स्त्री कविता के सुर कैसे बदले। स्त्री पहले अभिव्यक्ति के लिए संघर्ष करती है और मुक्त गान का स्वप्न देखती है। इन कविताओं में स्त्री जीवन का यथार्थ और यूटोपिया दोनों बखूबी मिलता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सदी के बदलते ही चिंताएं बदलीं। देश और समाज बदला। आज देश के राजनीतिक हालात और धार्मिक उन्माद जिस तरह समाज को संचालित कर रहे हैं, उससे कवियों का देश से मोहभंग हुआ है। सुंदर समाज का स्वप्न दिखा कर जब-जब कोई व्यवस्था विफल होती है तब तब कवियों की आस्था हिलती है। ख़ासकर प्रगतिशील मूल्यों से जुड़ी स्त्री कवियों को भी स्वप्नभंग की त्रासदी से गुज़रना पड़ा है। इक्कीसवीं शताब्दी वैसे भी स्वप्नभंग की शताब्दी साबित होने वाली है। पिछले कुछ समय में स्त्री कविता का स्वर भी बदला है और उनकी लड़ाई दोहरी हो गई। वे पितृसत्ता से पहले लड़ती रहीं और उसके बाद वे देश, समाज के बिगड़ते हालात को लेकर कविता के जरिये प्रतिरोध जताना शुरु किया। कविता हो या कोई साहित्य की कोई विधा, वह जनतांत्रिक मूल्यों से जुड़ी होती है। उसका क्षय जब-जब होगा, कविता का सुर बदलेगा। स्त्री कविता भी जनता के दमन और शोषण के विरुद्ध अपना मुंह खोलेगी। इस दौर की स्त्री कवियों को पढ़िए तो इस बात की पुष्टि होगी। पूनम सिंह उन्हीं कवियों में से एक हैं जिन्होंने कविता के जरिये प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद किया है। उनके संघर्ष के सुर बदल गए। जहां वे पहले लिखती हैं –- </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">देखो, मेरी लहूलुहान हथेलियों को </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">बंजर तोड़ने की जिद के साथ </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">वर्षों से कूट रही हैं </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">पथरीली भूमि</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इसके साथ ही पूनम सिंह की ही कई जनतांत्रिक मूल्यों की कविताएं देखी जा सकती हैं, जैसे शाहीनबाग की औरतें, इरोम शर्मिला, तुम उदास क्यों हो, युद्ध और कविता जैसी अनेक कविताएं जो अपने समय में सार्थक हस्तक्षेप करती हैं। जब देश का मसला आता है तो कवि की चिंता बदल जाती है। वह स्व से ऊपर उठ कर समूचे समुदाय के सुख-दुख से जुड़ जाती हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वे लिखती हैं- </div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">शाहीनबाग की औरतें महज औरतें नहीं </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">एक समूचा कालखंड हैं</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">बहुविध शैलियों में</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">अघोषित दिक्काल का</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">समय सुन रहा है जिसकी पदचापें</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">राजपथ महसूस कर रहा है</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जिसकी धमक अपने सीने पर।</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ठीक इसके पहले उनकी चिंता कुछ और थी। उनके संघर्ष का सुर कुछ और था। मर्दवादी कुंठाओं से टकराती हुई सचेतन स्त्री कवि का अपने अस्तित्व के प्रति हुंकार सुनिए— </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">शब्द सार्थक भले न हों</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">ध्वनि कभी निरर्थक नहीं होती</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">मैं वही ध्वनि हूं</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">तुम हरगिज़ </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">हरगिज़ नहीं </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">नकार सकते मुझे।</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">या स्त्री अधीनता को कटघरे में खड़ा करती हुई कहती हैं— </div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जेठ की दोपहर में </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">तुम्हें प्यार करते हुए </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">जब मैं नदी हो जाती हूं</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">मुझे नहीं मालूम </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">रेत में धंसी मछलियों की पथरीली आंखें </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">क्यों याद आती हैं </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">दुर्वह हो जाता है </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">मेरे लिए </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">तुम्हारी बांहों का तटबंध।</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ग़ुलाम बना लेने वाली बांहों को जहां स्त्रीवाद नागपाश कहता है, पूनम सिंह अलग बिंब लेकर उपस्थित होती हैं, तटबंध। नदी के प्रवाह को बांधने, घेरने, रोकने वाला तटबंध। तटबंध का दुख नदियां जानती हैं। मछली और नदी हमेशा स्त्री का रूपक रही है। भारतीय समाज कभी स्वतंत्र स्त्री की अस्मिता को अलग करके नहीं देख पाता। उसे पुरुष की विराट छाया में विलीन कर देता है। जबकि किसी सचेतन स्त्री के लिए सबसे ख़राब बात है—उसकी अपनी पहचान का गुम हो जाना। स्त्री-कविता ने इस पर ख़ूब कलम चलाई है। यहां भी कवि इस तटबंध को, सारी हदबंदियों को तोड़ कर बाहर निकलती हैं तब देश काल की चिंताओं से जुड़ जाती हैं। उनकी चिंताएं अब वैश्विक हैं। वैसे भी लेखक एक वैश्विक नागरिक होता है। वे जानती हैं कि दो देशों के बीच युद्ध में सबसे ज्यादा कौन मारा जाता है। युद्ध की विभीषिका किसे लील जाती है। रुस और यूक्रेन के बीच जो युद्ध चल रहा है, वो भी हर सचेत, संवेदनशील नागरिक की चिंता का विषय है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उस पर वे लिखती हैं—</div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">देश मिसाइलों बम गोलो के बीच </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">एक बच्चा खिलखिलाता भागता है</span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">तितलियों के पीछे </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">तानाशाह की बलिष्ठ भुजाएं </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">घेरती हैं दिशाओं को </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">देश दुनिया में गूंज उठता है </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="background-color: #eeeeee;">युद्ध का सायरन</span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पूनम सिंह की इस कविता में युद्ध रोकने के लिए मार्मिक अपील सुनाई देगी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यही अपील किसान आंदोलन के समय भी करती हैं। अब स्त्री कविता अपने निजी लड़ाईयों और दुखों से बाहर आ चुकी है। उनकी कविता का वितान बहुत बड़ा, विराट और क्षेत्रफल व्यापक हो चुका है। स्त्री अधीनता की दास्तान से कुछ कदम आगे बढ़ कर वे वैश्विक चिंताओं से जूझ रही हैं। स्त्री कविता ने हर एक क्षेत्र में प्रवेश करके कलम चलाई। स्त्री कविता पर सीमित दायरे, सीमित अनुभव संसार का जो आरोप लगता था, उस अवधारणा को झटके से तोड़ कर वे बाहर निकलीं और अपनी कविताओं से आलोचकों को करारा जवाब दिया है। सच कहें तो स्त्री-द्वेषी समय और समाज में समानता का बिगुल बजा दिया है। मर्दवादी व्यवस्था को चुनौती देती हुई, अपने समय के सरोकारों को चिह्नित कर रही हैं। अब वे प्रार्थना के शिल्प में नहीं, हुंकार की भाषा में बात करती हैं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ख़ासकर बिहार में रहने वाली अन्य कवि वीणा अमृत, स्मिता वाजपेयी, ज्योति स्पर्श, साजीना राहत (अब दिवंगत) हो या बिहार से बाहर रह कर कविता कर्म में जुटी अनामिका, सविता सिंह, सुमन केशरी, रंजीता सिंह, मंजरी श्रीवास्तव, स्मिता सिन्हा, रश्मि भारद्वाज हों, इन सबने कविता में अपना अलग मुहावरा गढ़ा है और पुरुषों के गढ़ में सेंध लगा दिया है। स्त्री कविता ने अलग किस्म की स्त्री-भाषा का आविष्कार किया है, नयी कूट भाषा गढ़ी हैं, अलग संवेदना लेकर आई है जो पूर्ववर्ती लेखन से बिल्कुल अलग है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यहां आलोचक <b>हिमांशु पंडया</b> के एक आलेख की एक पंक्ति याद आती है – </div><blockquote><div itemprop="articleBody">हां, गोबर अब भी वे पाथती हैं, पर ज़रूरत पड़ने पर पितृसत्ता के चेहरे पर गोबर लीप देती हैं।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">(आलोचना पत्रिका, अप्रैल-जून अंक-2022) </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दरअसल इक्कीसवीं शताब्दी में हिंदी कविता ने जो प्रतिपक्ष तैयार किया है, उसके साथ स्त्री कविता चलती है। वह अपने समय के यथार्थ को बेहद तल्ख़ी के साथ दर्ज कर रही हैं। ये भी सच है कि उनकी चिंताएं, उनकी लड़ाईयां आज भी दोहरे स्तर पर चलती है।</div><div><br /></div></div>
<div style="text-align: right;">
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br />
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
००००००००००००००००</div>
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-64994567857942829552023-08-07T16:13:00.002+05:302023-08-09T11:22:03.848+05:30बिफिया उर्फ़ लव जिहाद का ग्रह वृहस्पत - पंखुरी सिन्हा की कहानी | Pankhuri Sinha Ki Kahani<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>पंखुरी सिन्हा कवि तो अच्छी हैं ही एक अच्छी कहानीकार भी बन गई हैं। पढ़िए 'बिफिया उर्फ़ लव जिहाद का ग्रह वृहस्पत' मधुर आंचलिक भाषा और सुंदर दृश्यों से सजी पंखुरी की बिल्कुल नई कहानी, प्रेम कहानी ! ~ सं० </div><div><br /></div><span><a name='more'></a></span><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQR5Z0ULkfLK1_gH2_10ScNjUYdWioAEchJN2QvpBFaIKICTbz20flJ7W6ohtc3ql954dq5KMtG8o0X1KYv9IWEo5Z09rArjSElsJjmmCJe7J6bsxTSj0alOLFPq_YUoo0EoWRO-8fYZS1rcRPuEOBfv5DWz3_-aljXs9urZiz7OZARXJy-X7xSF61GN0U/s903/shabdankan%20Pankhuri%20Sinha%20Ki%20Kahani.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQR5Z0ULkfLK1_gH2_10ScNjUYdWioAEchJN2QvpBFaIKICTbz20flJ7W6ohtc3ql954dq5KMtG8o0X1KYv9IWEo5Z09rArjSElsJjmmCJe7J6bsxTSj0alOLFPq_YUoo0EoWRO-8fYZS1rcRPuEOBfv5DWz3_-aljXs9urZiz7OZARXJy-X7xSF61GN0U/s16000/shabdankan%20Pankhuri%20Sinha%20Ki%20Kahani.jpg" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><div><br /></div><h1 itemprop="headline">
बिफिया उर्फ़ लव जिहाद का ग्रह वृहस्पत</h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">~ पंखुरी सिन्हा</h2>
<div 11px="" font-size:=""><span style="font-size: 11px; line-height: 12px;">दो हिंदी कथा संग्रह ज्ञानपीठ से, 6 हिंदी कविता संग्रह, दो अंग्रेजी कविता संग्रह। <b>पुरस्कार </b>- सी वी रमन विज्ञानं कथा प्रतियोगिता 2022 में पहला पुरस्कार, कविता के लिए राजस्थान पत्रिका का 2016 का पहला पुरस्कार, कुमुद टिक्कू कथा पुरस्कार 2020, मथुरा कुमार गुंजन स्मृति पुरस्कार 2019, प्रतिलिपि कविता सम्मान 2018, राजीव गाँधी एक्सीलेंस अवार्ड 2013, पहले कहानी संग्रह, 'कोई भी दिन' को 2007 का चित्रा कुमार शैलेश मटियानी सम्मान, 'कोबरा: गॉड ऐट मर्सी', डाक्यूमेंट्री का स्क्रिप्ट लेखन, जिसे 1998-99 के यू जी सी, फिल्म महोत्सव में, सर्व श्रेष्ठ फिल्म का खिताब मिला, 'एक नया मौन, एक नया उद्घोष', कविता पर,1995 का गिरिजा कुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, 1993 में, CBSE बोर्ड, कक्षा बारहवीं में, हिंदी में सर्वोच्च अंक पाने के लिए, भारत गौरव सम्मान. अंग्रेजी लेखन के लिए रूस, रोमानिया, इटली, अल्बेनिया और नाइजीरिया, द्वारा सम्मानित, जिसमें चेखोव महोत्सव, याल्टा, क्रीमिया में कविता-कहानी दोनो को मिले पुरस्कार, और इटली में प्रेमियो बेसियो स्पैशल जूरी अवार्ड विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं! अभी अभी, इटली की एक कविता प्रतियोगिता में चौथे कविता संग्रह 'ओसिल सुबहें' की एक कविता द्वितीय पुरस्कार से सम्मानित. कविताओं का देश और दुनिया की चौबीस से अधिक भाषाओँ में अनुवाद हो चुका है. हंगरी और बुल्गारिया में राइटर इन रेजीडेंस रह चुकी हैं! स्वीडन के ट्रानस साहित्य महोत्सव २०२२ में कविता पाठ और साक्षात्कार के साथ शामिल। </span></div><div 11px="" font-size:=""><span style="font-size: 11px; line-height: 11px;">ए-204, प्रकृति अपार्टमेंट, सेक्टर 6, प्लॉट नंबर 26, द्वारका, नई दिल्ली 110075 | </span><span style="font-size: 11px;">nilirag18@gmail.com</span></div>
<div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सबसे सुख से ब्याही बहन सनीचरी ही थी। जबकि शनि महाराज आसानी से प्रसन्न होने वाले ग्रह नहीं थे। लेकिन, सन्निच्चर को जनमी सनीचरी परम तृप्त थी ससुराल में। जी हाँ, वे छे बहनें थीं और सप्ताह के छेओ दिनों पर उनकी दादी द्वारा उनके नाम रखे गए थे, यही बताया जाता था। इस तरह, सनीचरी के बाद एतबरिया, सोमरिया, मंगली, बिफिया और सुकरी। भाई बुधना बुध को जनमा था। जनम और नामकरण का इतना सुन्दर संयोग गांव भर में और किसी परिवार में नहीं था। गाँव भर के लोग कहते ये अलग अलग दिन जनम का किस्सा उनका मनगढंत था जिसपर सातों भाई बहन आजी कसम खा कर कहते कि बिल्कुल सच्चा था। आजी यानि दादी, जिसे वे कभी दाई कहते, कभी आजी। बच्चों का आजी प्रेम बहुत मशहूर था। वे अक्सर अपने दूरा दालान, खेत पथार में क्या, रस्ते पैंरे चिचिआते हुए सुनाई दे जाते, 'गे आजीssssss! अजिया गे!’ लड़कपन की यह आदत वयस्क होने पर भी बनी रही थी। अजिया भी अति वृद्धावस्था में खेतों की मुंडेरों पर चलती हुई समूचे गाँव की पहरेदारी करती।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दरअसल, इस वज्जिकांचल में दाई को आजी कहने का रिवाज़ नहीं था लेकिन बच्चों की माँ बेगूसराय जिले से आती थी और दाई को इस तरह पुकारने का सलीका उसी ने सिखाया था। बच्चों की माँ उनके बचपन में ही गुज़र गयी थीं। बुढ़िया आजी का बेटा शहर गया था मजूरी खटने। घर आया तो लौटते में मेहरारू को साथ ले गया शहर दिखाने कि आगे पूरे परिवार को ले जाएगा। स्कूल में पढ़ायेगा। लेकिन, लौट ही नहीं सके वे दोनों। ठीक रेलवे स्टेशन के सामने हुआ था एक्सीडेंट। हाथ पकड़ कर सड़क पार करते में ऐसी टक्कर मारी मोटर गाड़ी ने कि वहीँ शहीद हो गए। बच्चों की आजी ने जब बेटे के ढ़ेर होने की खबर सुनी थी तो बेहोश हो कर गिर गयी थी। वह उसका इकलौता बेटा था। एक बेटी और थी जो पास के गांव में ब्याही थी। जब होश आया तब नाती पोते उसकी सेवा कर रहे थे। बेटी अपने धिया पूता के साथ दो दिनों के बाद अपने घर रवाना हो गयी। रह गईं आजी की छः नन्हीं पोतियां और एक उनसे भी छोटा बुधना पोता। उनका हाथ पकड़ कर और उन्हीं की खातिर, बुढ़िया आजी जो उठ खड़ी हुई तो फिर उसने दुबारा खाट नहीं पकड़ी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बच्चे बड़े हो गए। लेकिन बुधना को उसने गांव से बाहर नहीं जाने दिया। शहर की फैक्ट्री तो बिल्कुल नहीं। जाति से वे कुर्मी थे। वही जिन्हें कुछ लोग कोइरी भी कहते थे। अब तो उस जाति का मनिस्टर भी बन गया था। फिर भी नहीं। मनिस्टर अपने दफ्तर में और लेबर अपनी झोपड़ियां में। थोड़ी-सी उनकी ज़मीन थी। बाकी बटैइया लेकर खेती करने लगा बुधना। खूब मिहनत करता। ढ़ेर उपजाता। साल भर खाता और ईमान का हिस्सा मालिक लोगन को दे देता। बचता तो बेच भी आता मंडी में। लेकिन, गांव ही की मंडी में। बुढ़िया आजी को शक था कि गरह की पूजा वाले नाम धरने और फिर उन बच्चों के लिए ऊँचा ख्वाब देखने के कारण गांव ही के बाभन, भुइंहार, राजपूत लोगन ने मिलकर हत्या करवा दी उसके बेटे की शहर में।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">तब से बहुत बदल गया था ज़माना। गांव में बँटैया करने वाले कुछ मल्लाह और तेली कोदारी से बाबू लोगन की धीरे धीरे ज़मीन काट रहे थे। इसी तना तनी में गाँव में पहला दलित वध भी हुआ था। उसके बाद कुछ दिन शान्ति रही और फिर वही हाल। शायद समय ही संग्राम का आ चुका था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">समूचे गांव को न्योत कर, धूम धाम से भोज करा कर, बारातियों की न्योता पेरान्हि करते हुए बुढ़िया आजी ने छेओ पोतियों को ब्याह दिया। बिलउकी मांगती दुल्हन के साथ ढोल तो ढोल, पिपही बजाने वाला भी साथ गया बाबू लोगन की बस्ती में। बिरादरी के बच्चों ने छककर पूड़ी जलेबी खाई। साथ ही, सब्ज़ी और दही चीनी का भी लुत्फ़ उठाया। जब छेओ निपट गयीं तो बुढ़िया आजी बुधने को ब्याह कर बहू भी ले आयी घर। ये महीने भर में ही साफ़ हो गया कि बहू को आजी बलाय लगने लगी। लेकिन आजी ने भी तय कर लिया था कि घर में और नगाड़े नहीं बजवायेगी सो पर-पुतोह के उपेक्षा भरे व्यवहार को स्वीकार किया और उसके दिए पर गुज़र बसर करने लगी। एकदम बचा खुचा देने की गुंजाइश नहीं थी क्योंकि बुध कुमार अपनी आजी के साथ ही खाते थे और ये नियम उन्होंने नहीं बदला। आजी जानती थी प्यार से दिए भोजन का स्वाद अलग होता है। लेकिन, दुनिया में सब कुछ नहीं मिलता। एक का प्यार ही बहुत आसरा था जीने के लिए। जल्दी ही, बहु ने दो बच्चे जने। एक बेटा और एक बेटी के बाद उन्होंने छोटा परिवार सुखी परिवार का नारा बुलंद करने की ठानी और दोनों बच्चों की परवरिश में लग गए। उन दिनों गांव में स्वास्थ्य केंद्र के साथ साथ, स्कूल भी खुल गया था जहाँ पढ़ाई भी हो रही थी। बुढ़िया आजी पोते पोतियों के साथ धन्य धन्य बुढ़ापा गुज़ार रही थी। उसके अपने पति दो बच्चों के बाद सांप काटने से मर गए थे लेकिन यह गरहों की कृपा थी कि वह पर पोते पर पोती का सुख उठा रही थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सब ठीक था कि तभी बिफिया ससुराल से लौट आयी। पहले तो लोग उसे अचानक और अकेले देख कर ठिठके, फिर चकित मुस्कानों के साथ दुआ सलाम कर हाल चाल पूछा। सब ठीक है, बिफिया ने कहा, बस आजी के लिए मन घबरा रहा था। "क्यों रे, कोई बुरा सपना देखा क्या?" कहकर आजी ने उसे गले लगा लिया तो बिफिया फूट फूट कर रोने लगी। मायके की याद किसे नहीं आती? लेकिन, धीरे धीरे यह बात खुल गयी कि बिफिया वापस ससुराल जाना ही नहीं चाहती। दो टूक कह दिया अब नहीं जायेगी। सास इतनी निखोराह है कि हर सब्ज़ी या तो पहले या देर से तोड़ी हुई लगती है। बतिया नहीं तो जुआएल! छिल्का मोटा, बीज कड़े, या फिर गूदा कम, अज्जू अज्जू, ये रोज़ की सब्ज़ी की शिकायत होती, जिसपर पति उसे धुनता। पांच साल झेल ली धुनाई उसने, अब और नहीं। इन पांच सालों में प्यार के दो बोल तो छोड़ो, किसी ने नर्मी से बात नहीं की उससे। अपना कमाएगी, अपना खायेगी। किसी पर बोझ नहीं बनेगी बिफिया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इतना कहने पर भी भाभी को संतोष नहीं हुआ, उसने ननद को ताने मारे, तो अलग हो गया बिफिया और आजी का चूल्हा! लेकिन ज़्यादा दिन चला नहीं यह साझा चूल्हा। लोगों ने कहा बिफिया के गम में आजी जल्दी मर गयी। आजी के बाद, भौजाई के ताने बढ़ गए। बुधना के आगे तो नहीं, लेकिन पीछे में कोई कसर नहीं छोड़ती। जबकि खेतिहर मज़दूरों की मांग बहुत थी। घरों में भी काम करने वालियों की ज़रूरत। बिफिया इतनी थकी होती, खाना जुटाती, पकाती, खाती और सो जाती। सोचती चार पैसे इकट्ठे हों तो अपनी छत भी अलग कर ले।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">शकूर अली भी लोगों के खेतों में मज़दूरी करते थे। जिस खेत में बिफिया काम करती थी, उसी के ठीक बगल वाले खेत में! मालिक भी एक! एक दिन बिफिया देखती क्या है कि सूखी घास उखाड़ते हुए अली शकूर मियां उसे देखे जा रहे हैं। मतलब, ताक रहे हैं तो बस ताक रहे हैं! एकटक! मतलब मुस्कान उनके होठों से चलकर आँखों के पोरों तक बिछल रही है। पहले तो बिफिया को गुस्सा आया बहुत, फिर एक हरियाली की-सी लहर, सूखी घास उखाड़ते उसके हाथों के पास से ऊपर की ओर दौड़ी और कलेजे तक पहुँच कर, लगी फूलों का गुच्छा बन दिल पर लोटने! लेकिन अगले ही पल बिफिया के मुंह से हुंह की आवाज़ निकली, फूलों को उसने उसी बेरहमी से उखाड़ फेंका, जिससे अपने सारे अरमानों का गला उसे खुद घोंटने की आदत पड़ चुकी थी और लगी दूसरी तरफ मुंह कर दुगने वेग से घास उखाड़ने! पेट में चूहे कूद रहे हों तो क्या ख़ाक खिलेंगे दिल में फूल! ज़माना हो गया, बिफिया ने दिन में दो बार से ज़्यादा न खाया और खाया तो क्या? कभी खिचड़ी, कभी चार टुकड़े भाजी के साथ सूखी रोटियां! उगाने को ज़मीन मिले तो बिफिया सब्ज़ियों की टाल लगा दे! हुंह! दुबारा झुंझलाहट में मुंह बिचकाया बिफिया ने! उसके नसीब में औरों के खेतों में खटने के अलावा और लिखा क्या है?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लेकिन शकूर मियां भी धुन के पक्के! खेत बदलकर जा बैठे बिफिया के सामने! बिफिया ने देखा, औरों ने भी देखा, शकूर मियाँ बिफिया को देखे जा रहे हैं। एक दो दिनों तक बिफिया के मुंह फेरने, पीठ दिखाने और शकूर मियां के बार बार उसके आगे आने का सिलसिला जारी रहा। सब देख रहे थे। लेकिन, उन दिनों सब आँखें कम कान ज़्यादा हो गए थे। शकूर मियां जनम से खेत खट रहे थे। राम टहल जी अभी अभी छे लम्बे महीने लगातार आसाम खट कमाकर लौटे थे। किस्सों का पिटारा लिए! आसाम में गजब बातें हो रहीं थीं, नदी किनारे! रोज़ शाम मंदिर के पास वाले पीपल के नीचे चौपाल जुटती। राम टहल जी किस्से सुनाते, लोग आँखें फाड़े सुनते।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“गाय बहा देते हैं नदी की धारा में!”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">राम टहल जी आँखें बड़ी बड़ी कर, हाथ के इशारों के साथ कहते, और लोग भौंचक सुनते!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“भला गाय-सी संपत्ति को कोई बहायेगा क्यों?” लोग समझ बूझ नहीं पाते!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"अरे, मांस खाने के लिए और क्या? उधेड़ने के लिए चमड़ी! बनाने के लिए चप्पल, बैग और क्या फैशन के सामान, गो-माता की देह से!"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">खुलासा करते राम टहल जी!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"ये गाय की तस्करी है, चोरी भी! कोई अपनी गाय थोड़ी बहा रहे!"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"आह! गो माता को इतना कष्ट!" बूढ़े मुखिया बोल उठे!”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">फिर तो लोगों के दिलो दिमाग पर यही बात चढ़ गयी। खेतों में काम करते वे अपने आगे देख कुछ भी रहे हों, उनके ख्यालों में बहती हुई गाय होती।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अव्वल तो रामटहल जी ने बताया कि ठीक सरहद के पास एक ऐसी जगह है, जहाँ क्रेन से गाय को उठाकर, मतलब शरीर का कोई भी हिस्सा उठाकर, फेंकते हैं, जाने सरहद पार या किसी ख़ुफ़िया जगह! फिर जानवर का जो हो! हड्डी टूटे, घिसटे, दर्द से चीखे, रोये बिलबिलाये, जब तक जान नहीं जाए!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">शकूर मियां का तो पूरा खानदान गायों की सेवा में लगा था। गाँव का एकमात्र मुसलमान परिवार जिसकी खटाल थी, जो दूध बेचने का काम करता था। यों ग्वालों की कमी नहीं थी और कुछ ग्वारिये बगल के गाँव से भी आकर दूध बेचते पर शकूर मियां के घर वाली खटाल के दूध का कोई जवाब न होता। वैसे तो शकूर मियाँ का पुश्तैनी कारोबार, मुर्गियों के अण्डों का था, फिर मुर्गियों का हुआ, लेकिन एक दिन किसी ने कह दिया 'अमा यार, बस नमकीन नमकीन ही बेचते रहोगे कि कभी कुछ मीठा भी खिलाओगे, पिलाओगे?' तो मियां शकूर के किसी बाप दादे ने न केवल गाय खरीद ली बल्कि चाय की टपरी खोल ली और गिलौटी कबाब बेचने लगे! हाई वे की इस टपरी से, खानदान का वह परिवार मालामाल हो गया। अलबत्ता, मियां शकूर को इतनी नेमत ज़रूर मिली कि कभी टपरी पर मुफ्त के कबाब खा आते, कभी खटाल वाले चाचा के यहाँ दूध पी लेते! उनके हिस्से न खेत थे, न खटाल थी, न टपरी!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हो क्यों नहीं सकता? मियां शकूर के भाई के हिस्से भी तीनों में से कुछ नहीं था। भाई की पत्नी जब शकूर के लिए, एक रोटी भी बेलती तो बिना दस गालियां निकाले नहीं! नतीजतन, मियां शकूर घर पर सोने के अलावा, कम से कम वक़्त बिताते। गाँव में बैठने के लिए जगह की कमी न होती, और फिर उन्हें इधर उधर डोलना भी बहुत पसंद था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ऐसे ही, एक दिन डोलते हुए वो उठे और पीठ फेरे, खेत से घास गढ़ती बिफिया के आगे उन्होंने दिल की पोटली खोल दी! गिलौटी कबाब की खुशबू, जाने कहाँ से कहाँ तक पहुंची, और कुछ देर तक बिफिया ने डट कर ना नुकुर की, लेकिन, फिर सब ने देखा कि शकूर मियां, हंस हंस कर बातें कर रहे हैं और बिफिया दनादन ऐसे खा रही है कि जैसे भोज के पकवान!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वैसे लोग इन दिनों, आसाम के किस्सों में मशगूल थे। खेतों पर काम करने के अलावा, उन्हें राम टहल जी के किस्सों में घट रही घटनाओं पर चर्चा करने से फुर्सत न थी। रोटी खाने का वक़्त होता तो सब मेड़ों से दूर, कुँयें की जगत पर मिल बैठते। अपना दुःख दर्द बाँटते या राम टहल जी के किस्से! बहुत-सी स्त्रियां कहाँ जा पातीं थीं, रामटहल जी की चौपाल पर? वे सब फटी आँखों से सुनतीं!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इस सब के बावजूद, लोगों ने गौर किया कि शकूर मियां रोज़ खींसे निपोड़ बोलते रहते हैं और बिफिया गबा गब ऐसे खाती है कि जैसे छप्पन व्यंजन जीवन में पहली बार! कहीं यह, शकूर के चाचा के कबाब तो नहीं उड़ा रही? लोगों के ज़ेहन में सवाल कौंधा, और साथ ही उन्होंने देखा कि बिफिया तो हंस हंस कर दुहरी हुई जाती है, मानों गिर पड़ेगी और शकूर मियां ऐसे झुके जाते हैं मानों वह गिरे और वह उठाये!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">फटी की फटी रह गयीं लोगों की आँखें और वो कुछ पूछते, इससे पहले, दोनों संभल कर अलग हुए और ऐसे खेत में काम करने लगे, जैसे एक दूसरे को जानते ही न हों!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अगली सुबह, गाँव में खबर आग की तरह फैली कि बिफिया शकूर के साथ भाग गयी!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"> 'ऐ! भाग गयी?' '</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">'कब?' 'कैसे?'</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"> 'पकड़ो!'</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">'अब क्या पकड़ो, जब चिड़िया चुग गयी खेत!'</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सारा गाँव उन्हें पकड़ने को व्याकुल हो उठा, जैसे उनके अपने लड़के लड़की भागे हों और वो भी रूपये पैसे उठाकर!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘अरे कोई तुम्हारे अपने बाल बच्चे हैं जो पकड़ोगे, तीस साल की बुढ़िया चालीस के बूढ़े के साथ भागी है, उन्हें पकड़ना अपना हाथ गन्दा करना है।’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक ने कहा तो 'गाँव का नाक कटा दिया दोनों ने!' दूसरे ने कहा! फिर, सब सहमत हो गए कि 'गाँव का नाक कटा दिया दोनों ने!' और पूरा गाँव मुजरिमों की भाँति उन्हें पकड़ने को व्याकुल हो उठा!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">'अरे! भागना ही था, तो अपने अपने धरम वालों के साथ भागते, ये तो हमारे मुंह पर कालिख पोतने वाली बात हुई!' सब तैश में आये।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">'ऐसे नहीं होगा। पुलिस में कम्प्लेन करो!'</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">'अरे तुम कौन होते हो, पुलिस में कम्प्लेन करने वाले? उसके भाई को कहो'</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">और भाई को राज़ी कर लिया गया। जो भौजाई, बिफिया को झाड़ू से मारने को तत्पर रहती, वह गाँव क्या अपने घर की इज़्ज़त की नीलामी पर, मूसल उठा कर खड़ी हो गयी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मामला थाने पहुंचा तो, लेकिन रफ़ा दफ़ा हो गया। 'भागने वाले बालिग़ नहीं पूरे वयस्क हैं, हम क्या कर सकते हैं? अपनी मर्ज़ी से गए हैं। हमारे पास बहुत काम हैं, हमारा वक़्त न ज़ाया करो!' थानेदार ने टाँगे टेबल पर चढ़ाई और पुलिस फ़ोर्स ने हाथ धो लिया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लेकिन, गाँव वाले इतनी आसानी से मानने वाले न थे! किसी को खूब सूझी कि दोनों ब्याहता हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘ब्याहता हों तो रहें, हम तो कुछ तब कर सकते हैं, जब उनके आदमी या औरत शिकायत करें। हमें क्या मालूम उनके आदमी या औरत ने दूसरा घर न बसा लिया हो?’ थानेदार जो भगोड़ों के पक्ष में अड़ा, तो गाँव वालों को धमकी भी दे बैठा, 'अब अगर थाने का वक़्त ख़राब किया तो तुम्हें सज़ा होगी!' फिर जाने क्या सोच कर पलटा और बोला, 'क़ानून , क़ानून के हिसाब से चलता है, तुम्हारे हिसाब से नहीं! क़ानून अपने हाथ में लेने की कोशिश मत करना!'</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">थाने का दरवाज़ा तो बंद हो गया लेकिन गाँव वालों का गुस्सा परवान चढ़ गया। आखिर, थानेदार कौन होता है गाँव की इज़्ज़त का मामला सलटाने वाला? आज यहाँ, तो कल वहां! उसे भला गाँव से क्या मतलब?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गाँव वालों के मन में खौलते पानी-सा उबाल और उफान!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आखिर, गाँव उनका, इज़्ज़त उनकी, नाक उनकी, जो यों बैठे बिठाये कट गयी! सिपाही का क्या गया भला?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आज बिफिया भागी, कल अगर हमारी बेटी भाग गयी तो?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यही राय मशविरा चल रहा था कि अचानक साइकिल पर दूध के डब्बे खड़काता, तबरेज़ गुज़रता दिखाई दिया!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">'साला, भाई हमारी बेटी भगा ले गया, और ये साला हमें ही दूध बेच रहा है! चोट्टा कहीं का!'</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">'मारो साले को!'</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पलक झपकते, तबरेज़ साइकिल से नीचे ज़मीन पर, और घिरा हुआ पूरी तरह! चेहरे पर हवाइयां उड़ती हुईं!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">'अरे! शकूर तुम्हारी लड़की भगा ले गया, इसमें मेरा क्या कसूर? मेरी तो उससे, दिनों क्या, हफ़्तों से बात तक न हुई! हमारा तो चूल्हा तक नहीं जलता साथ!'</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक ज़बरदस्त घूँसा उसके पेट पर पड़ा और वह दर्द से दुहरा हो गया। "अबे साले, बताते हैं तुझे, कहाँ जलता है तुम सब का सांझा चूल्हा! साले, सड़क किनारे जाने कौन कौन-सा मांस बेचता है, कबाब में तलकर? कहीं हमारी गौ माता को तो नहीं बेच रहा? सारी गुज़रती हुई दुनिया को कबाब बनाकर, हमारी माँ को तो नहीं परोस रहा? बोल साले! हमें अव्वल दर्ज़े का बेवकूफ समझा है! हमें ही गरज पड़ी है, चलती फिरती दुनिया को रोक रोक कर कबाब खिलाने की? और मुनाफा कमाए तुम्हारा खानदान! अबे साले, हमारी बहन को कबाब खिलवाकर, बरगलाया कि नहीं? बोल कुत्ते, नहीं तो खाल खींच कर भूसा भरवा दूंगा! आज तेरी खैरियत नहीं है बोल!"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यह गाँव के ठाकुर का लड़का था, जो पहलवानी और कुश्ती के नाम पर गुंडा गिरी किया करता था। सुबह उठते ही, अखाड़े में पहुंचकर दंड बैठक, व्यायाम और बस चले तो पूरे गाँव पर लगाम! आज उसे मौका मिला था। अनुशासन के नाम पर गाँव का पुराना ज़मींदार बन गया था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आक्रोश से भी अधिक, नफ़रत भरे इन शब्दों के साथ लगातार, पीठ के बल औंधे पड़े तबरेज़ पर, वह अपनी लात से प्रहार कर रहा था। उसके शब्दों ने, उसके साथ इकट्ठी भीड़ को भी इतना उन्मत्त, उतावला बना दिया था कि आव न ताव, सारे के सारे लोग अपने पैरों से तबरेज़ को रुई-सा धुन रहे थे। इतने से काम न चला और पहलवान को भी थकान महसूस हुई हो, उसी ने लाठी के लिए आवाज़ लगाई। पलक झपकते, हवा की राह, लाठी हाज़िर हो गयी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सारा गांव, धूप में खटता, बैंक में अपने अंगूठे का निशान लगाने की लम्बी लाइन में खड़ा प्रतीक्षा करता, शहर की बस में धक्के खाता, जनेरा बोता-काटता, एक नया तमाशा देखने के लिए हाज़िर होने लगा। सबने अपने अपने लिए छाँव की जगह तलाश ली, कहीं दूर, कहीं पास।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इस गाँव में, कितना समय हुआ, किसी सर्कस को आये, किसी मेला को तम्बू लगाए! इस गाँव में निजी उत्सवों और शोक पर्वों के अलावा दो ही घटनाएं घटीं हैं, बाढ़ और सूखे की। इस साल, जेठ आधा बीत चुका है और पानी की एक बूँद, इस गाँव की धरती पर नहीं गिरी। लोगों का पारा ऐसे ही सातवें आसमान पर है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">धैर्य पसीने की तरह, बेकार ज़ाया हो रहा है। जिनकी बोरिंग नहीं है, उनकी रातों की नींद हराम है। धान रोपे खेत में दरारें हैं। रातों की नींद हराम है। जी करता है सल्फास की टिकिया खाकर सो रहें। किन्तु, तबरेज़ पर तो सबसे पहले अपना गुस्सा निकालने वाले ठाकुर की तो कबसे बोरिंग चल रही। वहां जुटे औरों की भी। खींच ले रहे धरती का सारा पानी। उन्हीं के खेतिहर मज़दूर भी जुटे हैं, क्या अपना धरम करम, ईमान बेच आये बाज़ार में? क्या ठाकुर ने कोई लगान माफ़ किया है गुप चुप? कहीं पैसों का वादा तो नहीं किया? लोगों के चेहरों पर अजीब सवाल टंग गए।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लाठी जब पड़ी और तबरेज़ की चीत्कार उठी, स्त्रियों ने आँचल से अपना मुंह ढंक लिया। एक बच्चा रोने लगा। उसका रोना सुनकर दूसरे बच्चे रोने लगे। गाँव में एक अजीब-सा कुहराम मच गया। हो हल्ला सुनकर गांव की सरहद पर बनी एकमात्र पाठशाला का सबसे जवान मास्टर, जो पड़ोस के गांव से साइकिल चला कर आता था और अक्सर तबरेज़ और शकूर मियां के चाचा के ढाबे से लौटते में पूरे परिवार के लिए कबाब पैक करवा कर ले जाता था, जितनी तेज़ी से साइकिल चलाकर आ सकता था, घटना स्थल पर पहुँच गया। उसी समय, किसी तरह खबर पाकर, रामटहल जी भी हाँफते दौड़ते पहुँच गए। उन दोनों के पास, अवाक होने का भी समय न था। हिंसा पर उतारू उस घेराव को चीरते हुए, वे किसी तरह लहूलुहान तबरेज़ तक पहुंचे, और उसपर होने वाले वार को रोकने का उपक्रम करने लगे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्या कर रहे हो? अपने गांव के भाई को मार रहे हो? क्यों?”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“जेल जाओगे सब! जब तक बिफिया यहाँ थी, उसे दो जून की रोटी देना किसी को गवारा न था और अब प्रेमी के साथ भाग गयी है तो प्रेमी के भाई को मार डालोगे?”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“भगवान् का डर नहीं, तो क़ानून से डरो! गाय की सेवा करने के बदले आदमी की हत्या करने लगे तुम?”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दोनों ने अचानक, न जाने कहाँ से गूँज उठे, 'जय श्री राम' के नारे के ऊपर, अपनी आवाज़ के तर्क को बुलंद किया और तबरेज़ पर पड़ती लाठियों और लातों की बौछार को हाथ और लात से रोकते, तबरेज़ पर गिर पड़े।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इस बीच, मास्टर ने बिफिया के भाई को दो तमाचे रसीद किये, "यह कहते कि जेल जाओगे सबसे पहले तुम। बहन के नाम पर इतना ही हुआ कि दूसरे की जान ले लो। कभी पेट भर खाना दिया उसे?"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">रामटहल जी ने ठाकुर के पहलवान बेटे पर कसकर एक धौल जमाई।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लेकिन, हिंसा जब एक बार भड़कती है, उसे थमने में वक़्त लगता है। दो चार नहीं, कम से कम दस लाठियों के प्रहार मास्टर और राम टहल जी ने खाये। लेकिन, तबरेज़ के ऊपर डटे रहे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अंततः, लातों के साथ साथ, लाठियों का प्रहार भी रुका।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पुलिस आयी, गिरफ्तारियां हुईं। अस्पताल की गाडी आई और लहूलुहान तबरेज़ के साथ साथ जख्मी मास्टर और राम टहल जी को अस्पपताल ले गयी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उस रात, बिफिया के भाई समेत अनेकों घरों में चूल्हा न जला।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गाँव में पहली बार प्रेम हुआ था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div></div>
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<div>वरिष्ठ साहित्यकार मृदुला गर्ग ने यहाँ जो अनुभव साझा किया है वह सच में हौलनाक है। नुसरत ग्वालियारी का शेर याद आया - </div><div><div> "रात के लम्हात ख़ूनी दास्ताँ लिखते रहे</div><div> सुब्ह के अख़बार में हालात बेहतर हो गए"</div><div><br /></div><div>हमारा काम आप तक इसे लाना था, मालूम नहीं कि आप कोई प्रतिक्रिया देंगे भी... ~ सं0 </div><span><a name='more'></a></span><div><br /></div><div><br /></div></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgs9Ye0Xu8x5-knmBeQUTDwq4-l31LzhbcBC-JZbj7PlW7PVKNhLPlsJU_Nu6lXznB5PF_uVVvCV34v7Q36hdLFtX4VcPrkpX5KnmYff2ELmMhwUvThsFHVnnX24tOLWRYO88-82CmrWMuKziHU5fTWCFXAzaexaygGQl45-Y5747Qhh17OzKzDIhDDnHFW/s1280/horrible%20experince%20mridula%20garg%20shabdankan.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1280" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgs9Ye0Xu8x5-knmBeQUTDwq4-l31LzhbcBC-JZbj7PlW7PVKNhLPlsJU_Nu6lXznB5PF_uVVvCV34v7Q36hdLFtX4VcPrkpX5KnmYff2ELmMhwUvThsFHVnnX24tOLWRYO88-82CmrWMuKziHU5fTWCFXAzaexaygGQl45-Y5747Qhh17OzKzDIhDDnHFW/s16000/horrible%20experince%20mridula%20garg%20shabdankan.jpg" /></a></div><br /><h1 itemprop="headline">मृदुला गर्ग ~ हौलनाक अनुभव </h1>
<div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">कल मुझे एक हौलनाक अनुभव हुआ। मैं अस्पताल में दरवाज़े के पास खड़ी गाड़ी का इंतज़ार कर रही थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मेरे ठीक सामने 2 युवा मर्द कुर्सियों पर बैठे थे। मैं काफ़ी देर उन्हें देखती रही। ज़ाहिर है, उन्होंने उठ कर मुझसे बैठने के लिए नहीं कहा। जानती हूं कि हमारे यहां यह परम्परा नहीं है। फिर भी पता नहीं क्यों मुझे बुरा लगा। शायद इसलिए कि गंभीर रूप से बीमार पति के साथ सारा दिन रहने के बाद मैं बेहद थकी हुई थी। लग रहा था और खड़ी रही तो गिर जाऊंगी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">खैर उससे उनका क्या लेना देना था। परंपरा के खिलाफ़ वे क्यों जाते!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">काफ़ी देर बाद,स्वीकार करती हूं, मैंने एक बेवक़ूफ़ी। शायद अपने गिरने की आशंका से ध्यान हटाने के लिए। उनका चित्र ले लिया। अमूमन मैं चित्र लेती नहीं। पर तब लिया। मैं उसे मिटा पाती, उससे पहले एक युवक कूद कर खड़ा हो गया। दूसरा मोबाइल पर व्यस्त था। उसी में लगा रहा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"आप मेरी फोटो नहीं ले सकतीं। यह ग़ैर-क़ानूनी है।" मैने कहा, "ठीक कह रहे हैं आप, डिलीट कर रही हूं।" करते हुए मैंने कहा, "वैसे मैं आपका नहीं, हिंदुस्तान का चित्र ले रही थी। यह अकेला देश है जिसमें जवान मर्द बैठे रहते हैं और बुज़ुर्ग औरतें खड़ी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">चाहें तो बैठ जाएं, उसने निहायत बदतमीज़ी से कहा। नहीं, आप ही बिराजें। पर उसके बैठने से पहले ही दूसरा युवक उसकी कुर्सी पर आ बैठा। उसने एतराज़ नहीं किया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उसे देख लगा,वह विदेश से आया है। धराशाई होने से ध्यान हटाने के लिए, पूछ लिया, "आप कहां से आए हैं?"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"अमरीका से," उसने कहा," पर मैं अपने देश लौटना चाहता हूं। मैं अपने देश और प्रधानमंत्री से बहुत प्रेम करता हूं।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं चुप रही। मेरी चुप्पी में उसे असहमति दिखी। तमतमा कर बोला, "मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। ईश्वर के बिना हम ड्रग खा खा कर मर जाएंगे। पर ईश्वर खुद धरती पर नहीं आता। किसी के माध्यम से काम करता है। प्रधानमंत्री वह माध्यम हैं।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"ईश्वर में मैं भी विश्वास करती हूं पर वह तो सब के भीतर है, आपके, मेरे, इनके, उनके, हर स्त्री पुरुष के।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"नहीं, जो ग़लत हैं, हमारे ईश्वर को नहीं मानते, उन्हें ख़त्म करना ज़रूरी है।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"यानी कौन?"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"मणिपुर के कुकी।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हतप्रभ मैंने कहा, "जो नरसंहार और नारी उत्पीड़न वहां हो रहा है, उसे आप सही समझते हैं!"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"बिल्कुल। मैं ईश्वर और अपने प्रधानमंत्री पर विश्वास करता हूं। वे सब कुछ सही कर देंगे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"ठीक कह रहा हूं न?" बाक़ी युवकों की तरफ देख उसने पूछा। उन्होंने सहमति में सिर हिलाया। तब तक मोबाइल में खोए युवक ने भी। मुझसे और वहां खड़ा नहीं रहा गया। बाहर धूप में निकल आई। गाड़ी का इंतज़ार करते गिर भी जाती तो उनके साथ से कम दर्दीला होता।</div></div><div style="text-align: right;">(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br />
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